Book Title: Itihas Ke Aaine Me Navangi Tikakar Abhaydevsuriji Ka Gaccha
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Mission Jainatva Jagaran

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Page 161
________________ संवेगरंगशाला आराधना की श्रेष्ठ रचना की थी, जो (900) नौ सौ वर्षों के पीछे विक्रमसंवत् 2025 में पूर्णरूप से प्रकाश में आई है, परम आनन्द का विषय है। __ बड़ौदा राज्य की प्रेरणा से सुयोग्य विद्वान चीमनलाल डा. दलाल एम.ए. ईस्वी सन् 1916 के अन्तिम चार मास वहीं ठहर कर जेसलमेर किल्ले के प्राचीन ग्रंथ-भंडार का अवलोकन बड़ी मुश्किल से कर सकें। वहाँ की रिपोर्ट कच्ची नोंध व्यवस्थित कर प्रकाशित कराने के पहिले ही वे ईस्वी सन् 1917 अक्टोबर मास में स्वर्गस्थ हुए। ___आज से 50 वर्ष पहिले-ईस्वी सन् 1920 अक्टोबर में बड़ौदा-राजकीय सेन्ट्रल लाइब्रेरी (संस्कृत पुस्तकालय) में ‘जैन पंडित' उपनाम से हमारी नियुक्ति हुई, और विधिवशात् सद्गत ची. डा. दलाल एम. ए. के अकाल स्वर्गवास से अप्रकाशित वह कच्ची नोंध-आधारित 'जेसलमेर दुर्ग-जैन ग्रंथभण्डार-सूचीपत्र' सम्पादित-प्रकाशित कराने का हमारा योग आया। दो वर्षों के बाद ईस्वी सन् 1923 में उस संस्था द्वारा गायकवाड़ ओरियन्टल सिरीज नं. 21 में यह ग्रंथ बहुत परिश्रम से बम्बई नि. सा. द्वारा प्रकाशित हुआ है। बहत ग्रंथ गवेषणा के बाद उसमें प्रस्तावना और विषयवार अप्रसिद्ध ग्रंथ, ग्रंथकृत-परिचय परिशिष्ट आदि संस्कृत भाषा में मैंने तैयार किया था। उसमें जैसलमेर दुर्ग के बड़े भण्डार में नं. 183 में रही हुई उपर्युक्त संवेगरंगशाला (2872X27 साईज) 347 पत्रवाली ताड़पत्रीय पोथी का सूचन है। वहाँ अंतिम उल्लेख इस प्रकार है:____ "इति श्रीजिनचंद्रसूरिकृता तद्विनेय श्रीप्रसन्नचन्द्राचार्यसमभ्यर्थितगुणचन्द्रगणि प्रतिर्यत्कृ(संस्कृ)ता जिनवल्लभगणिना संशोधिता संवेगरंगशाला भिधानाराधना समाप्ता। सं. 1207 वर्षे ज्येष्ठ सुदि 10 गुरौ अद्यह श्रीवटपद्रके दंड. श्रीवोसरि प्रतिपत्तौ संवेगरंगशाला पुस्तकं लिखितमिति।" -स्व. दलाल ने इसकी पीछे की 27 पद्योवाली लिखानेवाले की प्रशस्ति का सूचन किया है, अवकाशाभाव से वहाँ लिखी नहीं थी। __ जे. भां. सूचीपत्र में 'अप्रसिद्ध ग्रंथ-ग्रंथकृत्परिचय' कराने के समय मैंने 'जैनोपदेशग्रंथाः' इस विभाग में पृ. 38-39 में ‘संवेगरंगशाला' के संबंध में अन्वेषण पूर्वक संक्षिप्त परिचय सूचित किया था। उसकी रचना सं. 1125 में हुई थी। लि. प्रति सं. 1207 की थी। रचना का आधार नीचे टिप्पणी में मैने मूलग्रंथ इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /161

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