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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास--भाग २ । प्रस्तुत ग्रन्थ में सुदर्शन के निष्कलंक चरित की गरिमा ने उसे और भी पावन एवं पठनीय बना दिया है। ग्रन्थ में १२ सन्धियां और २०७ कडलक हैं, जिनमें सुदर्शन के जीवन परिचय को अकित किया गया है। परन्तु कथा काव्य में कवि की कथन शैली, रस और अलंकारों की पुट, सरस कविता, शान्ति और वैराग्यरस तथा प्रसंगवश कला का अभिव्यंजन, नायिका के भेद, ऋतुओं का वर्णन और उनके बेष-भूषा आदि का चित्रण, विविध छन्दों की भरमार, है वे ग्रन्थ में मात्रिक विषम मात्रिक लगभग १२ छन्दों का उल्लेख मय उदाहरणों के दिये गए हैं। इससे नयनन्दी छन्द शास्त्र के विशेष ज्ञाता जान पड़ते हैं। लोकोपयोगी सुभाषित, और यथा स्थान धर्मोपदेशादि का विवे. चन इस काव्य ग्रन्थ की अपनी विशेषता के निदर्शक हैं और कवि को ग्रान्तरिक भद्रता के द्योतक हैं। अन्य में पंच नमस्कार मंत्र का फल प्राप्त करने वाले सेठ सुदर्शन के चरित्र का चित्रण किया गया है।
कथावस्तु
चरित्र नायक यद्यपि वणिक श्रेष्ठी है तो भी उसका चरित्र अत्यन्त निर्मल तथा भेरुवत् निश्चल है। उसका रूप-लावण्य इतना चित्ताकर्षक था कि उसके बाहर निकलते ही युबतिजनों का समूह उसे देखने के लिये उत्कंठित होकर मकानों की छतों द्वारा तथा झरोखों में इकट्ठा हो जाता था, वह कामदेव का कमनीय रूप जो था। साथ ही वह गुणज्ञ और अपनी प्रतिज्ञ के पालन में अत्यन्त राधमांचरण करने में तत्पर, सवसे मिष्ठभाषी और मानव जीवन की महत्ता से परिचित था और था विषय विकारों से विहीन । ग्रन्थ का कथा भाग सुन्दर मौर माकर्षक है।:
अंग देशके चंपापुर नगर में, जहां राजा धाड़ीवाहन राज्य करता था। वहां वैभव सम्पन्न ऋषभदास सेठ का एक गोपालक (ग्वाला) था, जो गंगा में गायों को पार कराते समय पानी के वेग से डूब कर मर गया था और मरते समय पंच नमस्कार, मंत्र की प्राराधना के फलस्वरूप उसी सेठ के यहां पुत्र हुमा था। उसका नाम सुदर्शन रक्खा गया। सूदर्शन को उसके पिता ने सब प्रकार से सुशिक्षित एवं चतुर बना दिया, और उसका विवाह सागरदत्त सेठ की पुत्री मनोरमा से कर दिया। अपने पिता की मृत्यु के बाद वह अपने कार्य का विधिवत् संचालन करने लगा। सुदर्शन के रूप की चारों ओर चर्चा थी, उसके रूपवान शरीर को देखकर उस नगर के राजा धाड़ी वाहन की रानी अभया उस पर प्रासक्त हो जाती है और उसे प्राप्त करने की अभिलाषा से अपनी चतुर पंडिता दासी को सेठ सुदर्शन के यहां भेजतो है, पंडिता दासी रानी की प्रतिज्ञा सुनकर रानी को पतित्रत धर्म का अच्छा उपदेश करतो है और सुदर्शन को चरित्र-निष्ठा को ओर भी संकेत करती है, किन्तु अभया अपने विचारों से निश्चल रहती है और पंडिता दासी को उक्त कार्य की पूर्ति के लिये खास तौर से प्रेरित करती है। पंडिता सुदर्शन के पास कई बार जातो है और निराश होकर लौट आती है, पर एक बार वह दासी किसी कपट-कला द्वारा सुदर्शन को राज महल में पहुंचा देती है । सुदर्शन के राज महल में पहुंच जाने पर भी अभया अपने कार्य में असफल रह जाती है-उसको मनोकामना पूरी नहीं हो पाती। इससे उसके चित्त में असह्य वेदना होती है और वह उससे अपने प्रपगान का बदला लेने पर उतारू हो जाती है, वह अपनी कुटिलता का माया जाल फैला कर अपना सुकोमल शरीर अपने ही नखों से रुधिरप्लावित कर डालती है और चिल्लाने लगती है कि दोड़ो लोगों मुझे बचाओ, सुदर्शन ने मेरे सतीत्व का अपहरण किया है, राजकर्मचारी सुदर्शन को पकड़ लेते हैं और राजा अज्ञानता वश कोधित हो रानी के कहे अनुसार सुदर्शन को सूली पर चढ़ाने का आदेश दे देता है। पर सुदर्शन अपने शीलब्रत की निष्ठा से विजयी होता है- एक देव प्रकट होकर उसकी रक्षा करता है । राजा धाडीवाहन का उस व्यन्तर से युद्ध होता है और राजा पराजित होकर सुदर्शन की शरण में पहुंचता है, राजा घटना के रहस्य का ठीक हाल जान कर अपने कृत्य पर पश्चाताप करता है और सुदर्शन को राज्य देकर विरक्त होना चाहता है, परन्तु सुदर्शन संसार-भोगों से स्वयं ही विरक्त है, वह दिगम्बर दीक्षा लेकर तपश्चरण करता है राजा के लौटने से पूर्व ही प्रभया रानी ने आत्मघात कर लिया और मर कर पाटलिपुत्र नगर में व्यन्तरी हुई। पंडिता भी पाटलिपुत्र भाग गई और वहां देवदत्ता गणिका के यहां रहने लगी।
मुनि सुदर्शन कठोरता से चारित्र का अनुष्ठान करने लगे । वे विहार करते हुए पाटलिपुत्र पहुँचे । उन्हें देख