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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
ज्ञाता थे । वे उस समय के साधुओं में बहुश्रुत विद्वान तथा अष्टांग महानिमित्त के ज्ञाता थे। उन्होंने प्रवचन वात्सल्य एवं श्रुतविच्छेद के भय से एक लेखपत्र देण्यातट नगर के मुनि सम्मेलन में दक्षिणापथ के आचार्यो के पास भेजा । जिसमें देश, कुल, जाति से विशुद्ध शब्द अर्थ के ग्रहण - धारण में समर्थ, विनयी दो विद्वान साधुओं को भेजने की प्रेरणा की गयी। संघ ने पत्र पढ़कर दो योग्य साधुओं को उनके पास भेजा।' इस सम्मेलन में ही सर्वप्रथम निग्रं न्य दिगम्बर संघ में नन्दि सेन, सिंह, भद्र, गुणषर, पंचस्तूप प्रादि उपसंघ उत्पन्न हुए थे और उनके कर्ता ग्रहंबली थे । यह सम्मेलन संभवतः सन् ६६ ई० पू० में हुआ था । उन विद्वानों के थाने पर आचार्य धरसेन ने उनकी परीक्षा कर 'महा कर्म प्रकृति प्राभूत' नाम के ग्रन्थ को शुभ तिथि शुभ नक्षत्र और शुभ वार में पढ़ाना प्रारम्भ किया अ.र उसे कम से व्याख्यान करते हुए प्राषाढ़ महीने के शुक्ल पक्ष की एकादशी के पूर्वाह काल में समाप्त किया। विनयपूर्वक ग्रन्थ समाप्त होने से सन्तुष्ट हुए भूत जाति के व्यंतर देवों ने उन दोनों में से एक की पुष्पावली तथा शंख और तू जाति के वाद्य विशेष के नाद से व्याप्त बड़ी पूजा की । उसे देखकर प्राचार्य धरसेन ने उनका भूतबलि नाम रक्खा । श्रीर दूसरे की प्रस्त-व्यस्त दन्त पंक्ति को दूर किया, अतएव उनका नाम पुष्पदन्त रक्खा ।
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. ये दोनों ही विद्वान गुरु की प्राज्ञा से चलकर उन्होंने अंकलेश्वर (गुजरात) में वर्षा काल बिताया। वर्षा योग को समाप्त कर और जिनपालित को लेकर पुष्पदन्त तो उसके साथ वनवास देश को गये। और भूतबलि भट्टारक मिल देश को चले गए। पश्चात् पुष्पदन्ताचार्य ने जिनालित को दीक्षा देकर बीस प्ररूपणा गर्भित सत्प्ररूपणा के सूत्र बनाकर और जिनपालित को पढ़ाकर, पश्चात् उन्हें भूतबलि याचार्य के पास भेजा। उन्होंने निमोलित के पास वीसप्ररूपणान्तर्गत सत्प्ररूपणा के सूत्र देखे और पुष्पदन्त को अल्पायु जानकर महाकर्म प्रकृति प्राभूत के विच्छेद होने के भय से द्रव्य प्रमाणानुगम से लेकर जीवस्थान, क्षुद्रक बन्ध, बन्ध स्वामित्वविचय, वेदना, afer atर महाबन्ध रूप षट् खण्डागम की रचना की। ये दोनों ही प्राचार्य राग-द्वेष-मोह से रहित हो जिन वाणी के प्रचार में लगे रहे। इन्द्रनन्दि और ब्रह्म हेमचन्द्र के श्रुतावसार से ज्ञात होता है कि जब षट्खण्डागम की रचना पूर्ण हुई, तब चतुविध संघ सहित पुष्पदन्त भूतबलि प्राचार्य ने ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को ग्रंथराज की बड़ी भक्तिपूर्वक पूजा की । उसी समय से श्रुतपंचमी पर्व लोक में प्रचलित हुम्रा ।
षट् खण्डागम की महत्ता इसलिये भी है कि उसका सीधा सम्बन्ध द्वादशांग वाणी से है। क्योंकि अग्रायणी पूर्व के पाँचवें अधिकार के चतुर्थ वस्तु प्राकृत का नाम महाकमंप्रकृति प्राभृत है, उससे षट्खण्डागम की रचना हुई है। जैसा कि घवला पुस्तक ९ पृष्ठ १३४ के निम्न वाक्यों से प्रकट है :- पियस्स पुध्वस्त पंचमस्स वत्थुस्स चउत्थो पाहुडो कम्म पयड़ीणाम । अतएव द्वादशांग वाणी से उसका सम्बन्ध स्पष्ट ही है ।
षट् लण्डागम परिचय
१ जीवस्थान – में गुणस्थान और मार्गणा स्थानों का आश्रय लेकर सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर,
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सो विसगिरियर, पट्टण- चंदगुहा- ट्टिए मणिमत्तवारएण गंध-वोच्छेदो होदिति जात भएण पववरण वच्छलेखा दविरगावहाइरियाणं महिमाए मिलिया हो पेसिदो लेहट्टिय- घर से रण वयरणमवधारय तेहि वि आइरिएहि ये साहू ग्रहण-धारण समत्या घवसामल-बहुविहविलय विसियंगा सीलमालाहरा गुरुसरणास पतित्ता देस कुलजाइ सुद्धा सरकला पारवा तिषखुतावुच्छपादरिया अन्धविसयवेणायडादो पेसिदा । - धव० पु० १ पृ० ६७ २. भूदल भयव वा जिरणवासिद पासे दिवीसदि सुत्ते अप्पाउओ कि अवगय जिस वालिदेश महाकम्मपय पाहूउस्स वोच्छेदो होहदिति समुप्पण्ण बुद्धि या पुणो दब्वपमा गुणुगमादि काऊरा गंथरचना कदा | -- धवला० पुस्तक १ पृ० ७१
ज्येष्ठ सितपक्ष पञ्चभ्यां चतुर्वर्ण्य संघसमवेतः । तत्पुम्तकोपकर व्यंधात् क्रिया पूर्वक पूजाम् । श्रुतपंचमीति तेन तस्माति तिथिरिमं परामाप । अद्यापि येन तस्यां श्रुतपूजा कुर्वते जनाः ॥ इंद० ० १४३, १४४ । ब्रह्महेमचन्द्र श्रुतस्कन्ध गा० ८६ ८७
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