Book Title: Itihas Ke Aaine Me Navangi Tikakar Abhaydevsuriji Ka Gaccha
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Mission Jainatva Jagaran
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________________ 2. “प्रश्नोत्तरैकषष्ठिशतक' में जिनवल्लभगणिजी स्वयं लिखते हैं कि ब्रूहि श्रीजिनवल्लभस्तुतिपदं कीदृग्विद्याः के सताम्।।159॥ अवचूरिः - मद्गुरवो-ऽजिने-ऽश्व-रस-ऊ-रयः। मद्गुरवो जिनेश्वरसूरयः। (जिनवल्लभगणिजी कृत- प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतक) इसमें जिनवल्लभगणिजी ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि मेरे गुरु जिनेश्वरसूरिजी हैं। और आगे “के वा सद्गुरवो' के जवाब में अभयदेवसूरिजी को सद्गुरु के रूप में बताया है। अर्थात् मेरे गुरु तो चैत्यवासी ऐसे जिनेश्वरसूरिजी हैं जबकि सद्गुरु तो सुविहित ऐसे अभयदेवसूरिजी हैं, यानि के वे मेरे गुरु नहीं हैं, परंतु विद्या दाता एवं सुविहित होने से सद्गुरु हैं। बृहद्गच्छीय धनेश्वरसूरिजी ने सूक्ष्मार्थ-विचार-सारोद्धार (सार्द्धशतक) प्रकरण की टीका में जिनवल्लभगणिजी को अभयदेवसूरिजी के शिष्य के रूप में बताया है, वह विद्या-शिष्यत्व की अपेक्षा से समझना चाहिये। यानि, जिनवल्लभगणिजी ने अभयदेवसूरिजी के पास से श्रुत प्राप्त किया था, उतना ही उसका अर्थ समझना चाहिये। एवं अन्य परवर्ती आचार्यों के विविध ग्रंथों में जिनवल्लभगणिजी के अभयदेवसूरिजी के शिष्य होने के जो उल्लेख मिलते हैं, वे कर्ण-परंपरा एवं तत्काल प्रचलित लोकरूढ़ि के आधार से किये गये थे। अतः विशेष प्रमाणरूप नहीं बनते हैं। क्योंकि स्वयं जिनवल्लभगणिजी ने “मद्गुरवो जिनेश्वरसूरयः' के द्वारा जिनेश्वरसूरिजी को अपने गुरु के रूप में बताया है। ____ 3. तथा सबसे प्रबल प्रमाण तो जिनवल्लभगणिजीकृत अष्टसप्ततिका जो अभयदेवसूरिजी के देवलोक होने के 25-30 साल बाद वि. सं. 1164 में लिखी गयी थी। उसमेंलोकार्यकूर्चपुरगच्छ महाघनोत्थ-मुक्ताफलोज्ज्वलजिनेश्वरसूरिशिष्यः। प्राप्तः प्रथां भुवि गणिर्जिनवल्लभोऽत्र, तस्योपसम्पदमवाप्य ततःश्रुतञ्च॥52॥ इस श्लोक से जिनवल्लभगणिजी ने स्वयं को कर्चपरीय जिनेश्वरसरिजी के शिष्य के रूप में ही बताया है एवं कहा है कि उन्होंने अभयदेवसूरिजी की उपसम्पदा लेकर श्रुत प्राप्त किया था। जिनवल्लभगणिजी ने अभयदेवसूरिजी की ज्ञानोपसम्पदा ही ली थी। अर्थात् केवल अध्ययन हेतु उनके पास रहे थे, उनके इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /054