Book Title: Gyanand Ratnakar
Author(s): Nathuram Munshi
Publisher: Lala Bhagvandas Jain

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Page 92
________________ ज्ञानानन्दरन्नाकर। नेम विवाह ६९॥ यदुपती सती शुभ राजमती विग त्यागी नहराज जाय तप गिरि पर धाराजी । महि ज्ञानचक्क कर वकू मोह भर क्षण में माराजी | टेक ॥ पन अतुल देख जिनवर का कृष्ण शकाने, महराज राज का लालच भारीजी, ताके वश होके कृष्ण कुटिलता मन में धारी जी, करो नेमांश्वर का व्याई कही हरि साने, महराज उग्रसेन की दुलारी जी, यांची नेमीश्वर काज मु. शीला रजमति प्यारी जी, सनके बरात जूनागढ को हरि आये, मार्ग में हरि ने वनपशु वहुत घिराये, महराज लखे दृग नेम कुमारानी । गहि ज्ञान पर वक मोह भट पाण में माराजी ॥ १ ॥ धेरा में पशु अति आरति युत विल. लाव, महराज अधिक दीनता दिखा जी, लख के दयालु नमीश्वर को दग नौर वहावे जी, प्रभु कही रक्षकों से क्यों पशु घिरवाय, महराज कही उन य दुपति आजी, व्याहन को तिन संग नीच नृपति सो इनको खाजी, मन श्रवण नेम प्रभु धिक् २ पचन उचारे, सब विषय भोग विप मिश्रत प्रसन विचारे, महराज मुकुट अचला पर डाराजी । गहि ज्ञान चक कर बक मोर भट क्षण में माराजी ॥ २ ॥ कूम से बारह भावना प्रभू ने भाई, महराज तुरत लौकांतक आये जी, नति कर नियोग निज साथि फेर निज पुरको धायेजी. तब मुरपति सुरयुत आय महोत्सव कीना, महराज प्रभू शिरका बैठामे जी, फिर सहसाम वन माहि प्रभू को सुरपति ल्याये जी, तहां भूपण वशन उतार तुंच कच कीने, सिद्धन को नमि प्रभु पंच महाबूत लीने, महराज किया दुदर तप भाराजी । गहि ज्ञान चकू कर बक मोह भट क्षण में मारानी ॥ ३ ॥ अव राजमती ने सुनी लई प्रभु दित्ता, महराज उदासी मनपर बायीजी । धिक जान त्रिया पर्याय लेन व्रत गिरि को धाईजी, जवमात पिताने सुनी अधिक दुःख पाया, महराज बहुत राजुल समझाईजी । जबदेखी परमउदास उदासी सबको बाईजी , राजुल ने दितालई जाय जिनवर पर मृदुकेश उपाड़े नारि आप कोमल कर, महराज किया दुद्धर तपभारानी । गहि ज्ञान चक्रकर वक्र मोहभट क्षण में माराजी ॥ ४ ॥ कृशकर के काय कपाय अमर षद, पाया,

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