Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 414
________________ ४०२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ अलंकारों का भी संक्षिप्त वर्णन पाया जाना इस काव्य की अपनी विशेषता है। ग्रन्थ में अनेक सूक्तियां दी हुई है जिन से ग्रन्थ सरस हो गया है। उदाहरणार्थ यहां तीन सूक्तियों को उद्धृत किया जाता है १ असिघारा पहेण को गच्छइ-तलवार की धार पर कौन चलना चाहता है। २ को भयदंडहि सायरुलंघहि-भुजदंड से सागर कौन तरना चाहेगा। ३ को पंचाणणु सुत्तउ खवलइ-सोते हुए सिंह को कौन जगायगा । इस रूपक काव्य में कामदेव राजा, मोह मन्त्री और प्रज्ञान प्रादि सेनापतियों के साथ भावनगर में राज्य करता है । चारित्रपुर के राजा जिनराज के उसके शत्रु हैं, क्योंकि वे मुक्ति रूपी लक्ष्मी (सिद्धि) के साथ अपना विवाह करना चाहते हैं। कामदेव ने राग-द्वेष नाम के दत द्वारा जिनराज के पास यह सन्देश भेजा कि आप या तो मुक्तिकन्या से विवाह करने का अपना विचार छोड़ दें, और अपने ज्ञान-दर्शन-चरित्र रूप सुभटों को मुझे सौंप दें, अन्यथा युद्ध के लिए तैयार हो जायें। जिनराज ने कामदेव से युद्ध करना स्वीकार किया और अन्त में कामदेव को पराजित कर अपना विचार पूर्ण किया । ग्रन्थ का कथानक परम्परागत ही है, कवि ने उसे सुन्दर बनाने का प्रयत्न किया है। रचना का ध्यान से समीक्षण करने पर शुभचन्द्राचार्य के ज्ञानार्णय का उस पर प्रभाव परिलक्षित हमा जान पड़ता है। इससे इस ग्रन्थ की रचना ज्ञानार्णव के बाद हुई है। ज्ञानार्णव की रचना वि० को ११वीं शताब्दी की है। उससे लगभग दो सौ वर्ष बाद 'मयण पराजय' की रचना हुई जाम पड़ती है। ___इस ग्रन्थ की एक प्रति सं० १५७६ को लिखी हुई ग्राभेर भंडार में सुरक्षित है । और दूसरी प्रति सं०१५५१ के मगशिर सुदि अष्टमी गुरुवार की प्रतिलिपि की हुई जयपूर के तेरापंथी बड़े मन्दिर के शास्त्रमण्डार में उपलब्ध है। इस कारण यह ग्रन्थ की सं०१५५१ के बाद की रचना नहीं हैं। पूर्व की है। पर्थात् विक्रम की १३वीं शताब्दी के द्वितीय तृतीय चरण की रचना जान पड़ती है। यशःकीति-- यश:कौति नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं। । प्रस्तुत यश:कीति उन सबसे भिन्न जान पड़ते हैं । इन्होंने अपने को 'महाकवि' सूचित करने के अतिरिक्त अपनी गुरु परम्परा यौर गण-गच्छादि का कोई उल्लेख नहीं किया। इनकी एक मात्र कृति 'चंदप्पह चरिज' है जिसमें ११ सन्धियां और २२५ कडबक हैं, जिनमें पाठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभ जिनका जीवन-परिचय अंकित किया गया है। ग्रन्थ का गत चरितभाग बड़ा ही सुन्दर और प्रांजल है । इसका अध्ययन करने से जहाँ जैन तीर्थकर की यात्म-साधना की रूप-रेखा का परिज्ञान होता है वहां आत्म-साधन की निर्मल झांकी का भी दिग्दर्शन होता है । कवि ने तीर्थकर के चरित को काव्य-शैली में अंकित किया है, किंतु साध्य चरित भाग को सरल शब्दों में रखने का प्रयास किया है। और अन्तिम ११वीं सधि में तीर्थंकर के उपदेश का चित्रण रचना हुई जान पता लिखी हुई भामेर भायी बड़े मन्दिर के शा३वीं शताब्दी के प्रतिलिपि की हुई जयपुर के डार में सुरक्षित है । और दसरी कारण यह ग्रन्थ की १. प्रस्तुत यश:कीर्ति गोपनन्दी के शिष्य थे, जो स्याद्वादतर्क रूपी कमलों को विकसित करने वाले सूर्य थे। बौद्ध वादियों के विजेता घे। सिंहलाधीशने जिनके चरण कमलों की पूजा की थी। (जंन लेख सं० भा०१ लेख ५५) २. दूसरे यशःकोति वागड संघ के भट्टारक विमलकीति के शिष्य और रामकीति के प्रशिष्य थे । ३. सोसरे यहाःकोति मूलसंघ के भट्टारक पपनन्दी के प्रशिष्य, भ. सकस कीति के शिष्य और शुभचन्द्र के गुरु थे। ४. चौथे यशःकीति काष्ठासंघ माथुरान्वय पुष्करगर के म. सहस्रकीति के प्रशिष्प, तथा भ० गुणकीति के शिष्य, लघुभाता एवं पट्टधर थे। यह ग्वालियर के तोमर वंशी राजा डूंगरसिंह के राज्य काल में हुए है, इनक समय सं. १४८६ से १५२० तक है। इनकी अपभंश भाषा की ४ रमनाएं उपलब्ध है पाण्डवपुराण (१४६७) हरिवंशपुराण (१५००) रविव्रत कथा, और जिन रावि कथा। पांच यःकीति भ० ललितकीति के शिष्य थे, धर्मशाभ्युदय की 'सन्देह प्वान्त दीपिका' नाम की टीका के कर्ता है। छठवें पशःकोति जगत्सुंदरी प्रयोग माला के कर्ता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566