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बलिगावे में चामेश्वर नाम का मन्दिर बनवाया था और ब्राह्मणों का दान दिया था।
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
- जैन लेख सं० भा २ पृ० २४१ - २४५) लेख नं० १६६
दुर्गदेव
दुर्गदेव - यह संयमसेन के शिष्य थे, जिनकी बुद्धि षट्दर्शनों के अभ्यास से तर्कमय हो गई थी, जो पंचांग तथा शब्द शास्त्र में कुशल थे, समस्त राजनीति में निपुण थे। वादि गजों के लिये सिंह थे, और सिद्धान्त समुद्र के पाक हुए थे। उन्हीं की आज्ञा से यह ग्रन्थ 'मरण करण्डिका' आदि अनेक प्राचीन ग्रन्थों का उपयोग करके પે 'रिष्ट सचमुच्चय' ग्रन्थ तीन दिन में रचा गया है। और जो विक्रम संवत् १०८६ की श्रावण शुक्ला एकादशी को मूल नक्षत्र के समय श्री निवास राजा के राज्य काल में कुम्भनगर के शान्तिनाथ मन्दिर में समाप्त हुआ है। दुर्गदेव ने अपने को देसजई ( देशयति) बतलाया है'। इससे वे भ्रष्ट मूल गुणसहित श्रावक के बारह व्रतों से भूषित वा क्षुल्लक साधु के रूप में प्रतिष्ठित हुए जान पड़ते हैं । इन्होंने अपने गुरुयों में संयमसेन श्रौर माधवचन्द्र का नामोल्लेख किया है । पर उनके सम्बन्ध में विशेष प्रकाश नहीं डाला ।
यह ग्रन्थ मृत्यु विज्ञान से सम्बन्ध रखता है । इसमें २६१ प्राकृत गाथाओं में अनेक पिण्डस्थ, पदस्थादि तथा रूपस्थादि चिन्हों - लक्षणों, घटनाओं एवं निमित्तों के द्वारा मृत्यु को पहले जान लेने की कला का निर्देश है। इनकी दूसरी रचना अर्ध काण्ड है, जो १४४ गाथाओं में निबद्ध है, श्रीर जो वस्तुओं की मन्दी-तेजी जानने के विज्ञान को लिए हुए एक अच्छा महत्व का ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ मेरे पास था, डॉ० नेमिचन्द्र ज्योतिषप्राचार्य ने भगाया था। वह उनके पास से कहीं खो गया। अतः भण्डारों में उसकी खोज करनी चाहिए |
तीसरी रचना 'मन्त्र महोदधि' का उल्लेख बृहत् टिप्पणिका में मन्त्र महोदधि प्रा० दिगंबर श्री दुर्गदेव कृत गा० ३६" रूप से मिलता है
१. जो इस तक्क तक्किय यम पंचंग सहागमे । जोगी सेसमहीस नीति कुसलो शम्भ कंठीरवो । जो सित मपारती (रणी) रसुणी तीरे दि पारंगओ, सो देवो सिरि संजमाई मुषिो आसी इह भूतले ॥ २५७ संजाम इह तस्म चाय चरियो गाणं बुषोयं मई, सीसो देस जई संवोहण परो दीसेरण- बुद्धागमो । गामेणं सिरि दुगदेव विहओ वागीसरा यन्नओ, तेणेदं रइयं विमुख महणा सत्यं महत्थं फुडं ॥ २५८ X X संबन्धर इंग सहसे बोलीन राज्य सीइ-संजुते (१०८९) सावण मुक्के यारसि दियहृम्म मूल विखम् ॥ २६० सिरि कुंभरणयर रहए लच्छिणिवास- रिणवइ-रज्जम्मि | सिरि संतिलाइ भनणे मुशिभवियस्स उभे रम्मे (१) ॥ २६१
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महाकवि पुष्पवन्त कवि पुष्पदन्त अपने समय के प्रसिद्ध विद्वान् कवि थे। उन्होंने उत्तरपुराण के अन्त में अपना परिचय निम्न प्रकार दिया है, – सिद्धि विलासिनी के मनोहर दूत, मुग्धादेवी के शरीर से संभूत, निर्धनों और धनियों को एक दृष्टि से देखने वाले, सारे जीवों के कारणमित्र, शब्द सलिल से जिनका काव्य स्रोत बढ़ा हुआ है, केशव के पुत्र, काश्यप गोत्री, सरस्वती विलासी, सूने पड़े हुए घरों और देव कुलिकाओं में रहने वाले, कलि के प्रबल पापपटलों से रहित, ये घरबार, पुत्र- कलत्रहीन, नदियों वापिकाश्रों और सरोवरों में स्नान करने वाले, पुराने वस्त्र और बल्कल पहनने वाले, धूल धूसरित अंग, दुर्जनों के संग से दूर रहने वाले, जमीन पर सोने वाले और अपने ही हाथों को प्रोढ़ने वाले, पण्डित पण्डित मरण की प्रतीक्षा करने वाले मान्यखेट नगरवासी, मनमें अरहंतदेव का ध्यान