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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
का उल्लेख वि० स०१०९७ (सन् १०३०) में श्रीनन्दो के शिष्य धीचन्द्र ने किया है। श्रीनन्दो का समय श्रीचन्द्र से २० वर्ष पूर्व माना जाय तो सन् १०१० में बलात्कार गण का उल्लेख हुमा है। ऐसी स्थिति में उक्त पदमनन्दि को बलात्कारगण का संस्थापक नहीं माना जा सकता। क्योंकि यह घटना चार सौ-पांच सौ वर्ष पूर्व को है। बलात्कार गण में अनेक विद्वान भट्टारक हुए हैं और उनके पट्ट भी अनेक स्थानों पर रहे हैं। इस कारण बलात्कार गण का विस्तार अधिक रहा है। इस गण के भट्टारकों ने जैनधर्म को सेवा भी की है। महाराष्ट्र में मलखेड का पीठ बलात्कारगण का केन्द्र था। उसकी दो शाखाएँ कारंजा और लातूर में स्थापित हुई थीं। सूरत में भी बलारकार गण की गही थी। ग्वालियर और सोनागिरि माथुर गच्छ और बलात्कारगण के केन्द्र थे और हिसार मायुर गच्छ का समान पीठ था।
बलात्कारगण के साथ सरस्वती गच्छ का उल्लेख चौदहवीं सदी से मिलता है। यह लेख शक सं० १२७७ मन्मथ संवत्सर का है। इसमें कुन्दकुन्दान्वय, सरस्वती गच्छ, बलात्कारगण, मूलसंघ के अमरकोति प्राचार्य के शिष्य, माधनन्दि व्रती के शिष्य भोगराज द्वारा शांतिनाथ की मूर्ति की स्थापना का उल्लेख है।
जैन शिलालेख सं० भा० ४ पृ०२८८ पर क्रम नं० ४०३, ४०४ और पु० ३०५ में क्र० ४३४ न० के लेखों में कुन्दकुन्दान्वय की परम्परा में राजा हरिहर के समय इरुग दण्ड नायक द्वारा जिन मन्दिर के निर्माण का उल्लेख है । मुल संघ बलात्कारगण के भट्टारक धर्मभूषण के उपदेश से इम्मडि बुक्क मंत्री द्वारा कुन्दन बोलु नगर में कून्यनाथ का चैत्यालय बनवाये जाने का उल्लेख है। और मूलसंघ बलात्कारगण सरस्वतो गच्छ के वर्धमान भट्रारक की प्रार्थना पर राजा देवराय द्वारा वरांग नामक ग्राम नेमिनाथ मंदिर को दिये जाने का उल्लेख है।
काणरगण-इस गण के तीन उपभेदों का उल्लेख मिलता है—तिन्त्रिणी गच्छ, मेषपाषाण गच्छ और पुस्तक गच्छ । इस गण का पहला उल्लेख दसवीं शताब्दी के लेख (जैन शि० सं० भा० ४ क्रमांक न.८६) में मिलता है। तथा १४वीं शताब्दी के अन्त तक के उल्लेख उपलब्ध होते हैं । मूल संघ के देशिय गण और क्राणर गण की अपनी वसदियां (मन्दिर) होती थीं। दडिग से प्राप्त एक लेख में लिखा है कि होयसल सेनापति मरियाने और भरत ने दडिगणकेरे स्थान में पांच सदियां बनवायी थों उनमें चार बसदियां देशियगण के लिये और एक क्राणूर गण के लिए'। १४वीं शताब्दी के बाद काणूरगण का प्रभाव बलात्कारगण के प्रभावक भट्टारकों के समय प्रभावहीन हो गया।
कल्लूर गुड्ड के लेख में क्राणूरगण के प्राचार्या की वंशावली निम्न प्रकार दी है-दक्षिण देशवासो, गङ्गराजानों के कुल के समुद्धारक श्री मूलसंघ के नाथ सिंहनन्दि नाम के मुनि थे। उसके पश्चात् पहंदल्याचार्य, बेमुददाम मन्दि भट्टारक, बालचन्द्र भट्टारक, मेधचन्द्र विद्यदेव, गुणचन्द्र, पण्डित देव । इनके बाद शब्दब्रह्म, गुणन्दिदेव हुए। इनके बाद महान तार्किक एवं वादी प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव हुए, जो मूलसंघ कोण्डकुन्डान्वय क्राणूरगण तथा मेषपाषाण गच्छ के थे। उनके शिष्य माधनन्दि सिद्धान्तदेव, और उनके शिष्य प्रभाचन्द्र हुए। इनके सधर्मा अनन्त वीर्य मुनि, मुनिचन्द्र मुनि, उनके शिष्य श्रुतकीर्ति, उनके शिष्य कनकनन्दि विद्य हुए, जिन्हें राजाओं के दरबार में त्रिभुवन-मल्ल-वादिराज कहा जाता था इनके सधर्मा माधवचन्द्र, उनके शिष्य बालचन्द्र विद्य थे।
काणूरगण की तिन्त्रिणी गच्छ की प्राचार्य परम्परा का उल्लेख लेख न० ३१३, ३७७, ३०९, ४०८ और ४३१ में पाया है। रामणन्दि, पद्मणन्दि, मुनिचन्द्र मुनिचन्द्र, के भानुकोति और कुलभूषण (४३१ ले०) भानुकोति के नयकीर्ति और कुलभूषण के सकलचन्द्र हुए।
यापनीय संघ की स्थापना दर्शन सार के कर्ता देवसेन सूरि के कथनानुसार वि. स. २०५ में श्री कलश नाम के श्वेताम्बर साधु ने की थी। अर्थात् यह संघ श्वेताम्बर-दिगम्बर भेद की उत्पत्ति से लगभग ७० वर्ष
१. जैन एण्टीक्वेरी भा०६, प्रक२१०६६ नं. ५८ २. जन शि० ले० सं० मा० २५० ४१६ ३. कल्लाणे बरणयरे दुण्णिसए पंरउत्तरे जादे। जावणिय संघभावो सिरिकलसादो वडदो।।
-दर्शनसार २६