Book Title: Gyanand Ratnakar
Author(s): Nathuram Munshi
Publisher: Lala Bhagvandas Jain

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Page 83
________________ ज्ञानानन्दरत्नाकर। "फिर ऐसा समय नापैहै, अवसर चूके पछितहै । इसवक्त जो गाफिलरहै तो बहुतेरे दुःख सहै ॥ ये सुरनर नर्कतिर्यंच चारगति लखचौरासी योन। भूना अनन्त काल रही धरने से वाकी कौन ॥ क्योंजी । नाम अनेक धराय मूढ़ बहु वसाकष्टके भौन । अबभी चेतनहीं तुझको जो धाररहा है मौनजी ॥ दोहा। नर भव उत्तम क्षेत्र अरु मिला उच्च कुल आय । जो अब कार्य नाकर तो पाछे पछताय ।। फिर पछताये क्या होता, क्यों जन्म अकाथै खोता ॥२॥ तू शानदृष्टि विन अंधे करता अवि खोटे धंधे। जिस गुण में जीव जगवंधे सोही डालतू निज कन्धे ॥ छड़॥ ये तात मात सुत भात मित्र त्रिय आदि कुटुंबीलोग, हैं स्वार्थ के सगे सर्व इनका अनिष्ट संयोग ।। क्योंजी । मेरे साथ ना जाय कोई भोगें निज निज मुख भोग, स्वार्थ के खातिर पछतावे किंचित कर कर सोग जी ॥ दोहा। सहै नर्क दुःख जीव निज कोई न करे सहाय | ____ यामे अब जिय चेततू कर निज कार्य उपाय ।। ___ स्नेह जगत का थोता, क्यों जन्म अकार्य खोता ॥३॥ तूने देव कुदेव न जाना, कुगुरुनही को गुरु माना, तिनही के फन्द ठगाना शिवपुर मार्ग विसराना ।। ये बहु विकथा वकवाद सुनी नित काम क्रोध की खान, ,

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