Book Title: Itihas Ke Aaine Me Navangi Tikakar Abhaydevsuriji Ka Gaccha
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Mission Jainatva Jagaran
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________________ खरतरगच्छ के सहभावी रुद्रपल्लीय गच्छ एवं अन्य गच्छीय ग्रंथों के उल्लेख 1. रुद्रपल्लीय गच्छ और वर्तमान खरतरगच्छ की पाट परंपरा जिनवल्लभगणिजी के बाद क्रमशः जिनशेखरसूरिजी एवं जिनदत्तसूरिजी से अलग होती है। अगर जिनशेखरसूरिजी के पूर्वज जिनेश्वरसूरिजी को खरतर बिरुद मिला होता तो जिनशेखरसूरिजी की शिष्य परंपरा भी अपनी उत्पत्ति खरतरगच्छ से बताती, परंतु ऐसा नहीं है। रुद्रपल्लीय गच्छ के (सं. 1468 में) जयानन्दसूरिजी ने "आचार दिनकर' की टीका की प्रशस्ति में चान्द्रकुल में हए जिनशेखरसूरिजी से रुद्रपल्लीय गच्छ की उत्पत्ति बतायी है। इससे यह भी पता चलता है कि सं. 1468 तक तो यह गच्छ खुद को चान्द्रकुल की ही एक शाखा मानता था, अर्थात् खरतरगच्छ की शाखा नहीं मानता था। परंतु वर्तमान में इसे खरतरगच्छ की शाखा के रूप में गिनाया जाता है, जो उचित नहीं है। इस बात का विशेष ऐतिहासिक स्पष्टीकरण आगे किया जायेगा। ___ रुद्रपल्लीय गच्छ के उल्लेख से पता चलता है कि जिनेश्वरसूरिजी की शिष्य परंपरा खरतरगच्छ के रुप में प्रसिद्ध नहीं हुई, परंतु जिनदत्तसूरिजी की शिष्य परंपरा ही खरतरगच्छ के रूप में प्रसिद्ध हुई है। 2. अंचलगच्छ के 'शतपदी ग्रंथ' में वेदाभ्रारुणकाले' के द्वारा खरतरगच्छ की उत्पत्ति वि. सं. 1204 में बतायी है। 3. तपागच्छ की 51वीं पाट पर हुए आचार्य मुनिसुंदरसूरिजी ने वि.सं. 1466 में 'गुर्वावली-विज्ञप्तिपत्र' की रचना की थी, उसमें स्त्री-पूजा के निषेध को लेकर खरतरगच्छ की उत्पत्ति होना बताया है। खरतरगच्छ की यह मान्यता जिनदत्तसूरिजी से शुरु हुई थी। अतः यह स्पष्ट होता है कि तपागच्छ के पूर्वाचार्य भी 'जिनदत्तसूरिजी से खरतरगच्छ की उत्पत्ति हुई' ऐसा मानते थे, न कि जिनेश्वरसूरिजी से। 4. इसी तरह तपागच्छ के हर्षभूषण गणिजी ने सं. 1480 में 'श्राद्धविधि विनिश्चय' की रचना की, उसमें भी 'वेदाभ्रारुणकाले' पाठ के द्वारा 1. देखें-परिशिष्ट 6, पृ. 140 / इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ/019 )