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ज्ञानानन्दरत्नाकर । जी वहाल करके । जो शरण पाया सो तुम बचाया पाठी कर्म को पामान करके ॥ अब जनको तारो ससारोदधि से पाठो कर्मको जघाल करके । व. नगो सेवक हे नाथ अपना मो रक्षा कीजे सम्हाल करके ॥ ३ ॥ तुम तो कर्म द्रुम समूल नाशे शुक्ल ध्यानदों मजाल करके । युक्ति में राजत होके अ. वाधित सो पद में याचन सवाल करके । दुःखी जगत्नन पडे कर्म बन जलें अग्नि अघकी झाल करके । थारे बचन धन हैं ताप नाशन पो जगत् को खुश हाल करके ॥ राखो शरण निज हे विश्व ईश्वर नाथूगम को वहाल करके । बनाओ सेवक हे नाथ अपना मोरक्षा कीजे सम्हाल करके ॥ ४ ॥
* परमदिगम्बर मुद्राकी प्रशंसा ११ *
परम दिगम्बर बीतराग जिन मुद्राम्हारी आखों में । वसी निरन्तर अनूपम भानदकारी आखों मे ।। देक ॥ जा दर्शत वर्षत सम्यक रस शिव सुखकारी भाखों में | विषय भोगकी बाप्सना रही न प्यारी आखों में ॥ जग असार पहिचान प्रीति निज रूपसे धारी श्राखों में । तृष्णा नागिन जाष्टि संतोष से मारी आखों में ॥ सब विकल्प मिटगये लखत निनछवि बलिहारी पाखों में। वसी निरन्तर अनूपम अानंदकारी आखों में ॥ १ ॥ राग द्वेष संशय विमोह विभ्रम थे भारी आखोंमें । देखत्त प्रभुको लेश ना रहा उजारी आखों में।कुयश कलंक रहा ना छवि लख अचरजकारी आखों में । यह प्रभु महिमा कहां यह शक्ति विचारी आखों में ॥ सहस्र नयन इरि लखत चाल छवि जिनवर थारी आखों में । वसी निरन्तर अनूपम जानंदकारी आखों में ॥ २ ॥ मंगल रूप बाल क्रीडा तुमलख महतारी आखों में | आनन्द धारे यथा लख रत्न भि. खारी आखों में ।। देव करें नित सेव शक्रसे भाज्ञाकारी पाखों में | उजर न मिनके * हाज़िर हरशरी श्राखों में । नित करत गति भरत रिझावत दे दे वारी आखों में । वसी निरन्तर अनूपम अानंदकारी आखों में ॥ ३ ॥ केवल , ज्ञानभये यह दुनियां झलकत सारी आखों में | पलक न लागे न भावे नींद तुम्हारी आखों में ।। द्वादश सभा प्रफुल्लित छवि लख सर नर नारी आखों में । किंचित कोई दृष्टि ना पड़े दुःखारी आंखों में।। नाथूराम जिन भेक्त दरश लख