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( ४ ) आदि शब्दों की भरमार की है। ऐसे शब्दों का मी उत्तर न दिया जायगा । विद्यानन्दजी ने मेरे लेग्न के उद्धरण श्रधरे अधूरे लिये हैं और कहीं कहीं अत्यावश्यक उद्धरण छोड दिया है । इस विषय में तो मैं पं० श्रीलाल जी को धन्यवाद दंगा जिन्होंने मेरे पूरे उद्धरण लेने में उदारता दिखलाई । उद्धरण अधरा होने पर भी ऐसा अवश्य होना चाहिये जिमसे पाठक उलटा न समझलें।
दोनो लेख लम्बे लम्बे हैं। उनमें बहुत सी ऐमी पाने भी है जिनका विधवाविवाह के प्रश्न से सम्बन्ध नहीं है, परन्तु दोनों महाशयों के सन्तोषार्थ मैं उन बातों पर भी विचार करूंगा। इससे पाठकों को भी इतना लाभ जरूर होगा कि वे जैनधर्म की अन्यान्य वातो से भी परिचित हो जायेंगे । मेग विश्वास है कि वह परिचय अनावश्यक न होगा।
चम्पतरायजी के ३१ प्रश्नों के उत्तर में जो कुछ मेने लिखा था उसके खण्डन में दोनों महाशयोंने जो कुछ लिखा है, उसका सार मैने निकाल लिया है। नीचे उनके एक एक आक्षेप का अलग अलग समाधान किया जाता है। पहिले श्रीलालजी के प्राक्षेपों का, फिर विद्यानन्दजी क आक्षेपों का समाधान फिया गया है ! मैं विरोधियों से निवेदन करता हूँ या चैलेज देता हूँ कि उनसे जितना भी आक्षेप करते बने, खुशीसे करें। मैं उत्तर देने को तैयार हूँ।
पहला प्रश्न आक्षेप (अ)-सम्यक्त्व की धातक सात प्रकृतियों में चार अनन्तानुबन्धी कषायें भी शामिल हैं। विधवाविवाह के लिये जितनी तीव्र कषाय की जरूरत है वह अनन्तानुबन्धी के , उदय के बिना नहीं हो सकती। जैसे परस्त्रीसेवन अनन्तानुबधी