Book Title: Jain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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द्वितीय गृह - धनेश तुला राशि का होकर दशम स्थान कार्यक्षेत्र में जा बैठा है । राजकुलोत्पन्न होकर भी क्योंकि शनि उच्च का, तुला राशि का है अतः राजयोग इस जातक का दीख पड़ रहा है। मतलब यह कि ऐसा जातक राजघराने में जन्म लेकर भी राजसत्ता का उपभोग नहीं कर सकता ।
तृतीय गृह - वृहस्पति तीसरे स्थान का स्वामी होकर भी क्योकि दशम स्थान में उच्च क्षेणी होकर बैठा है और अपने घर को पूर्ण दृष्टि से देख रहा है इसलिए इस जातक का मान-सम्मान अक्षुण्ण रहता है । यह व्यक्ति अपने क्षेत्र में सूर्य के समान चमकता है ।
तीसरे स्थान का स्वामी गुरु उच्च राशि का होकर केन्द्र में स्थित है, इसके हिसाब से चार बहिन भाइयों के योग बन रहे हैं लेकिन राहु का संयोग होने से एक बहिन व एक भाई ही होंगे। बहिन का योग इसलिए बन रहा है कि चन्द्रमा के तृतीय भाव पर पूर्ण दृष्टि है और ग्यारहवें स्थान का स्वामी मंगल लग्न में बैठा है । ऐसी हालत में जातक के सहोदर या सहोदरा अग्रज ही हो सकते हैं, कनिष्ठ नहीं ।
चतुर्थ गृह — उच्च का सूर्य मेष राशि का है, साथ ही बुध का संयोग भी है तथा मंगल की पूर्ण दृष्टि है । ऐसा जातक स्वाभिमानि महत्त्वाकांक्षी, उदारवृत्तिवाला व गम्भीर प्रकृति का तथा आत्मबली व्यक्ति होता है । सूर्य व बुध की युक्ति के परिणामस्वरूप ऐसा जातक विचारवान्, संशोधक तथा सुभाषी विद्वान् होता है ।
पंचम गृह - पंचम स्थान में वृष राशि शुक्र के गृहस्वामी होने के कारण इस ऐश्वर्यशाली, सुदर्शन, सात्विक वृत्तिक, सदाचारी जातक की बुद्धि में वैराग्य भाव अबोधावस्था पार करते ही आ जाना चाहिए । इस जातक ने स्वजनों के सांसारिक मोहपाश से स्वयं को निस्पृह रखा होगा | यह जातक आचार्य पद को प्राप्त करने वाला होता है। बुध राशि के होने से इसके उत्कर्ष काल का आरम्भ 28 वें वर्ष से होता है पांचवें घर में क्योंकि शुक्र अपने घर का स्वामी बना बैठा है: अत: इस जातक के सन्तान के नाम पर पुत्त्री ही होती है। ऐसा जातक पुत्रसुख से विहीन होता है । 'सुतेश यस्य पंचमे पुत्र तस्य न जीवति' (लोमशसंहिता ) |
षष्ठम गृह – बुध गृह क्योंकि नपुंसक है अतः इस जातक में काम-क्रीड़ाओं, रति - क्रियाओं या प्रणय-व्यापार के प्रति विशेष उत्साह नहीं होता है । कामदेव की बजाय महादेव इसका आदर्श होता है। जातक का शत्रु पक्ष निर्बल होता है । इसका विरोध नगण्य होता है । किंबहुना जातक अजातशत्रु होता है ।
सप्तम गृह – राहु और वृहस्पति कर्क राशि में स्थित हैं इसलिए इसका परिय वय कैशोरकाल ठहरता है । इस इन्द्रिय-निग्रही जातक के सातवें घर राहु की स्थिति है तथा शनि की पूर्ण दृष्टि है । इसलिये पत्नी त्याग का अवसर भी शीघ्र ही होकर यौवनावस्था में ज्ञान उपस्थित होता है । उच्च राशि का वृहस्पति तथा राहु की युक्ति होने के कारण जातक तमोगुण-नाशक, शिक्षा-दाता, तामसी वृत्ति व इन्द्रिय सुखों का परित्याग करने व कराने वाला होता है ।
अष्ठम गृह - अष्ठमेष सूर्य उच्च राशि का होकर चौथे घर में बैठा है अतः
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