Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 438
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ बालचन्द्र व्रती के शिष्य अहॅनन्दि बेदृदेव को पार्श्वनाथ वसदि के लिये भूमिदान दिए जाने का उल्लेख है (जैन लेख सं०भा० ४ पृ० १३४) पांचवें बालचन्द्र वे हैं जो मूलसंध देशीगण पनसोगे शाखा के नयकोति सिद्धान्त चक्रवर्ति के शिष्य अध्यात्मी बालचन्द्र के उपदेश से चिम्मिसेटि के पुत्र केसरसेटि ने बेलूर में सन् ११८० में मूर्ति को प्रतिष्ठा की थी। (जैन लेख सं० भा० ४ १०२७०)। छठे बालचन्द्र के हैं, जो माधवचन्द्र पैविध के शिष्य थे, और कवि कन्दर्प कहलाते थे। इन्होंने शक ११२७, रक्ताक्षी संवत्सर में द्वितीय पौष शुक्ल २ को बेलगाँव के रट्टजिनालय के लिए वीचण द्वारा शुभचन्द्र को दिए जाने वाले लेख को लिखा था । अतएव इनका समय शक ११२७ सन् १२०४ (वि० सं० १२६१) है। (जन लेख सं० भा० ४ पृ०२३६)। इनमें प्रस्तुत बालचन्द्र पण्डितदेव मूलसंघ देशियगण पुस्तक गच्छ कुन्दकुन्दान्वय इंगलेश्वर शाखा के श्री समुदाय कर माधनन्दि भट्टारक के प्रशिष्य और नेमिचन्द्रभट्टारक के दीक्षित शिष्य थे । और अभयचन्द्र संद्धान्तिक उनकै श्रुत गुरु थे । ये बल चन्द्र प्रति श्रुतमुनि के अणुव्रत गुरु थे श्रुतमुनि ने भी बालचन्द्र मुनि को अभयचन्द्र का शिष्य बतलाया है "सिखंताहयचंदस्स य सिस्सो बालचन्द मुणि पबरो।" (भावसंग्रह) प्रभयचन्द्र ने स्वयं गोम्मटसार जीवकाण्ड की मन्द प्रबोधिका टीका में बालचन्द्र पण्डित देव का उल्लेख किया है। । इन्होंने द्रव्यसंग्रह की टीका शक सं० ११६५ (वि० सं० १३३०) में बनाई थी। बालचन्द्र के सन् १२७४ के समाधि लेख में संस्कृत के दो पद्यों में बतलाया है कि बे बालचन्द्र योगीश्वर जयवंत हों, जो जैन आगमरूपी समुद्र के बढाने के लिए चन्द्र, कामके अभिमान के खटक, और भव्यरूप कमलों को प्रफल्लित करने के लिए दिवाकर हैं, गुणों के सागर, दया के समुद्र, तथा अभयचन्द्र मुनिपति के शिष्योत्तम हैं, अपनी प्रात्मा में रत हैं। जिन्होंने इस जगत में पूर्वाचार्यों की परम्परा गत जिनस्तोत्र सागर प्रयात्म शास्त्र रचे, वे अभयेन्दु योगी प्रख्यात शिष्य बालचन्द्र प्रती से जैन धर्म शोभायमान है। यथा-- भोजनागमवाधिवर्द्धन विधुः कंदर्पदपिहो, भव्याम्भोजविषाकरो गुणनिधिः कारुण्यसौधोवधिः। सश्रीमान् अभयेन्द्र सन्मुनिपति प्रख्यात शिष्योत्तमो, जीव्यात........ निजात्मनिरतो बालेन्द्र योगीश्वरः॥ पूर्वाधार्यपरम्परागत जिनस्तोत्रागमाध्यात्मस, च्छास्त्राणि प्रथितानि येन सहसा भुवन्निलामंडले। श्रीमन्मान्येभयेन्दुयोगिविबुधप्रख्यातसतसूनुना, बालेन्दुवतियेन तेनलसति श्रोजन/मधुना ।। -(म० मंसूर के प्राचीन स्मारक पृ० २७८) इनबालचन्द्र पण्डित देय की गृहस्थ शिष्या मालियबके थी। प्रस्तुत बालचन्द्र का स्वर्गवास सन् १२७४ में हुमा है। अतः यह बालचन्द्र ईसा की १३ वीं शताब्दी के अन्तिम चरण और विक्रम की १४ वीं शताब्दी के विद्वान थे। इन्द्रनन्दी इन्द्रनन्दी मे अपनी गुरु परम्परा और ग्रन्थ रचनाकाल आदि का उल्लेख नहीं किया। इनकी एक कृति --- - - - - - - ---- - १. गोम्मटसार जीवकाण्ड कलकत्ता संस्करण पृ० १५० । २. जन लेख संभा० ३ पृ० २६६ ।

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