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आचार्य समन्तभद्र
जीवन-परिचय
श्राचार्य समन्तभद्र विक्रम की दूसरी-तीसरी शताब्दी के प्रसिद्ध तार्किक विद्वान थे। वे असाधारण विद्या के धनी थे, और उनमें कवित्व एवं वाग्मित्वादि शक्तियाँ विकास को चरमावस्था को प्राप्त हो गई थीं । समन्तभद्र का जन्म दक्षिण भारत में हुआ था। वे एक क्षत्रिय राजपुत्र थे। उनके पिता फणिमण्डलान्तर्गत उरखपुर के राजा थे । उनका जन्म नाम शान्तिव था। उन्होंने कहां और किसके द्वारा शिक्षा पाई, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता। उनकी कृतियों का अध्ययन करने से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उनको जैनधर्म में बड़ी श्रद्धा थी, और उनका उसके प्रति भारी अनुराग था। वे उसका प्रचार करना चाहते थे । इसीलिए उन्होंने राज्य वैभव के मोह का परित्याग कर गुरु से जैन दीक्षा ले ली, और तपश्चरण द्वारा आत्मशक्ति को बढ़ाया। समन्तभद्र का मुनि जीवन महान् तपस्वी का जीवन था। वे ग्रहिंसादि पंच महाव्रतों का पालन करते थे और ईर्ष्या-भाषा एवणादि पांच समितियों द्वारा उन्हें पुष्ट करते थे। पंच इन्द्रियों के निग्रह में सदा तत्पर, मन-वचन-कायरूप गुप्तिश्रय के पालन में धीर, और सामायिकादि षडावश्यक ोिं के अनुष्ठान में सदा सावधान रहते थे और इस बातका सदा ध्यान रखते थे कि मेरी दैनिकचर्या या कषायभाव के उदय से कभी किसी जीव को कष्ट न पहुँच जाय । अथवा प्रमादवश कोई बाधा न उत्पन्न हो जाय । इस कारण वे दिन में पदमदित मार्ग से चलते थे। चलते समय वे अपनी दृष्टि को इधर उधर नहीं घुमाते थे; किन्तु उनकी दृष्टि सदा मागंशोधन में अग्रसर रहती थी। वे रात्रि में गमन नहीं करते थे और निद्रामैं भी ये इतनी सावधानी रखते थे कि जब कभी कर्वट बदलना ही श्रावश्यक होता तो पीछी से परिमार्जित करके ही बदलते थे । तथा पीढी, कमंडलु मीर पुस्तकादि वस्तुओं को देख भालकर उठाते रखते थे, एवं मल-मूत्रादि भी प्राशुक भूमि में ही क्षेपण करते थे । वे उपसर्ग परिषहों को साम्यभाव से सहते हुए भी कभी चित्त में दिलगीर या खेदित नहीं होते थे। उनका भाषण हित-मिल और प्रिय होता था। वे भ्रामरी वृत्ति से ऊनोदर भाहार लेते थे। पर उसे जीवन-यात्रा का मात्र अवलम्बन (सहारा) समझते थे और ज्ञान-ध्यान एवं संयम की वृद्धि और शारीरिक स्थिति का सहायक मानते थे । स्वाद के लिए उन्होंने कभी श्राहार नहीं लिया। इस तरह वे मूलाचार ( भाचारांग ) में प्रतिपादित चर्या के अनुसार व्रतों का अनुष्ठान करते थे। मट्ठाईस मूलगुणों और उत्तरगुणों का पालन करते हुए उन की विराधना न हो, इसका सदा ध्यान रखते थे ।
भस्मकव्यापि मौर उसका शमन
मुनिचर्या का निर्दोष पालन करते हुए भी कर्मोदयवश उन्हें भस्मक व्याधि हो गई। उसके होने पर भी कभी अपनी चर्या से चलायमान नहीं हुए। जब जठराग्नि की तीव्रता भोजन का तिरस्कार करती हुई उसे क्षणमात्र में भस्म करने लगी; क्योंकि वह भोजन सीमित मौर नीरस होता था, उससे जठराग्नि की तृप्ति होना संभव नहीं था। उसके लिये तो गुरु, स्निग्ध, शीतल मौर मधुर मन्नपान जबतक यथेष्ट परिमाण में न मिले, तो वह जठरा'ग्मि शरीर के रक्त मांसादि धातुओं को भस्म कर देती है। शरीर में दौर्बल्य हो जाता है, तृषा, दाह मौर मूर्छादिक अन्य अनेक बाधाएं उत्पन्न हो जाती हैं। बढ़ती हुई क्षुधा के कारण उन्हें प्रसह्य वेदना होने लगी, कहा भी है"शुभा सभा नास्ति शरीर वेदना' भूख को बड़ी वेदना होती है। समन्तभव ने जब यह अनुभव किया कि रोग इस तरह are नहीं होता, किन्तु दुर्बलता निरन्तर बढ़ती जा रही है, अतः मुनि पद को स्थिर रखते हुए इस रोग का प्रतीकार होना संभव नहीं है, दुर्बलता के कारण जब मावश्यक क्रियामों में भी बाघा पड़ने लगी, तब उन्होंने गुरु श्री से अस्मक व्यामि का उल्लेख करते हुए निवेदन किया कि भगवन् ! इस रोग के रहते हुए निर्दोष चर्या का पालन करना अब मवाय हो गया है। अतः मुझे समाजिभरण की मामा दीजिए। परन्तु गुरु बड़े विद्वान, तपस्वी, भीर-वीर
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