Book Title: Itihas Ke Aaine Me Navangi Tikakar Abhaydevsuriji Ka Gaccha
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Mission Jainatva Jagaran

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Page 171
________________ शय्या, (3) संस्तारक, (4) निर्यामक, (5) दर्शन, (6) हानि, (7) प्रत्याख्यान, (8) खामणा-क्षमापना, (9) क्षमा इस तरह नौ द्वारों को विविध दृष्टान्तों से स्पष्ट समझाया है। चोथे (4) समाधि-लाभ नामक स्कन्ध (विभाग) में (1) अनुशास्ति, (2) प्रतिपत्ति, (3) सा(स्मा)रणा, (4) कवच, (5) समता, (6) ध्यान, (7) लेश्या, (8) आराधना-फल और (9) विजहना द्वार में अनेक ज्ञातव्य विषय समझाये गये - इसके (1) अनुशास्ति द्वार में त्याग करने योग्य 18 अठारह पापस्थानको के विषय में, (2) त्याग करने योग्य 8 आठ प्रकार के मदस्थानों के विषय में, (3) त्याग करने योग्य क्रोधादि कषायों के विषय में, (4) त्याग करने योग्य 5 पाँच प्रकार के प्रामद के विषय में, (5) प्रतिबन्ध-त्याग विषय में, (6) सम्यग्त्व - स्थिरता के विषय में, (7) अर्हन् आदि छ: की भक्तिमत्ता के विषय में, (8) पंचनमस्कारतत्परता के विषय में (9) सम्यग् ज्ञानोपयोग के विषय में, (10) पंच महाव्रत विषय में, (11) चतुःशरण-गमन, (12) दुष्कृतगर्दा, (13) सुकृतों की अनुमोदना, (14) अनित्य आदि 12 बारह भावना, (15) शील-पालन, (16) इन्द्रिय-दमन, (17) तप में उद्यम और (18) निःशल्यता-नियाण-निदान, माया, मिथ्यात्व-शल्य-त्याग इस प्रकार 18 द्वारों को अन्वय-व्यतिरेक से विविध दृष्टान्तों द्वारा विवेचन करके अच्छी तरह से समझाया गया है। इसके प्रथम स्कन्ध के परिणाम द्वार में श्रावकों की 11 प्रतिमाओं के अनन्तर साधारण द्रव्य के 10 विनियोग स्थान दर्शाये हैं, विचारने समझने योग्य हैं; अन्य 7 क्षेत्रों में द्रव्यवपन करने का उपदेश है। आज से 29 वर्ष पहले मैंने 1 लेख 'सुशील जैन महिलाओनां संस्मरणो' मुंबई और मांगरोल जैन सभा के सुवर्ण महोत्सव अंक के लिए गुजराती में लिखा था, वह संवत् 1998 में प्रकाशित हुआ था। और सयाजी राव ग्रंथमाला पुष्प 331 में हमारे ऐतिहासिक लेख संग्रह से (क. 10, 331 से 347 में) सं. 2019 में प्राच्यविद्यामंदिर द्वारा महाराजा सयाजीराव युनिवर्सिटी, बड़ौदा से प्रकाशित है। उसमें मैंने इस संवेगरंगशाला में से श्रमणी और श्रावक, श्राविका, स्थानों के लिए द्रव्य-विनियोग वक्तव्य दर्शाया था। साथ में कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य के स्वोपज्ञ विवरण वाले संस्कृत योगशास्त्र से भी परामर्श सूचित किया था। इस संवेगरंगशाला की रचना विक्रमसंवत् 1125 में, और श्रीहेमचन्द्राचार्य का जन्म विक्रमसंवत् 1145 में (बीस वर्ष पीछे) हुआ था, इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /171

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