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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
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अग्रोहा नगर में की थी ऐसा लिखा है। पर इसका कोई प्राचीन उल्लेख मेरे अवलोकन में नहीं याया । किन्तु १६वीं २०वीं शताब्दी के लेखों में लोहाचार्य के अन्वय का उल्लेख मिलता है। ऐसी स्थिति में बुलाकीदास का लिखना विश्वसनीय नहीं जान पड़ता । काठ की प्रतिमा के पूजन से काष्ठासंघ नाम पड़ा, यह कल्पना तो निराधार है ही, काठ की प्रतिमा के पूजन का निषेध भी मेरे देखने में नहीं आया ।
काष्ठा नाम का स्थान दिल्ली के उत्तर में जमुना नदी के किनारे बसा था। जिस पर नागवंशियों की टांक शाखा का राज्य था। १४वीं शताब्दी में 'मदन पारिजात' नाम का निबन्ध यहीं लिखा गया था। काष्ठासंघ की पट्टावली में भी लोहाचार्य का नाम है। ऐसी प्रसिद्धि है कि लोहाचार्य ने ही अग्रवालों को दि० जैन धर्म में दीक्षित किया था । अग्रवालों का उल्लेख करने वाले लेखों में काष्ठासंघ मोर लोहाचार्यान्वय का निर्देश है ।
इस संघ के आचार्य श्रमितगति द्वितीय ने अपनी जो गुरु परम्परा दी है, उसमें देवसेन, अमितगति प्रथम, नेमि पेण, माधवसेन और श्रमितगति द्वितीय हैं। अमितगति द्वितीय ने अपनी रचनाएं सं० १०५० से १०७३ तक बनाई हैं । इसी संघ के अन्तर्गत अमरकीर्ति ने जो गुरु परम्परा दी है वह इन्हीं अमितगति से शुरू की है, अमितगति, शान्तिषेण, अमरसेन, श्रीषेण, चन्द्रकीर्ति, धमरकीर्ति । भ्रमरकीर्ति को रचनाएं सं० १२४४ से १९४७ तक की उपलब्ध हैं । इन्हीं अमरकी के शिष्य इन्द्रनन्दि ने श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र के योग शास्त्र की टीका शक सं० १९८० वि० सं० १३१५ में बनाकर समाप्त की थी। इससे स्पष्ट है कि काष्ठासंघ के माथुरसंघ की यह परम्परा १०५० से १३१५ तक चलती रही है। उसके बाद इसी परम्परा में उदयचन्द्र, बालचन्द्र और विनयचन्द्र हुए। इन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा अपभ्रंश साहित्य को वृद्धिगत किया है। उदयचन्द्र ने गृहस्थ अवस्था में सुगन्ध दशमी कथा की रचना लगभग ११५० ई० में की थी। उसके बाद वे मुनि हो गए थे।
htoris में नन्दितट, माथुर, बागड़ और लाल बागढ़ ये चार गच्छ प्रसिद्ध थे। जैसा कि भट्टारक सुरेन्द्रकीति की पट्टावली से स्पष्ट है। ये चारों नाम स्थानों और प्रदेशों के नामों पर रक्खे गए हैं । कुमारसेन नन्दि तट गच्छ के थे। और रामसेन माथुर संघ के, जिसका विकास मथुरा से हुआ है। बागड़ से वागड़गच्छ, और लाट गुजरात और भागड़ से लाल बागड़गच्छ । लाट और बागड़ बहुत समय तक एक हो राजवंश के भाधीन रहे हैं। माथुर संघ को जैनाभास, जीव रक्षा लिये किसी तरह की पीछी न रखने के कारण कहा गया है। आचार्य श्रमितगति द्वितीय के ग्रन्थों से ऐसा कोई भी भेद नजर नहीं पाता जिससे उन्हें जैनाभास कहा जाय । दर्शनसार की रचना वि० सं० ६६० में हुई है।
मविद - इसमें अनेक विद्वान आचार्य और भट्टारक हुए हैं। रामसेन नरसिंह जाति के संस्थापक कहे गये हैं। इनके शिष्य नेमिसेन ने भट्टपुरा जाति की स्थापना की है। भीमसेन के शिष्य सोमकीर्ति ने संवत् १५३२ में बीरसेम गुरु के साथ शीतलनाथ मूर्ति की प्रतिष्ठा को सोमकीर्ति मे स० १५२६-१५३१ और १५३६ में प्रद्युम्नचरित, सप्तम्यसन कथा और यशोधरचरित की रचना की। सं० १५४० में एक मूर्ति की प्रतिष्ठा की। मीर सुलतान फिरोजशाह के राज्यकाल में पावागढ़ में पद्मावती की सहायता से आकावा गमन का चमत्कार दिख लाया। इनके बाद अन्य अनेक भट्टारक हुए, जिन्होंने जैनधर्म की सेवा की ।
माथुर गच्छ इस गच्छ में अनेक ग्रन्थकर्ता विद्वान हुए हैं। इस गछ के दिया जा चुका है। नैमिषेण के शिष्य अमितगति प्रथम ने योगसार की रचना की।
१. वेली, पभोसा का स० १६८१ सन् १८२४ का लेख, जैन लेख सं० भा० धर्मपुरा के जैन मूर्ति लेल मनेकान्त वर्ष १६. किरा ३ लेख मं० १० ११ १२ में लोहा २. काष्ठासं भुविषयात जानन्ति सुरासुराः । तत्र गाश्च चत्वारो राजन्ले विश्रुताः
श्री नन्वित संज्ञा च माथुरो साल- हरये के विख्याताः
जिसी || बागाभिषः । क्षितिमण्डले ।
अनेक विद्वानों का उल्लेख ऊपर माघवसेन के शिष्य प्रमितगति
पू० ५७१-५८० तथा गया मन्दिर का उल्लेख है ।