Book Title: Itihas Ke Aaine Me Navangi Tikakar Abhaydevsuriji Ka Gaccha
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Mission Jainatva Jagaran

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Page 145
________________ परिशिष्ट-7 निष्पक्ष इतिहासकार पं. कल्याणविजयजी का ऐतिहासिक उपसंहार इतिहास साधन होने के कारण हमने तपागच्छ, खरतरगच्छ, आंचलगच्छ आदि की यथोपलब्ध सभी पट्टावलियों तथा गर्वावलियाँ पढ़ी हैं और इससे हमारे मन पर जो असर पड़ा है उसको व्यक्त करके इस लेख को पूरा कर देंगे। __ वर्तमानकाल में खरतरगच्छ तथा आंचलगच्छ की जितनी भी पट्टावलियां हैं, उनमें से अधिकांश पर कुल गुरुओं की बहियों की प्रभाव है, विक्रम की दशवीं शती तक जैन श्रमणों में शिथिलाचारी साधुओं की संख्या इतनी बढ़ गई थी कि उनके मुकाबले में सुविहित साधु बहुत ही कम रह गये थे। शिथिलाचारियों ने अपने अड्डे एक ही स्थान पर नहीं जमाये थे, उनके बड़ेरे जहाँ-जहाँ फिरे थे, जहाँ-जहाँ के गृहस्थों को अपना भाविक बनाया था, उन सभी स्थानों में शिथिलाचारियों के अड्डे जमे हुए थे, जहाँ उनकी पौषधशालाएँ नहीं थीं वहाँ अपने गुरु-प्रगुरुओं के भाविकों को सम्हालने के लिये जाया करते थे, जिससे कि उनके पूर्वजों के भक्तों के साथ उनका परिचय बना रहे, गृहस्थ भी इससे खुश रहते थे कि हमारे कुलगुरु हमारी सम्हाल लेते हैं, उनके यहाँ कोई भी धार्मिक कार्य प्रतिष्ठा, तीर्थयात्रा, संघ आदि का प्रसंग होता, तब वे अपने कुलगुरुओं को आमन्त्रण करते और धार्मिक विधान उन्हीं के हाथ से करवाते, धीरे-धीरे वे कुलगुरु परिग्रहधारी हए ; वस्त्र, पात्र के अतिरिक्त द्रव्य की भेंट भी स्वीकारने लगे, तबसे कोई गृहस्थ अपने कुलगुरु को न बुलाकर दूसरे गच्छ के आचार्य को बुला लेता और प्रतिष्ठादि कार्य उनसे करवा लेता तो उनका कुलगुरु बना हुआ आचार्य कार्य करने वाले अन्य गच्छीय आचार्य से झगड़ा करता। ___ इस परिस्थिति को रोकने के लिए कुलगुरुओं ने विक्रम की 12वीं शताब्दी से अपने-अपने श्रावकों के लिए अपने पास रखने शुरू किये, किस गाँव में कौनकौन गृहस्थ अपना अथवा अपने पूर्वजों का मानने वाला है उनकी सूचियां बनाकर अपने पास रखने लगे और अमुक-अमुक समय के बाद उन सभी श्रावकों के पास जाकर उनके पूर्वजों की नामावलियाँ सुनाते और उनकी कारकीर्दियों की प्रशंसा करते, तुम्हारे बड़ेरों को हमारे पूर्वज अमुक आचार्य महाराज ने जैन बनाया था, उन्होंने बड़ेरों को हमारे पूर्वज अमुक आचार्य महाराज ने जैन बनाया था, उन्होंने इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /145

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