Book Title: Itihas Ke Aaine Me Navangi Tikakar Abhaydevsuriji Ka Gaccha
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Mission Jainatva Jagaran
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________________ पं. कल्याणविजयजी का महत्त्वपूर्ण लेख!!! खरतरगच्छ की अनेक पट्टावलियों एवं ऐतिहासिक ग्रंथों के गहन अभ्यास के आधार से प्रसिद्ध इतिहासवेक्ता पं. कल्याणविजयजी म.सा. ने 'निबंध-निचय' तटस्थतापूर्वक जिनवल्लभगणिजी के वृत्तान्त पर विशद प्रकाश में डाला है। अभयदेवसूरिजी और जिनवल्लभगणिजी के बीच क्या संबंध था? इत्यादि बातों के स्पष्टीकरण हेतु उनके लेख के कुछ अंश यहाँ पर दिये जाते हैं। देखिये: "खरतरगच्छ के पट्टावलीलेखक जिनवल्लभगणि के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की एक दूसरी से विरुद्ध बातें लिखते हैं। कोई कहते हैं-वे अपने मूल गुरु को मिलकर वापस पाटन आए, और श्री अभयदेव सूरिजी से उपसम्पदा लेकर उनके शिष्य बने। तब कोई लिखते हैं कि वे प्रथम से ही चैत्यवास से निर्विण्ण थे और अभयदेवसूरिजी के पास आकर उनके शिष्य बने और आगम सिद्धान्त का अध्ययन किया। खरतरगच्छीय लेखकों का एक ही लक्ष्य है कि जिनवल्लभ को श्री अभयदेवसूरि का पट्टधर बनाकर अपने सम्प्रदाय का सम्बन्ध श्री अभयदेवसूरि से जोड़ देना। कुछ भी हो, परन्तु श्री जिनवल्लभगणि के कथनानुसार वे अन्त तक कूर्चपुरीय आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि के ही शिष्य बने रहे हैं, ऐसा इनके खुद के उल्लेखों से प्रमाणित होता है। विक्रम सं. 1138 में लिखे हुए कोट्याचार्य की टीका वाले विशेषावश्यक भाष्य की पोथी के अन्त में जिनवल्लभगणि स्वयं लिखते हैं यह (1) पुस्तक प्रसिद्ध श्री जिनेश्वरसूरि के शिष्य जिनवल्लभ गणी की है। इसी प्रकार जिनवल्लभ गणी प्रश्नोत्तरशतक नामक अपनी कृति में लिखते हैं कि 'जिनेश्वराचार्यजी मेरे गुरु हैं, यह प्रश्नोत्तरशतक काव्य जिनवल्लभ गणि ने श्री अभयदेवसूरिजी के पास से वापस जाने के बाद बनाया था, ऐसा उसी कृति से जाना जाता है, क्योंकि उसी काव्य में एक भिन्न पद्य में श्री अभयदेव सूरिजी की भी प्रशंसा की है। जिनवल्लभगणि के 'रामदेव' नामक एक विद्वान् शिष्य थे, जिन्होंने वि.सं. 1173 में जिनवल्लभ सूरि कृत ‘षडशीति-प्रकरण' की चूर्णि बनाई है, जिसमें उन्होंने लिखा है कि जिनवल्लभ गणिजी ने अपने तमाम चित्र काव्य सं. 1169 में चित्रकूट के श्री महावीर मन्दिर में शिलाओं पर खुदवाए थे और मन्दिर के द्वार की दोनों तरफ उन्होंने धर्म-शिक्षा और संघपट्टक शिलाओं पर खुदवाए थे, ऐसा पं. हीरालाल हंसराज कृत 'जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास' नामक पुस्तक के 38 वें तथा 39 वें पृ. में लिखा है। / इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /056 )