Book Title: Itihas Ke Aaine Me Navangi Tikakar Abhaydevsuriji Ka Gaccha
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Mission Jainatva Jagaran
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________________ सं. 1167 का अन्तर 28 वर्ष का होता है। खरतरगच्छ के तमाम लेखकों का एकमत्य है कि सं. 1167 में जिनवल्लभ गणि को देवभद्रसूरि ने आचार्य अभयदेवसूरिजी के पट्ट पर प्रतिष्ठित कर उन्हें आचार्य बनाया था। खरतरगच्छ के लगभग सभी लेखकों का कथन है, कि अभयदेवसूरिजी स्वयं जिनवल्लभ को अपना पट्टधर बनाना चाहते थे, परन्तु चैत्यवासि-शिष्य होने के कारण गच्छ इसमें सम्मत नहीं होगा, इस भय से उन्होंने जिनवल्लभ को आचार्य नहीं बनाया, परन्तु अपने शिष्य प्रसन्नचन्द्राचार्य को कह गये थे कि समय पाकर जिनवल्लभ गणि को आचार्य पद प्रदान कर देना। प्रसन्नचन्द्र सूरि को भी अपने जीवन दर्मियान जिनवल्लभ को आचार्य पद देने का अनुकूल समय नहीं मिला और अपने अन्तिम समय में इस कार्य को सफल करने की सूचना देवभद्र सूरि को कर गए थे और संवत् 1167 में आचार्य देवभद्र ने कतिपय साधुओं के साथ चित्तौड़ जाकर जिनवल्लभ गणि को आचार्य पद से विभूषित किया। उपरोक्त वृत्तान्त पर गहराई से सोचने पर अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं। पहला तो यह कि यदि अभयदेव सूरिजी ने जिनवल्लभ गणि को अपना शिष्य बना लिया था और विद्वत्ता आदि विशिष्ट गुणों से युक्त होने के कारण उसे आचार्य बनाना चाहते थे, तो गच्छ को पूछकर उसे आचार्य बना सकते थे। वर्धमान आदि अपने चार शिष्यों को आचार्य बना लिया था और गच्छ का विरोध नहीं हआ, तो जिनवल्लभ के लिये विरोध क्यों होता ? जिनवल्लभ चैत्यवासी शिष्य होने से उसके आचार्य पद का विरोध होने की बात कही जाती है, जो थोथी दलील है, अभयदेवसूरिजी का शिष्य हो जाने के बाद वह चैत्यवासियों का शिष्य कैसे कहलाता, यह समझ में नहीं आता। मान लिया जाय कि जिनवल्लभ को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करने के कार्य में श्री अभयेदव सूरिजी के शिष्य परिवार में दो मत थे, तो चौबीस वर्ष के बाद उन्हें आचार्य कैसे बनाया? क्या उस समय अभयदेवसूरिजी का शिष्यसमुदाय एकमत हो गया था ? अथवा समुदाय में दो भाग पाड़कर आचार्य देवभद्र ने यह कार्य किया था? जहाँ तक हमें इस प्रकरण का अनुभव है उक्त प्रकरण में कुछ और ही रहस्य छिपा हुआ था, जिसे खरतर गच्छ के निकटवर्ती आचार्यों ने प्रकट नहीं किया और पिछले लेखक इस रहस्य को खोलने में असमर्थ रहे हैं। खरतरगच्छ के प्राचीन ग्रंथों के अवगाहन और इतर प्राचीन साहित्य का मनन करने से हमको प्रस्तुत प्रकरण का जो स्पष्ट दर्शन मिला है, उसे पाठक गण के ज्ञानार्थ नीचे उपस्थित करते हैं / इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /059 )