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जन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
तोरणाचार्य यह कुन्द कुन्दान्वय के विद्वान थे। और शाल्मलो नामक ग्राम में आकर रहे थे। वहां उन्होंने लोगों का अज्ञान दूर किया था और जनता को सन्मार्ग में लगाया था। तथा अपने तेज से पृथ्वी मण्डल को प्रकाशित किया पा! तारजाचार्य के शिष्य पुष्पनन्दि थे। जो उक्त गण में अग्रणी थे। पुष्पनन्दि के शिष्य प्रभाचन्द्र थे, जिनके लिये यह वसति बनवाई गयी थी। उस समय राष्ट्रकूट वंशी राजा गोविन्द तृतीय का राज्य था। उसके राज्य के दो ताम्रपत्र मिले हैं।' एक शक सं० ७२४ का और दूसरा शक सं० ७१९ का। प्रतः इन प्रभाचन्द्र के दादा गुरु तोरणाचार्य का समय प्रभाचन्द्र से लगभग ४० वर्ष पूर्व माना जाय तो उनका समय शक सं० ६७६ सन् ७५६ होना चाहिए । अर्थात् वे ईसा को पाठवीं शताब्दो के विद्वान थे और विक्रम,की हवीं शताब्दी के ।
कुमारसेन भट्टारक भट्टारक कुमारसेन को शक सं० ८२२ (सन् ६००) वि० सं० ६५७ में सत्यवाक्य कोंगणिवर्म धर्म महाराजाधिराज मे, जो कि कुवलाल नगर के स्वामी थे । और श्रीमत्पेर्मनडि ऐरेयप्पेरस ने सफेद चावल, मुक्तश्रम, घी सदा के लिये चुगी से मुक्तकर पेमेनडिवसदि के लिए भट्टारक कुमारसेन को दिया था। इससे इन कुमारसेन का समय ईसा की नवमी और विक्रम की दशवी शताब्दी है।
-जन लेख सं०मा०२ पृ० १६०
कुमारसेन यह कुमारसेन वीरसेन के शिष्य थे, जो चन्द्रिकावाट के विद्वान थे। इन्होंने मूलगुण्ड में अपना स्थायी निवास बना लिया था। यह बड़े विद्वान थे। इनका समय १०वीं शताब्दी है।
रविकोति रविकीति अपने समय के प्रसिद्ध विद्वान और जैनधर्म के संपालक थे। ऐहोल-अभिलेख बीजापुर जिले के हुगुण्ड तालुका के ऐहोल के मेगुटि नाम के जंन मन्दिर की भोर पूर्व की दीवाल पर अंकित है। लेख में ११
- - -- १. कोण्डकोन्दान्वयो दारो गणोऽभूभुवनस्तुतः । तदैतद् विषय विख्यातं शामली प्राममायसन् । पासीद (१) तोरणाचार्म स्तपः फलपरिग्रहः । तत्रोपशम संभूत भावनापास्तकल्मषः ।। पण्डितः पुष्पनन्दीति बभूव भुवि विश्रतः । अन्तेवासी मुनेस्तस्य सकलश्चन्द्रमाइच ।। प्रति दिवस भवद्धि निरस्तदोषो व्यथेत हृदयमलः । परिभूतचन्द्र विम्बस्तच्छिष्योऽभूत प्रभाचन्द्रः ।।
-शक सं०७२४ का ताम्रपत्र आसौद तोरणाचार्यः कोण्डकुन्दान्वयोद्भवः । स चैतद् विषये श्रीमान् शल्मलीग्राम माश्चितः । निराकृत तमोराति स्थापयन् सत्पथे जनान् । स्वतेजो घोतिता क्षौरिणचंडाचिरिब यो बभौ । तस्याभूद् पुष्पनन्दीतु शिष्योविद्वान मरणानणीः । तच्छिष्याचप्रमाचन्द्र स्वस्येयं वसतिः कृता।। -शक सं०७१६ का ताम्रपत्र