Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 346
________________ ३३४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ पद्य मिलते हैं। इनकी बनाई हुई ५ टीकाएं उपलब्ध है। सारत्रय - प्रवचनसार, समयसार और पंचास्तिकय, परमात्मप्रकाश, और तत्वरत्न प्रदीपिका (तत्त्वार्थ सूत्रटीका) ये टीकाएं बड़ी सुन्दर और अध्यात्म विषय पर विस्तृत प्रकाश डालती है। प्राभृतत्रय की टीका के अन्त में निम्न गद्य पंक्ति दी है- इति समस्त संद्धान्धिक चक्रवर्ती श्रीनय कोतिनन्दन- विनेयजनानन्दन - निजरूचि सागरनन्दि परमात्मदेव सेवा सादितात्मस्वभाव नित्यानंद - बालचंद्र देव विरचिता वृत्तिः । कवि ने तत्त्वार्थसूत्र की 'तत्त्वरत्न प्रदीपिका' टीका कुमुद चंद्र भट्टारक के प्रतिबोध के लिये बनाई थी, ऐसा टीका में उल्लेख मिलता है। इनका समय सन् ११७० ईस्वी है । राजादित्य पद्यविद्याधर इनका उपनाम था। इसके पिता का नाम श्रीपति और माता का नाम वसन्ता था। कोंडिमंडल के पूविन बाग' में इसका जन्म हुआ था। यह विष्णुवर्धन राजा की सभा का प्रधान पंडित था । विष्णुवर्धन ने ईस्वी सन् १९०४ से ११४९ तक राज्य किया है। कवि के समक्ष उसका राज्यभिषेक हुआ था। अपने आश्रयदाता राजा की इसने एक पद्य में बहुत प्रशंसा की है। और उसको सत्यवक्ता, परहित चरित, सुस्थिर, भांगी, गंभीर, उदार, सच्चरित्र अखिल विद्यावित और भव्य सेव्य बतलाया है। यह कवि गणित शास्त्र का बड़ा भारी विद्वान हुआ है । कर्णाटक कवि चरित के लेखक के अनुसार कनड़ी साहित्य में गणित का ग्रंथ लिखने वाला यह सबसे पहला विद्वान था । इसके बनाये हुए व्यवहार गणित, क्षेत्रगणित, व्यवहाररत्न, जैनगणित सूत्रटीका उदाहरण, चित्रह सुगे और लीलावती ये गणित ग्रन्थ प्राप्य हैं। ये सब ग्रन्थ प्रायः गद्य-पद्यमय हैं। इसका व्यवहार गणित नाम का ग्रन्थ बहुत अच्छा है । इसमें गणित के त्रैराशिक, पंचराशिक, सप्तराशिक, नवराशिक, चक्रवृद्धि मादि सम्पूर्ण विषय हैं और ये इतनी सुगम पद्धति से बतलाये गये हैं कि गणित जैसा कठिन और नीरस विषय भी सरस हो गया है। कवि ने अपनी विलक्षण प्रतिभा से इसे पांच दिन में बनाकर समाप्त किया था। कवि के गुरु का नाम शुभचंद्र देव था । संभवतः ये शुभचंद्र वही हैं। जिनका उल्लेख श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं० ४३ में किया है और जिनको मृत्यु ईस्वी सन् १९२३ में बतलाई गई है। इससे कवि का समय सन् १११५ से ११२० तक जान पड़ता है । कीतिर्मा यह चालुक्य वंशीय ( सोलंकी ) महाराज त्रैलोक्य मल्ल का पुत्र था । त्रैलोक्यमल्ल ने सन् १०४४ से १०६८ तक राज्य किया है। इस के चार पुत्र थे विक्रमांकदेव ( १०७६ से १९२६), जयसिंह, विष्णुवर्धन, विजयादित्य और कीर्तिर्मा । कीर्तिवर्मा त्रैलोक्य मल्ल की जैनधर्म धारण करनेवाली केतलदेवी रानी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था । केतलदेवी ने सैकड़ों जैनमन्दिर बनवाये थे। उसके बनवाए हुए मन्दिरों के खंडहर और उनके शिलालेख अब भी कर्नाटक प्रान्त में उसके नामका स्मरण कराते हैं। कीर्तिवर्मा के बनाये हुए ग्रन्थों में से इस समय केवल एक 'गोवैद्य' ग्रन्थ प्राप्त है। इसमें पशुओं के विविध रोगों का और उनकी चिकित्सा का विस्तारपूर्वक वर्णन है। इससे जान पड़ता है कि वह केवल कवि ही नहीं वंद्य भी था । गोवैद्य के एक पद्य में उसने अपने लिये कीर्तिचन्द्र, वैरिकरिहरि, कन्दर्प मूर्ति, सम्यक्त्व रत्नाकर, बुधभव्य बान्धव, वैद्य रत्नपाल, कविताब्धिचन्द्र कीर्तिविलास आदि विशेषण दिये हैं। 'वैरिकरिहरि' विशेषण उसके बडा वीर तथा योद्धा होने को सूचित करता है । उसने अपने गुरू का नाम देवचन्द नि बतलाया है। श्रवण वेलगोल के ४० में शिलालेख में राघव पाण्डवीय काव्य के कर्ता श्रुतकीर्ति त्रैविद्य के समकालीन जिन देवचन्द की स्तुति की है संभवतः वे ही कीर्तिवर्मा के गुरु हों अथवा अन्य कोई देवचन्द । इनका समय सन् ११२५ ई० है । १. व्यवहार गणित के प्रत्येक पुष्पिका मद्य वाक्य से कवि के गुरु के नाम का पता चलता है- इति शुभचन्द्रदेव योर पादारविन्दमत्त मधुक रायमानमानसानन्दित सकलगति तत्वविलासे विनेयजन नुते श्री राज्यादित्य विरचिते व्यवहार मरिणते - इत्यादि ।

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