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दोनों खवियाँ बहुत बड़ी खत्रियाँ हैं । सामाजिक-रक्षा और उन्नतिके साथ भात्मिक-रक्षा और उन्नतिके लिये सुविधा देना और किसीके अधिकारको न छीनना, ये दोनों बाते अगर जैन. धर्म में न होगी तो किस धर्म में होगी? अगर किसी धर्म में ये दोनों बातें नहीं है तो यह इन दोनों बातों का दुर्भाग्य नहीं है, किन्तु उसधर्मका हीदुर्भाग्य है । यह स्मरण रखना चाहिये कि धर्मग्रन्थों में'न लिखी होने से अच्छी बातों की कीमत नहीं घटती, किन्तु अच्छी बातें न लिखी होने से धर्मग्रन्थों की कीमत घटती है।
प्रत्येक स्त्री पुरुष को किशोर अवस्था से लेकर युवा अवस्था के अन्त तक विवाह करने का जन्मसिद्ध अधिकार है। पुरुप इस अधिकार का उपयोग मात्रा से अधिक करता रहे
और स्त्रियों को जरूरत होने पर भी न करने दे; इतना ही नहीं किन्तु वह अपनी यह नादिरशाही धर्म के नाम पर उसमें भी जैनधर्म के नाम पर--चलावे, इस अन्धेर का कुछ ठिकाना है ! मुझे तो उनकी निर्लजता पर आश्चर्य होता है कि जो पुरुष अपने दो दो चार चार विवाह कर लेने पर भी विधवाओं के पुनर्विवाहको धर्मविरुद्ध कहने की धृष्टता करते है। जिस कामदेव के श्रागे वे नङ्गे नाचते हैं, वृद्धावस्थामें भी विवाह करते है, एक कसाई की तरह कन्याएँ खरीदते हैं, उसी 'काम' के आकमणले जव एक युवती विधवा दुखी होती है और अपना विवाह करना चाहती है तो ये करता और निर्लज्जता के अवतार धर्मविरुद्धता का डर दिखलाते हैं। यह कैसी बेशरमो है ! , विधवाविवाह के विरोधी कहते हैं कि पुरुषों को पुनविवाह का अधिकार है और स्त्रियों को नहीं । ऐसे अत्याचार.