Book Title: Itihas Ke Aaine Me Navangi Tikakar Abhaydevsuriji Ka Gaccha
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Mission Jainatva Jagaran

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Page 22
________________ 12वीं शताब्दी के प्रक्षिप्त पाठ एवं जाली लेख!!! इस प्रकार हमने देखा कि 1. जिनेश्वरसूरिजी से लेकर 200 साल तक के किसी भी ग्रंथ में खरतर बिरुद प्राप्ति का उल्लेख नहीं मिलता है। 2. इतना ही नहीं रुद्रपल्लीय गच्छ के किसी भी ग्रन्थ में जिनेश्वरसूरिजी को खरतर बिरुद मिलने का उल्लेख नहीं किया है। ___3. केवल जिनदत्तसूरिजी की शिष्य-परंपरा के अर्वाचीन ग्रंथों में ही खरतर बिरुद की बात मिलती है। अतः 'जिनेश्वरसूरिजी को खरतर बिरुद मिला था', यह बात शंकास्पद बन जाती है। अन्य गच्छों के प्राचीन ‘शताब्दी' आदि आदि ग्रंथों में सं. 1204 से खरतरगच्छ की उत्पत्ति के उल्लेख से यह शंका और पुष्ट हो जाती है, क्योंकि 12वीं शताब्दी तक के किसी भी ग्रंथ में खरतर बिरुद प्राप्ति का उल्लेख नहीं मिलता है। ___हाँ ! खरतरगच्छ के अनुयायियों के द्वारा जिनेश्वरसूरिजी को 'खरतर' बिरुद मिलने के प्राचीन प्रमाण के रूप में गुणचन्द्रगणिजी रचित “महावीर चरियं' (सं. 1139) की प्रशस्ति का यह श्लोक दिया जाता है 'गुरुसाराओ धवलाओ', 'सुविहिआ' खरयसाहुसंतई जाया। हिमवंताओ गंगव्व निग्गया सयलजणपुज्जा। -समयसुंदरगणिजी कृत सामाचारी शतक, पृ. 19, निर्णयसागर प्रेस, मुंबई परन्तु, इस श्लोक में 'खरय' यह पाठ उचित नहीं लगता है, क्योंकि हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञान भंडार, (वाडी पार्श्वनाथ भंडार) पाटण की प्राचीन हस्तप्रत (डा. 182 नं, 7030) में केवल ‘सुविहिया साहुसंतई'.... ऐसा ही पाठ है। ___ वास्तव में सुविहिया यह भी पाठांतर ही है, क्योंकि अतिप्राचीन ताड़पत्रीय ग्रंथ में 'निम्मल साहुसंतई' ही लिखा है। ( हेमचंद्राचार्य जैन ज्ञान भंडार, संघनो भंडार, पाटण, डा. 44 पो. 44) उसकी प्रतिकृति यहाँ पर दी जा रही है। हदारणायकाशामाहमहाकसरिलिासालयमचानापानल' मिसंपानसिवासमिापर्वविधाहरनरहरिदसौदाढवेदाणाधमासंग लकालतमयसरशारयासिसद्रिसमसमतागादीवावमापीimu ववलावनम्मलसाहुमतलालम्साहिमवताउगाचनियासय बनविहटाकरावाहयासजमेणवत्तविाससमयपरेसमयमति इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /022 )

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