Book Title: Itihas Ke Aaine Me Navangi Tikakar Abhaydevsuriji Ka Gaccha
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Mission Jainatva Jagaran
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________________ " श किया, उससे भव्यजन, जिन वचन की परम आराधना को प्राप्त करें। छत्रा वल्लिपुरी में जेज्जयके पुत्र पासनाग के भुवन में विक्रमनृप के काल से 1125 वर्ष व्यतीत होने पर स्फुट प्रकट पदार्थवाली यह आराधना सिद्धि को प्राप्त हुई है। इस रचना को, विनय-नय-प्रधान, समस्त गुणों के स्थान, जिनदत्त गणि नामक शिष्य ने प्रथम पुस्तक में लिखी / संमोह को दूर करने के लिए गिनती से निश्चय करके इस ग्रंथ में तिरेपन गाथा से अधिक दस हजार गाथाएँ स्थापित की हैं। __ अन्त में संस्कृत के गद्य में उल्लेख है कि, श्रीजिनचंद्र सूरि कृत, उनके शिष्य प्रसन्नचन्द्राचार्य-समभ्यर्थित, गुणचन्द्र गणि-प्रतिसंस्कृत और जिनवल्लभगणि द्वारा संशोधित संवेगरंगशाला नाम की आराधना समाप्त हुई। ___अन्त में प्रति-पुस्तक लिखने का समय संवत् 1207 (सं. 1203 नहीं) और स्थान वटपद्रक में (अर्थात् इस बडौदा में समझना चाहिये।) प्रकाशित आवृत्ति में दंडश्रीवासरे प्रतिपत्तो छपा है, वहाँ दडश्रीवोसरि-प्रतिपत्तो होना चाहिए, मैंने अन्यत्र दर्शाया है। (देखें, जे.भा. सूचीपत्र- गा. ओ.सि.नं. 21 पृ. 21) वटपद्र (बड़ौदा) का ऐतिहासिक उल्लेखों' हमारा ‘ऐतिहासिक लेख संग्रह' सयाजी साहित्यमाला क्र. 335 वगैरह। ग्रंथ निर्दिष्ट नाम- वर्धमानसूरिजी की संवत् 1055 में रचित उपदेशपद-वृत्ति, जिनेश्वरसूरिजी की जावालिपुर में सं. 1080 में रचित अष्टकप्रकरणवृत्ति, प्रमालक्ष्म आदि, तथा बुद्धिसागरसूरिजी का सं. 1080 मं रचित व्याकरण (पंचग्रन्थी) और अभयदेवसूरिजी की सं. 1120 से 1128 में रचित स्थानांग वगैरह अंगों की वृत्तियों की प्राचीन प्रतियों का निर्देश हमने 'जेसलमेर-भंडारग्रंथसूची' (गा. ओ. सि. नं. 21) में किया है, जिज्ञासुओं को अवलोकन करना चाहिए। ___ पाठकों को स्मरण रहे कि, इस संवेगरंगशाला आराधना रचने वाले श्रीजिनचंद्रसूरिजी के गुरुवर्य श्रीजिनेश्वरसूरिजी ने गुजरात में अणहिलवाड़ पत्तन (पाटण) में दुर्लभराज राजा की सभा में चैत्यवासियों को वाद में परास्त किया था, ‘साधुओं को चैत्य में वास नहीं करना चाहिये, किन्तु गृहस्थों के निर्दोष स्थान (वसति) में वास करना चाहिए' ऐसा स्थापित किया था। उपर्युक्त निर्णय के अनुसार जिनेश्वरसूरिजी के प्रथम शिष्य जिनचंद्रसूरिजी ने इस ग्रंथ की रचना पूर्वोक्त गृहस्थ के भवन में ठहर कर की थी। उपर्युक्त घटना का उल्लेख जिनदत्तसूरिजी के प्रा. गणधरसार्धशतक में, तथा उनके अनेक अनुयायियों से अन्यत्र प्रसिद्ध किया इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /168