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ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
२६६ विद्या के दो प्रकार हैं प्रविद्या और अध्यात्म विद्या । अविद्या संसार का कारण है, दु.स्वात्पादिका है, मिथ्यादर्शन प्रज्ञान और असंयम से युक्त है। राग-द्वेष, ईर्पा, अहंकार ममकार सुख दुख अादि उसो विद्या का परिवार है। अविद्या हेय है और विद्या उपादेय है । जो विद्या सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारित्र से भूषित है वह अध्याग विद्या है। उसके दो प्रकार है, स्वाध्याय और ध्यान । अपने प्रात्मस्वरूप का चिन्तवन करना अथवा ग्रात्म सम्बन्धि ज्ञान का नाम स्वाध्याय है। तथा इन्द्रिय व्यापार से रहित होकर केवल मन से आत्मा के स्वरूप का चिन्तवन करना अध्यात्म विद्या है।
स्वाध्याय—मोक्षमार्ग में उपयुक्त प्रागमज्ञान का अभ्यास करना और आगम में विहित पात्म स्वरूप का
वन करना स्वाध्याय है। इससे प्रात्मा विशिष्ट ज्ञानी होता है, और उसकी दष्टि जैन बचन में हैं। रमती है, क्योंकि वे वचन वीतराग सर्वज्ञ रूप हिमाचल से विनिर्गत हैं, कर्म क्षय में कारण हैं। अतएव जो माध विधि पूर्वक प्रागमका अभ्यासी है उसके मन-वचन-काय रूप गुप्ति वयका पालन होता है, माया मिथ्या निदान म्हा शल्य त्रय का विनाश होता है, और समितियों का भले प्रकार पालन होता है । स्वाध्याय से प्रात्म-वोध होता है। और उसी से जगत्रय का बोध कराने वाले केवल ज्ञान की प्राप्ति होती है। जब साधु का मन स्वाध्याय से थक जाता है, और पागमाभ्याम में मन नहीं रमता तब उसे प्रात्म ध्यान में प्रवृत्त होना चाहिये । एकाग्र चिन्ता निगंध का नाम ध्यान हैं। ध्यान कर्म निर्जरा का कारण है। उसमे आत्मशक्ति में स्फूर्ति उत्पन्न होती है। जब प्रामा अन्तर्बाह्य जल्पों से रहित होकर वस्तु स्वरूप के चिन्तन में निष्ठ होता है, तब वह अपने स्वकीय वैभव को प्राप्न करता है, उसमें उपसर्ग और परिषहों के सहने को सामर्थ्य अथवा जाति होती है। कंपायों को कामपना विनष्ट हो जाती है वे क्षीण शक्ति हो जाती हैं उनका रस शुष्क हो जाता है। और वे अपने कार्य करने में असमर्थ हो जाना हैं। आत्म परिणति निर्मल होती है, पान्तरिक विशुद्धि बढ़ती है। ध्यान और समाधि से आत्म-शक्ति का संचय होता है, मौर वह कर्म के संक्षय में कारण होती है। प्रतएव जो साधु प्रातरौद्रादि कुध्यानों का परित्याग कर धर्म प्रौर शक्ल ध्यान का प्राचरण करता है। उस समय उसका धर्म ध्यान ही शुक्ल ध्यान रूप परिणमन करने लगता है । और पात्मा अपने अनन्त गुणों के तेज से कर्मों के सुपुट बन्धनों को तड़ा तड़ तोड़ता हुआ स्वात्मोपलब्धि का पात्र बन जाता है । इस तरह यह ग्रंथ अध्यात्म विषय का महत्वपूर्ण है।
समय
कवि धीकुमार ने ग्रन्थ में रचना काल नहीं दिया। और न अपने गुरु का नामोल्लेख ही किया है। अनाव यह निश्चय करना बड़ा कठिन है कि वे कय हुए हैं। कार श्रीकुमार नाम के दो विद्वानों का उल्लेख किया गया है। उनमें से प्रथम श्रीकुमार कवि ही इस ग्रन्थ के कर्ता है, क्योंकि मं० १३०० में समाप्त होने वाली अनगार धर्मामत की टीका के हवे अध्याय के ४३वें श्लोक की टीका करते हुए निम्न पद्य उद्धृत किया गया है, जो प्रान्मप्रबोध में ५.१ नम्बर पर पाया जाता है :
मनोबोधाधीनं विनय बिनियुक्तं निजवपुवंचः पाठायत्तं करणगण माधाय नियतम् । वघानः स्वाध्याय कृत परिणति न बचने.
करोत्यात्मा कर्म शामिति समाध्यन्तरमि ॥५॥ इसमें बतलाया है कि जिस स्वाध्याय में मन ज्ञान के ग्रहण-धारण में लीन रहता है, शरीर विनय संयुक्त रहता है, वचन पाठ के उच्चारण में लगा रहता है, और इन्द्रिय समूह नियंत्रित रहता है इस प्रकार सारी परिणति जिसमें जिनवाणी की और रहती है ऐसे स्वाध्याय को धारण करने वाला निश्चय ही कर्मों का क्षय करता है, अतएव स्वाध्याय भी समाधि का रूपान्तर है।
इससे स्पष्ट है कि श्रीकुमार कवि सं० १३०० से पूर्ववर्ती हैं, वे बाद के विद्वान नहीं हो सकते। और नयनन्दि का समय सं० ११०० है, उन्होंने अपने समकालीन विद्वानों में श्री कुमार कदि का उल्लेख करते हुए उन्हें मरस्वती कुमार भी बतलाया है। अतः श्री कुमार ११वीं शताब्दो के विद्वान हैं। वे उस समय सरस्वती कुमार