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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
उनमें स्पष्ट रूप से वीर जिन स्तवन की प्रतिक्षा गार उसी की परिशनास्ति का उल्लेख है। इस कारण ग्रन्थ का प्रथम नाम 'बीर जिन स्तोत्र' है।
माचार्य समन्तभद्र ने स्वयं ४८व पद्य में 'युक्त्यनुशासन' पद का प्रयोग कर उसकी सार्थकता प्रदर्शित कर दी है और बतलाया है कि युक्त्यनुशासन शास्त्र प्रत्यक्ष और पागम से अविरुद्ध प्रथं का प्रतिपादक है। "दृष्टागमाभ्यामविरुद्धमर्थप्ररूपणं युक्त्यनुशासनं ते ।" अथवा जो युक्ति प्रत्यक्ष प्रौर आगम के विरुद्ध नहीं है, उस वस्तु की व्यवस्था करने वाले शासन का नाम युक्त्यनुशासन है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वस्तुतत्त्व का जो कथन प्रत्यक्ष और पागम से बिरुद्ध है वह युक्त्यनुशासन नहीं हो सकता। साध्या बिनाभावी साधन से होने वाले साध्यार्थ का कथन युक्त्यनुशासन है।'
इस परिभाषा को बे उदाहरण द्वारा पुष्ट करते हुए कहते हैं कि वास्तव में वस्तुस्वरूप स्थिति, उत्पत्ति पौर विनाश इन तीनों को प्रति समय लिए हए ही व्यवस्थित होता है । इस उदाहरण में जिस तरह वस्तुतत्त्व उत्पादादि त्रयात्मक युक्ति द्वारा सिद्ध किया गया है, उसी तरह वीरशासन में सम्पूर्ण पर्य समूह प्रत्यक्ष और पागम पविरोधी युक्तियों से प्रसिद्ध है।
पुन्नाट संघी जिनसेन ने 'हरिवंश पुराण' में बतलाया है कि प्राचार्य समन्तभद्र ने 'जीवसिद्धि' नामक ग्रन्थ बनाकर युक्त्यनुशासन की रचना की है । चुनाचे टीकाकार प्राचार्य विद्यानन्द ने भी ग्रन्थ का नाम युक्त्यनुशासन बतलाया है।
ग्रन्थ में दार्शनिक दृष्टि से जो वस्तु तत्व पचित हना है वह बड़ा ही गम्भीर और तात्त्विक है। इसमें स्तवन प्रणाली से ६४ पद्यों द्वारा स्त्रमत-परमत के गुण दोषों का सूत्र रूप से बड़ा मार्मिक वर्णन दिया है। और प्रत्येक विषय का निरूपण प्रबल यूक्तियों द्वारा किया गया है।
प्राचार्य समन्तभद्र ने 'युक्तिशास्त्राऽविरोधि वास्त्व हेतु से देवागम में आपकी परीक्षा की है, और जिनके वचन युक्ति मोर शास्त्र से अविरोध रूप है उन्हें ही प्राप्त बतलाया है और शेष का प्राप्त होना बाधित ठहराया है। भौर बतलाया है कि प्रापके शासनामृत से वाह्य जो सर्वथा एकान्तवादी हैं वे माप्त नहीं हैं किन्तु प्राप्तभिमान से दग्ध है; क्योंकि उनके द्वारा प्रतिपादित इष्टतत्त्व प्रत्यक्ष प्रमाण से वाधित है।
प्रन्थ में भगवान महावीर की महानता को प्रदर्शित करते हुए बतलाया है कि-'वे अतुलित शान्ति के साथ
१. 'स्तुति गोचरत्वं निनीषवः स्मो वयमद्यवीर ।। " 'स्तुतिः शपरपाथेयः पदमधिपतस्त्वं जिन ! मया, महावीरो पीरो दुरितपरसेनाऽभि विजये ।।४।। २. "अन्यथानुपपन्नत्य नियमनिश्चयलक्षणात् साधनात्साध्या प्ररूपणं युक्त्यनुशासनमिति'
-पुक्त्यनुशासन टीका पृ. १२२ ३. युक्त्यनुशासन प्रस्तावना पृ०२ ४. 'जीवसिद्धि विघापोह कृतयुक्त्यनुशासनम् ।
-हरिवंश पुराण ५. 'जीवात् समन्तभद्रस्य स्तोत्रं युक्तमनुशासनम् ।' (१) 'स्तोत्रे युक्त्यनुशासने जिनपते वीरस्य नि:शेषतः' । (२) "श्रीमदीरजिनेश्वरामसगुणस्तोत्रं परीषोमणः । साक्षात्स्वामिसमन्तभवगुरुभिस्तत्वं समीक्ष्याखिनम् । प्रोक्तं पुस्तमनु शासनं विजयभिःस्पाढादमार्गानुर्गः ॥" (४) ६. स्वनमाऽमृतवालाना सरंयकान्त-बादिनाम् । माप्ताभिमानन्दग्धानो स्पेष्टं दृष्टेन बाध्यते ।।
देवागम का०७