Book Title: Itihas Ke Aaine Me Navangi Tikakar Abhaydevsuriji Ka Gaccha
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Mission Jainatva Jagaran
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________________ नवांगवृत्तिकार श्री अभयदेवसूरि-परम्परा 1) अभयदेवसूरि, 2) प्रसन्नचंद्रसूरि, 3) देवभद्रसूरि, 4) देवानन्दसूरि, 5) विबुधप्रभसूरि, 6) देवभद्रसूरि, 7) पद्मप्रभसूरि। __ आचार्य अभयदेवसूरि की परम्परा के आचार्य श्री प्रसन्नचन्द्रसूरिजी और श्री देवभद्रसूरि इन दोनों आचार्यों के विद्यागुरु आचार्य अभयदेवसूरि थे। इन दोनों का यत्किञ्चित प्राप्त उल्लेख पूर्व में ही आचार्य अभयदेव, आचार्य जिनवल्लभ और आचार्य जिनदत्तसूरि चरित्रों में आ चुका है। अवशिष्ट आचार्यों के सम्बन्ध में कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता और पद्मप्रभसूरि के पश्चात् यह परम्परा कहा तक चली, ज्ञात नहीं है। किन्तु आबू इत्यादि से प्राप्त मूर्ति लेखों के आधार पर यह निश्चित है कि साधु परम्परा 15वीं शती के पूर्वार्द्ध तक चलती रही है। (खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास, पृ. 19) __शिलालेखों के आधार से ऐसा कह सकते हैं कि अभयेदवसूरिजी की मूल शिष्य परंपरा (अर्थापत्ति से जिनेश्वरसूरिजी की शिष्य-परंपरा) जिनका 'अभयदेव-सूरि-संतानीय' के रूप में उल्लेख मिलता है, वह प्रायः 15वीं शताब्दी तक ही अस्तित्व में रही होगी। एक बड़ा भ्रम !!! “अन्य गच्छों की पट्टावलिओं में नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का नाम नहीं लिखा है, अतः वे खरतरगच्छीय थे।" * निराकरण * रूद्रपल्लीय गच्छ एवं अभयदेवसूरि संतानीय के उल्लेखों में भी अभयेदवसूरिजी को अपने पूर्वज आचार्य के रूप में बताया है। और ये दोनों गच्छ खरतरगच्छ की शाखा भी नहीं है। (देखें पृ. 119 और 140) अतः उपरोक्त तर्क को आगे करके अभयदेवसूरिजी को खरतरगच्छीय मान लेना एक बड़ा भ्रम है। ( इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /067 )