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तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के आचार्य, विद्वान और कवि
उस समय सलक्षणपुर में कमल भद्र नाम के संघवी रहते थे, जो काम के बाणों को विनष्ट करने के लिये तपश्चरण करते थे, अष्टमदों के विनास करने में वीर थे, और वाईस परिषहों के सहने में धीर थे । कर्म शत्रुओं का नाश करने वाले तथा भव्य रूप कमलों को सम्बोधन करने के लिए सुर्य के समान थे ।' कषायों मोर सल्यत्रय के विनाशक श्रीमन्त सन्त पौर संयम के निधान थे। उसी नगर में मल्ह (माला) के पुत्र नागदेव रहते थे, जो निरन्तर पुण्यार्जन करते थे । वहीं संयमी गुणी, सुशील रामचन्द्र रहते थे। वहीं पर खण्डेलवाल कुलभूषण, विषय विरक्त, भव्यजन बान्ध व के शव के पुत्र इन्दुक या इन्द्र चन्द्र रहते थे, जो जैनधर्म के धारक थे, और जिन भक्ति में तत्पर तथा संसार से उदासीन रहते थे। इससे स्पष्ट है कि उस समय मलक्षणपुर में अच्छे धर्मनिष्ठ लोगों का निवास था। उक्त इन्दुक ने ने मिजिन की स्तुति कर तीन प्रदक्षिणाएं दी पौर भव्य नागदेव को शुभाशीर्वाद दिया । तव नागदेव ने कहा कि राज्य परिफर से क्या, मनहारी हय, गय रो क्या, जब कि माता-पिता पुत्र कलत्र, मित्र सभी इन्द्रधनुष के समान अनित्य हैं । निर्मल चित्त और भव्यों के मित्र नागदेव ने कवि से कहा, हे दामादर कवि ! ऐसा काम कीजिए जिससे धर्म में हानि न हो। मुझे नेमिजिन चरित्र बनाकर दीजिए, जिससे में गंभीर भव से आज तर जाऊं और मेरा जन्म सफल हो जाय । तब कवि ने नागदेव के अनुरोध से, और पण्डित रामचन्द्र के आदेश रा नेमिनाथ जिन का चरित्र बनाया । जैसा कि उसको संधिपुष्पि का से प्रकट है:
वामोयर विराए पंडियरामयच आएसिए महाकये महसुप्रणग्गएवमाय पिणए मिणिचाण गमण पंचमोपरिच्छेमो सम्मसो ॥१४॥
प्रस्तुत चरित एक खण्ड काव्य है जिसमें पांच सन्धियों में बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ को पावन जीवनगाथा अंकित है । ग्रन्थ की अपूर्ण प्रति उपलब्ध है, सम्भव है किसो शास्त्रभंडार में उसको पूर्ण प्रतिउपलब्ध हो जाय। ग्रन्थ में काव्यत्वको विशेषता नहीं है, हाँ चरित को सुन्दर में व्या किया है । पावि गुण र समुशारक कलिमल के नाशक मुनि सूरिसेन का नामोल्लेख किया है। उनके शिष्य मुनि कमलभद्र थे, जोभव्यजन आनन्ददायक थे।
रचनाकाल
कवि ने ग्रन्थ की रचना का समय दिया है। कविने ग्रन्थ की रचना सलक्षणपुर में वि० सं० १२८७ में परमारवंशी राजा देवपाल के राज्य काल में समाप्त किया है जैसा कि उसके निम्न वाक्य से स्पष्ट है:
बारहसयाई सत्तासियाई विक्कमरायहो कालहं।
परमारह पट्ट समुखरणु णरवइदेवपालहूं ॥ देवपाल भालवे का परमारवंशी राजा था, और महाकुमार हरिश्चन्द्र वर्मा का, जो छोटो शाखा के वंशधर थे, द्वितीय पुत्र था । क्योंकि अर्जुन वर्मा के कोई सन्तान नहीं थी, प्रतः उस गद्दी का अधिकार इन्हें ही प्राप्त हमा था। इसका अपरनाम 'साहसमल्ल' था। इसके समय के ३ शिलालेख मौर एक दान पत्र मिला है। उनमें एक विक्रम संवत् १२७५ (सन् १२१८) का हरसोडा गांव से भौर दो लेख ग्वालियर राज्य से मिले हैं। जिनमें एक
तेनान्यश्च यथाशक्ति भवभीतरनुष्ठितः । ग्रन्थों बुधावाधरेण सद्धर्मार्थ मयों कृतः ।।७ विकमार्कश्मणीस्वादशान्द शतात्यये । दाम्या पश्चिमे (मागे) कृष्णे प्रयता कथा । पत्नी श्री नामदेवस्य नंद्यादानायिका । यासीदलत्रपविधि परतीनां पुरस्सरी
-रत्नत्रय विधि प्रशस्ति १. ताहिकमलभर संघाहिवई, कुसुम सर वियारण लज तवई।
मय अटु दुह रिगट्ठवरण वीरु, बावीस परिसह सहणधीर ।
अरि-कम्म किरहिणण, विषाणु, राईव भब्वबोहभाणु । २. इडियन एण्टीबेरी जि० २०१० ३११