________________
५६
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास---भाग २ इस संघ के अन्तर्गत सात गणों के नाम मिलते हैं-देवगण, सेनगण, देशोगण, सूरस्थ गण, बलात्कारगण, काणूरगण और निगमान्वय । इन गणों का नामकरण मुनियों के नामान्त शब्दों से, तथा शान्त और स्थान विशेष के कारण हुए हैं।
देवगण-इनमें देवगण सबसे प्राचीन है। इस गण का अस्तित्व लक्ष्मेश्वर से प्राप्त चार लेखों में (१११, ११३, ११४ पोर १५६) से, तथा कडवन्ति से प्राप्त ११वीं शताब्दी के एक लेख १९३ से मालूम होता है। इसके पश्चात अन्य लेखों में इसका उल्लेख नहीं मिलता। इसका देवगण नाम केसे पड़ा, यह तत्कालीन लेखों से कुछ ज्ञात नहीं होता । संभव है देवान्त नाम होने से देवगण संज्ञा प्राप्त हुई हो। जैसे उदयदेव, (११३) लाभदेव, जयदेव विजयदेव महादेव, महीदेव और अकलंकदेव मादि। कुछ विद्वान् अकलंकदेव को इस गण का प्रतिष्ठापक मानते हैं ।
सेनगण-यह गण भी प्राचीन है। यद्यपि इसका सबसे पहला उल्लेख मुलगण्ड से प्राप्त लेख नं० १३७ (सन् ६०३) में हुमा है। पर उत्तरपुराण के रचयिता गुणभद्र ने अपने गुरु जिनसेन पीर दादा गुरु वीरसेन को सेनान्वय का विद्वान माना है। किन्तु वीरसेन जिनसेन ने अपनी धवला जयघवला टीका में अपने वंश को पंचस्तपान्वय लिखा है। पंचस्तुपान्वय ईसा की ५वीं शताब्दी में होने वाले निग्रन्थ सम्प्रदाय के साधुनों का एक संघ था। यह बात पहाड़पुर जि० राजशाही, बंगाल से प्राप्त एक लेख से जानी जाती है। पंचास्तूपान्वय का सेनान्वय के रूप सबसे पहला उल्लेख संभवतः गुणभद्र ने उत्तरपुराण में किया है । इससे यह कहा जा सकता है कि जिनसेन इस गच्छ के प्रथम प्राचार्य थे। इसके बाद के किसी प्राचार्य ने पंचस्तूपान्वय का उल्लेख नहीं किया।
सेनगण तीन उपभेदों में विभक्त हुप्रा । पोगरी या होगिरी गच्छ, पुस्तकगच्छ और चन्द्रकपाट । पोगरीकच्छ का प्रथम उल्लेख' शक सं०८१५ सन् ८९३ (वि० सं० १५०) के लेख में 'मूलसंघ सेनान्वय' पोगरीगण के प्राचार्य विजयसेन के शिष्य कनकसेन को ग्रामदान देने का उल्लेख है।
देशीगण-कोण्डकुन्दान्वय के साथ प्रयुक्त होने वाले देशीयगण का मूलसंघ के साथ प्रयोग सन् ८६०ई० के एक लेख में पाया जाता है। जो पहले ताम्रपत्र के रूप में था और बहुत समय बाद मुनि मेघचन्द्र विद्यदेव के शिष्य वीरनन्दी मुनि ने कुछ लोगों के साग्रह से पाषाणोत्कीर्ण कराया था। मेषचन्द्र विद्य देव और वीरनन्दी की गुरु परम्परा का उल्लेख लेख नं०४१ में पाया जाता है। अनेक शिलालेखों में देसिय, देशिक, देसिग और देशीय मादि नामों से इस गण का उल्लेख मिलता हैं। देशिय शब्द देश शब्द से बना है, देश का सामान्य अर्थ प्रान्त होता है। दक्षिण भारत में कन्नड़ प्रान्त के उस भू-भांग को, जोकि पश्चिमी घाट के उच्च भूमिभाग (बालाघाट)
और गोदावरी नदी के बीच में है, देश नाम से कहा जाता था। वहाँ के निवासी ब्राह्मण अब भी देशस्थ कहलाते हैं। इस गण के मादिम प्राचार्यों के नाम के साथ 'भट्टारक' पद जुड़ा हमा है। वीं शताब्दी के अनेक लेखों में मुनियों की उपाधि भद्रार या भद्रारक दी गई है। पश्चाद्वर्ती लेखों में इस गण के प्राचार्यों की उपाधि सिद्धान्तदेव, संद्धान्तिक या विद्य पाई जाती है। शिलालेखों के अवलोकन से जाना जाता है कि कर्नाटक प्रान्त के कई स्थानों में इस गण के अनेक केन्द्र थे। उनमें हनसोगे (चिकहनसोगे) प्रमुख था। यहां के प्राचार्यों से ही आगे चलकर इस गण के हनसोगे बलि या गच्छ का उद्भव हुआ है। गच्छ का अर्थ शाखा या बलि होता है। कन्नड़ शब्द बलय या बलग का अर्थ परिवार होता है।
चिक हनसोगे के शिलालेखों से ज्ञात होता है कि वहाँ इस गण की मनेक वसदियां (मंदिर) यों, जिन्हें चंगाल्व नरेशों द्वारा संरक्षण प्राप्त था। देशीगण का प्रमुख गच्छ पुस्तकगच्छ है। इसका उल्लेख अधिकांश लेखों में मिलता है । हनसोगेबलि पुस्तकगच्छ का ही एक उपभेद है। इस गण को एक शाखा का नाम 'इंगुलेश्वर बलि है। जिसके प्राचार्य गण प्रायः कोल्हापुर के पास-पास रहते थे।
१. जैनलेख सं० भा०४ लेख नं०६१५० ३६ । २. देखो, जैन शिलालेख सं० भा० ४ लेख नं०६४ । ३. जैन लेख सं० भा० ४ ले० नं० ६१ पृ. ३१ ।