Book Title: Itihas Ke Aaine Me Navangi Tikakar Abhaydevsuriji Ka Gaccha
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Mission Jainatva Jagaran
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________________ सूराचार्य द्रोणाचार्यजी के प्रमुख शिष्य थे अतः यह प्रशंसा मुख्यतया उनको लेकर की गयी थी। तथा स्वयं द्रोणाचार्यजी ने ओघनियुक्ति की टीका में चैत्यवासियों का खण्डन करके उद्यत विहार की प्ररूपणा की है, अतः उनकी मौजुदगी तक तो सूराचार्य का वरिष्ठ आचार्य होने एवं चैत्यवास के पक्ष में बैठकर वाद के लिए उपस्थित होने का प्रश्न ही नहीं उठता है। इतिहास प्रेमी इस पर चिंतन करें। जिनविजयजी के अभिप्राय की समीक्षा ___ इस प्रकार प्रभावक चरित्र एवं अभयदेवसूरिजी की टीका की प्रशस्ति तथा द्रोणाचार्यजी की ओघंनियुकि टीका के अनुसार जब जिनेश्वरसूरिजी और सूराचार्य का वाद ही संभवित नहीं होता है, तब से "बृहद्वत्ति, गुर्वावली आदि के आधार से जिनेश्वरसूरिजी का सूराचार्य से वाद हुआ होने पर भी प्रभावक चरित्र में सूराचार्य के चरित्र वर्णन में उनके मानभंग के भय से वाद का वर्णन नहीं किया गया", इस प्रकार का जिनविजयजी का ओसवाल वंश पृ. 33-34 पर जो अभिप्राय दिया गया है और जिसका उद्धरण ‘खरतरगच्छ का उद्भव' पृ. 33-34 पर किया गया है, वह भी निरस्त हो जाता है। दुसरी बात- जिनविजयी ने अनाभोग के कारण ऐसा अभिप्राय दिया होगा ऐसा लगता है, क्योंकि स्वयं ने ही बृहद्वृत्ति, गुर्वावली से ज्यादा प्रभावक चरित्र को प्रमाणिक माना है तथा बृहद्वृत्ति तथा गुर्वावली के वर्णन को अतिशयोक्ति माना है। (देखें पीछे पृ. 34) ( इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /038 )