Book Title: Itihas Ke Aaine Me Navangi Tikakar Abhaydevsuriji Ka Gaccha
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Mission Jainatva Jagaran

View full book text
Previous | Next

Page 63
________________ अथवा समुदाय के लिए प्रचलित नहीं हुआ था। आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि, उनके गुरु-भाई बुद्धिसागर सूरि तथा उनके शिष्य जिनचन्द्रसूरि तथा अभयदेवसूरि आदि की यथोपलब्ध कृतियाँ हमने पढ़ी हैं। किसी ने भी अपनी कृतियों में खरतर शब्द का प्रयोग नहीं किया। श्री जिनदत्त सूरि ने, जो जिनवल्लभ सूरि के पट्टधर माने जाते हैं, अपनी गणधरसार्द्धशतक' नामक कृति में पूर्ववर्ती तथा अपने समीपवर्ती आचार्यों की खुलकर प्रशंसा की है, परन्तु किसी भी आचार्य को खरतर पद प्राप्त होने की सूचना तक नहीं की। जिनदत्त सूरि के 'गणधर सार्द्धशतक' की बृहवृत्ति में, जो विक्रम सं. 1295 में श्री सुमति गणि द्वारा बनाई गई है, उसमें श्री वर्धमान सूरि से लेकर आचार्य श्री जिनदत्तसूरि तक के विस्तृत चरित्र दिए हैं, परन्तु किसी आचार्य को 'खरतर' बिरुद प्राप्त होने की बात नहीं लिखी। सुमति गणिजी ने आचार्य जिनदत्तसूरि के वृत्तान्त में ऐसा जरुर लिखा है कि जिनदत्तसूरि स्वभाव के बहुत कड़क थे, वे हर किसी को कड़ा जवाब दे दिया करते थे। इसलिए लोगों में उनके स्वभाव की टीकाटिप्पणियाँ हुआ करती थी। लोग बहुधा उन्हें 'खरतर' अर्थात् कठोर स्वभाव का होने की शिकायत किया करते थे। परन्तु जिनदत्त जन-समाज की इन बातों पर कुछ भी ध्यान नहीं देते थे। धीरे-धीरे जिनदत्तसूरिजी के लिए 'खरतर' यह शब्द प्रचलित हुआ था, ऐसा सुमतिगणि कृत 'गणधरसार्द्ध-शतक' की टीका पढ़ने वालों की मान्यता है। यद्यपि 'खरतर' शब्द का खास सम्बन्ध जिनदत्तसूरिजी से था, फिर भी इन्होंने स्वयं अपने लिये किसी भी ग्रंथ में 'खरतर' यह विशेषण नहीं लिखा। जिनदत्त सरिजी तो क्या इनके पट्टधर श्री जिनचंद्र, इनके शिष्य श्री जिनपतिसूरि, जिनपति के पट्टधर जिनेश्वरसूरि और जिनेश्वरसूरि के पट्टधर जिनप्रबोधसूरि तक के किसी भी आचार्य ने 'खरतर' शब्द का प्रयोग अपने नाम के साथ नहीं किया। वस्तुस्थिति यह है कि विक्रम की चउदहवीं शती के प्रारंभ से खरतर शब्द का प्रचार होने लगा था। शुरु-शुरु में वे अपने को ‘चन्द्र गच्छीय' कहते थे, फिर इसके साथ 'खरतर' शब्द भी जोड़ने लगे।" इतिहास वेत्ता पं. कल्याणविजयजी के इस लेख को पढ़ने के बाद किसी प्रश्न या जिज्ञासा का अवकाश प्रायः रहता नहीं है, फिर भी अलग अलग दृष्टिकोण से आगे विचार किया जाएगा। (निबन्ध-निचय, पृ. 18 से 27 से साभार) / इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ/063 )

Loading...

Page Navigation
1 ... 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177