Book Title: Itihas Ke Aaine Me Navangi Tikakar Abhaydevsuriji Ka Gaccha
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Mission Jainatva Jagaran
View full book text
________________ आसि सिरिवद्धमाणो सूरि सव्वत्थ सुपसिद्धो।।4।। सूरिजिणेसरसिरिबुद्धिसायरा सायरुव्व गंभीरा। सुरगुरुसुक्कसरित्था सहोअरा तस्स दो सीसा।।5।। वायरणछंदनिग्घंटुकव्वणाडयपमाणसमएसु। अणिवारिअप्पयारा जाण मई सयलसत्थेसु।।6।। ताण विणेओ सिरिअभयदेवसूरित्तिनाम विक्खाओ। विजयक्खो पच्चक्खो कयविक्कयसंगहो धम्मो।।7।। जिणमयभवणब्भंतरगूढपयत्थाण पयडणे जस्स। दीवयसिहिव्व विमला सूई बुद्धी पवित्थरिआ।।8।। ठाणाइनवंगाणं पंचासयपमुहपगरणाणं च। विवरणकरणेण कओ उवयारो जेण संघस्स।।9।। इक्को व दो व तिण्णि व कहवि तु लग्गेण जइगुणा हंति। कलिकाले जस्स पुणो वुच्छं सव्वेहिवि गुणेहिं।।10।। सीसेहिं तस्स रइअं चरिअमिणं वद्धमाणसूरीहिं। होउ पढंतसुणताण कारणं मोक्खसुकखस्स।।11।। इन दोनों प्रशस्तिओं में भी वर्धमानसूरिजी ने अभयदेवसूरिजी को चान्द्रकुल के ही बताये हैं। 22. वि. सं. 1292 में जिनपाल उपाध्याय ने 'षट्स्थानक प्रकरण' की टीका लिखी थी। उसकी प्रशस्ति में भी जिनेश्वरसूरिजी को चान्द्रकुल के अवतंस (आभूषण), वादिविजेता तथा तर्कशास्त्र प्रणेता के रूप में बताया है, परंतु 'खरतर' बिरुद प्राप्ति की बात नहीं लिखी है। देखियेजिनेश्वरश्चान्द्रकुलावतंसो दुर्वारवादिद्विपकेसरीन्द्रः। सन्नीतिरत्नाकरमुख्यतर्क-ग्रन्थप्रणेता समभून्मुनीशः।।1।। 23. तथा जिनपालोपाध्यायजी ने ही सं. 1293 में 'द्वादशकुलक' की टीका लिखी थी। उसकी प्रशस्ति में जिनेश्वरसूरिजी को वसतिवास के स्थापक के रूप में बताया है, परंतु ‘खरतर' बिरुद प्राप्ति का उल्लेख नहीं किया है। उसकी इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /107