Book Title: Itihas Ke Aaine Me Navangi Tikakar Abhaydevsuriji Ka Gaccha
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Mission Jainatva Jagaran
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________________ उपाध्याय धर्मसागरजी ने जिनवल्लभ गणी कृत 'अष्टसप्ततिका' नामक काव्य के कुछ पद्य ‘प्रवचन परीक्षा' में उद्धृत किए हैं, उनमें से एक पद्य में श्री अभयदेव सूरिजी के चार प्रमुख शिष्यों की प्रशंसा की है और एक पद्य में उन्होंने श्री अभयदेवसूरिजी के पास श्रुत सम्पदा लेकर अपने शास्त्राध्ययन की सूचना की है। इत्यादि बातों से यही सिद्ध होता है कि जिनवल्लभगणि जो कूर्चपुरीय गच्छ के आचार्य जिनेश्वरसूरि के शिष्य थे, वे अपने गुरु की आज्ञा से अपने गुरु भाई जिनशेखर मुनि के साथ आगमों का अध्ययन करने के लिए, पाटन श्री अभयदेवसूरिजी के पास गए थे और उनके पास ज्ञानोपसंपदा ग्रहण करके सूत्रों का अध्ययन किया था। खरतर गच्छ के पट्टावलीलेखक शायद उपसम्पदा का अर्थ ही नहीं समझे, इसलिए कोई उनके पास दीक्षा लेने का लिखते हैं तो कोई ‘आज से हमारी आज्ञा में रहना' ऐसा उपसम्पदा का अर्थ करते हैं, जो वास्तविक नहीं है। उपसम्पदा अनेक प्रकार की होती है - ज्ञानोपसम्पदा, दर्शनोपसम्पदा, चारित्रोप-सम्पदा, मार्गोपसम्पदा आदि। इनमें प्रत्येक उपसम्पदा जघन्य, मध्यम तथा उत्कृष्ट प्रकार से तीन तरह की होती है, ज्ञान तथा दर्शन प्रभावक शास्त्र पढ़ने के लिये ज्ञानोपसम्पदा तथा दर्शनोपसम्पदा दी-ली जाती है, चारित्रोपसम्पदा चारित्र को शुद्ध पालने के भाव से बहुधा ली जाती है और वह प्रायः यावज्जीव रहती है, ज्ञानोपसम्पदा तथा दर्शनोपसम्पदा कम से कम 6 मास की और अधिक-से-अधिक 12 बारह वर्ष की होती थी। मार्गोपसम्पदा लम्बे विहार में मार्ग जानने वाले आचार्य से ली जाती थी और मार्ग का पार करने तक रहती थी। उपसम्पदा स्वीकार करने के बाद उपसम्पन्न साधु को अपने गच्छ के आचार्य तथा उपाध्याय का दिग्बन्ध छोड़कर उपसम्पदा देने वाले गच्छ के आचार्य तथा उपाध्याय का दिग्बन्धन करना होता था और उपसम्पदा के दान उपसम्पन्न श्रमण अपने गच्छ तथा आचार्य उपाध्याय की आज्ञा न पालकर उपसम्पदा प्रदायक गच्छ के आचार्य उपाध्याय की आज्ञा में रहते थे और उन्हीं के गच्छ की सामाचारी का अनुसरण करते थे, इत्वर (सावधिक) उपसम्पदा की अवधि समाप्त होने के उपरान्त उपसम्पन्न व्यक्ति उपसम्पदा देने वाले आचार्य की आज्ञा लेकर अपने मूल गुरु के पास जाता था और उनके दिग्बन्धन में रहता था। श्री जिनवल्लभ गणी ने इसी प्रकार ज्ञानोपसम्पदा लेकर अभयदेव सूरिजी से आगमों की वाचना ली थी और बाद में वे अपने मूल गुरु जिनेश्वरसूरिजी के पास इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /057