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॥ज्ञानानन्दरत्नाकर। जैनमत सम्बन्धी लावनी छन्दों का खजाना
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जिसको समुन्शी नाथूराम लमेचू ने
दोनों भागोंकी लावनी एकत्रकर
कुछ नवीन बनाकर सम्पूर्ण को ___ इस पुस्तक में संग्रहकर
बम्बई टेप में लाला भगवानदास जैन के
जैनप्रेस लखनऊ में शुद्धता पूर्वक मुद्रित कराया
सन् १६०२ ई०
प्रथमवार १००० मूल्ये) MNS ग्रंथकर्ता के सिवाय कोई छपानेका अधिकारी नहीं है
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॥ श्रनमः सिद्धं ॥
|| ज्ञानानन्दरत्नाकर प्रारम्भः ॥
॥ शाखी ॥
परम पावन पथ नशावनद्द प्रभुका नाप जी । जो जपे ध्यावेवेद गावें ल शिव सुख धागजी || है सुक्ख दाता जगति त्राता हरै क्रोधरू कापजी । भन नाम बारम्बार सो जिन भक्त नाथूरामजी ॥
दौड़
प्रभु जपो नाम निशिदिन | मुक्तिनहीं होती है इस विन || जपामन वचन नाम जिनजिन पर पाया है तिनतिन || पापतज नाथूराम जिनभक्त | नाम जपने में रहो थानकजी ॥
को नाम सनाथ जाननिज युगलचरण का दासप्रभू । दीने मुक्ति रसाल काट विविज्ञान रखो निजपाम प्रभू || टेक || प्रथम नमों यादीश्वर को हुए यदि तीर्थ कतीर प्रभू । आदि जिनेश्वर आदीश्वर जी शिवरमणी भशीर प्रभु || अजितनाथजीने अजीतवसु दुष्टकर्म किए क्षारम्भु । तारण तरणजहाज नाथ किए भक्त भवोदधि पारम्भु || संभव नाथ गायगुण प्रगटे संभ्रम मैटतहार | ज्ञानभानु अज्ञान विपर हर तीन जगत में सारमभू || ।। चौपाई ॥
अभिनन्दन अभिमान त्रिदारो | मार्दवगुण सुहृदय विस्तारो || ज्ञान चक्र प्रभूजव करधारो | मोह मल्लरिपु क्षणमे मारो ॥ ॥ दोहा ॥
सुगति नाथ मधुमति पति, करो कुपति ममनाश। सुप्रति देहुनिज दास हो, अनुभव भानु प्रकाश || पद्ममभः के पद्मचरण हिरदे में करो ममवास प्रभु | दोर्जे करमाल काट विधिमाल रखो निजपास प्रभू ||१|| नाथ सुपार्श्व निजपारस
जन्म बनारस लीनाजी | सम्मोदागिरिवर वैध्यानधर वसुरिको क्षयकांना
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। जी | चन्द्रप्रभा के चरणकमलकी कान्तिदेख शविहीनानी||महासेन के लाल नवाऊ मालपरम सुखदीनाजी ।।पुष्पदन्त महराज रखोगमलाज समरकरोसीणा जी। शीलशिरोमणि देवकरे तुमसेव सुफनमम जीनाजी ।।
॥चौपाई॥ , शीतलनाथ शीलसुख धामा। सिद्धि करो मनोवांछिन कागा ।। श्रेयांश श्रीपति गुण प्रामा | नोनाम थारा यमुयामा ||
॥दोहा॥ वासपच्य के पूज्यपद वप्तो हृदय ममत्रान ! विमलनाथ कळमलहरो करो घिमन कल्याण ॥ अनन्तनाय दीज अनन्त मुख यहपुजनो ममश्राश प्रभू । दीजै मुक्तिरसाल काट विविजाल रखो निजपास प्रभू ॥ २ ॥ धर्मनाय प्रभुधर्म धुरंधर धर्मवीर्थ करिमभू । प्रगटे धर्म जहाजनाथ किएभक्त भवोदधि पारम्भ।। शातिनाथ प्रभुशांति गुणोनिधि कापक्रोध किएतार प्रभू । दयासिन्यु त्रिभुवन के नायक दुःखदरिद्र हरिप्रभू ॥ कुंथुनाथ क्यूगजसम जीवों के रक्षण हारम अधमोद्धारक मबोदवि तारक देनहार सुखप्सार प्रभू ॥
॥चौपाई॥ अरहनाथ अरकाने चरि । जिनके वचन सुधारस मूरि॥ मल्लिनाथ मल्लन में भूरि । काममल्ल इनिकीना दरि ।।
॥दोहा॥ मुनि सुत्रताजनराज जी, प्रभुश्रनाथके नाय||कार्यसिद्धिपम कीजिए,नमोजोड़ युगहाथ ।। नमि प्रभु दीनदयालु पिटादो भव अरण्य का रासप्रभू । दीजै मुक्ति रसाल काट विधिनाल रखो निजपास प्रभू ।। ३॥ समुद्र विजय सुतनेम मुखो युतराजमती के कन्तप्रभू । यदुकुन तिलकशरण अशरण को देन हार सुखसंत प्रभू ।। पारस नाथ वालब्रह्मचारी तपधारी सुमहन्त प्रभु । नागनागनी जात बचाये दे निमपत्र तुरन्त प्रभू । महावीर महथीर महारिपु का का किया अन्त भभू । पावा पुरसे मुक्ति पधारे हो अन्तम अन्ति प्रभू ॥
॥चौपाई॥ नीनकाल के जिन चौरीम । त्रिविधि शुद्ध ध्याऊ जगदीश ।
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। कार्य सिद्धि कीजैम ईश । युगल परण में नाऊं शीश ॥
॥दोहा॥ हाथजोड़ विनती करों नाथ गरीब निवान । लाज, रहेजो दासकी कीजै नही इलाज || नाथुराम की अर्ज यही करदो वसुअरिका नाशप्रभू । दाजै मुक्तिरसाल काट विधिजाल रखो निजपास प्रभू ।। ४ ।।
॥जिनप्रतिमा स्तुति ॥
Rokaarध्यानारूढ़ वाचगगी छवि परम दिगम्बर श्रीजिनेश। महापवित्र मूर्तिश्रीजिन की त्रिभुवन पनि पूनते होश ।। टेक ।। जैसे रागकामी को बढ़ाये हावगाव युन त्रियका चित्र { भय घिण सपने देखत मूर्ति सिंह मलेच्छ यहाअपवित्र ॥ तैसे भाव काय बढ़ावे परम दिगम्बर मूर्ति विचित्र । क्षमाशील सतोप होय हड़ देखत श्रीजिन मुनि पवित्र ॥ त्या कृत्रिम मूर्ति पूज्य सब नहीं परिगृह जिनके लेश । महा पवित्रमूर्ति श्रीजिनकी त्रिभुवन पनि पूनो इमेश ।। १ ।। चतुर्निकाय देवना खगपति जिन मूर्तिको करें प्रणाम ! मनच काय भाव श्रद्धायुत वन्दत प्रभुचवि आजिन धाम ॥ ऐमी मूर्ति पूज्य श्रीजिन की यहा पुरुषवन्दे वसुयाम तिसकी को शठ निन्दा करते अपराधी तिनका मुइ श्याम ॥ जिनवर तुल्य मूर्ति श्रीनिन की यही पुराणों में आदेश। महा पवित्र मूर्ति श्रीजिनकी त्रिभुवन पनि पूजते हमेश ॥ २॥ अथग कालकी यह विचित्र गति बढ़े दुष्ट पापी स्थूल । मिथ्या ग्रन्थ धनाय पापमय धर्म ग्रंथों का कारत मूल ॥ नैनी हो जिनवचन न माने हैं मुम्बार उनके में धून निन मूर्तिकी निन्दा करते आम्रकार्य बोधते वंचून ।। गहा नर्क की सौ वेदना परभत्र में ऐसे मूढेश ! महा पवित्र मूर्ति श्रीजिनकी त्रिभुवन पति पूजते हमेश ।। ३ ।। है प्रत्यक्ष मूर्ति जड़ सवही किन्तु पूज्य जिन का प्राकार । राग द्वैप परिगृह ना जिनके स॥ शील लनण युन सार ।। वस्त्र शस्त्र प्राभरण विलेपन कौतूहल नाना शृगार ! काम क्रोध लक्षण युत मूर्ति सो अवश्य पूजना असार । नाथूराम को जडतो शानभी किन्तु पूज्य निनरचन विशेष । महर पवित्र पूर्ति श्री जिनकी निभुवन पति पूनते हमेश ।। ४ ।।
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जानानन्दरत्नाकर। ॥ कलयुगकी ३॥
कलयुगका कगेंव्यान-वक्त जबसे कलियुग का आयाहै । हुमा दुःखी संसार पापसे पाप जगत में छाया ।। टेक ।। धरायोग तजभोग भई छवि परमहन्स मति स्वयमेव । वीतगग जिन देव दिगम्बर तिन्हें कहै शठनंगा देव ॥ श्रापलिंग शंकर का उमाकी पूजें भगनर त्रियकर सेव । तिन्हें न नंगा कहैं महा निर्लज्ज दुष्टों की देस्रो टेव ।। शिवभक्तों के उरमें उमाकी भग शिव लिग समाया है । हुआ दुःखी संसार पापसे पाप जगत में छायाहै ॥ १ ॥ वीतराग है नग्न मगर मस्तक पद तिनके पूजे परम । महादेव का लिग पूजें जो नाम लिए पानी शरम || बड़े सोच की वात दुष्ट शठाप तो ये वदकरें करम | वीतराग की निन्दा करते जो जगमें उत्कृष्ट धरम | भई प्रगटमति भ्रष्ट जिन ने स्निनसे लिंग पुजाया है हुभा दुःखी ससार पापसे पाप जगत में छाया है ॥ २ ॥ देख तिलोत्तमारूप वदन ब्रह्मा ने काम वश कीने पांच । घर नितम्ब शिरडाय शंभुने किया गबर के
आगे नाच ॥ धेरै नारिकारूप कृष्ण जी फिरे मुव्रजमे खोलें कांच । तज पोती लिया पंध घाघरा लिखा भागवत में लो वांच | महा कामके धाम तीनों ऐसा पुराणों में गागाह । हुआ दुखी संमार पापसे पाप जगतमें वायाहे ॥ ३॥ लोम पाप का बाप जिसने ब्राह्मण के घर कीना है बास | मिथ्या अथ बनाय धर्म शास्त्रों काकर दीना है नाश ॥ भक्ति ज्ञान वैराग की तज कामी जो मतिही. नाहै खास । कहैं भक्ति मोगों में विषय पोषण को नाम लीना है तास ॥ ई. श्वर का लेनाम भोगकर पुष्ट करें निज काया है । हुआ दुःखी संसार पापसे पाप जगतमें छायाहै।४॥ब्रह्मा विष्णु महेश तीनोंये काम क्रोध मायाले धाम चीत राग वीनों से वर्जित शुद्ध सार्थक जिनका नाम { पक्षपात तज कहो धर्म से इनमें कौन पूजन के काम । वीतराग या हरि हर ब्रह्मा कहै सभा में नाथूराम । दुष्टों का अभिमान हरण को यह शुभ छद बनायाहै । हुआ दुखी ससार पाप से पाप जगत में छाया है ॥ ५ ॥
* श्रीगुरु प्रशंसा कर्म रेख पर मेख मार के हाथ लिये तदवीर फिरें । पर स्वारथ के कान श्रीमुनिराज बने बन वीर फिरें । टेक ! अन्तर्वाहर त्याग परिग्रह निर्मद नान
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ज्ञानानन्दनत्नाकर शी फिर गहुको जीत चानवर निर्विकार निर ची फिकीन
दर २५ नप ने एकाकी लज भीर फिर निरालंय लिय हरि सग निवान गरि बन धीर फिर । तारण तरण हरण अघ जन के श्री गुरु गुण गम्भी कि । पर वायके कान भी पुनि राज वन वन पीर फि । १ । ग्रोवर शिया तप तप ते प्यास सदन विन नीर फिरें । वर्षा तरुनल रहन मन सादिक सी नग पीर फिर । शीत काल में नियमात मा सरिता
ती फि । विशन निन मदत परीपद स्वप्नना दिलगीर फिरें। महम मन गुण पातन दाप रहित हग शीर फिरें । पर रबराय के काज सी युनियन ने वन वीर फिरें ॥ २॥ कर्य महारिपु नियर जग तिन दश जान प्रधीर फिर । तड़फड़ाय पर छूटननाही बन्धे गोहनी फिरें ।
नाशन गनिए ज्ञान धननार फिर । ध्यानखंग से माशतभरि मग महनगीर फिर । जाति जापनिज मेन रक्षा करुणा सिंधु गहीर गि पर खामकाज श्री मनिराज बने बनवीर फिरें ॥३॥ संसारी जिय गग शमय गिनन नकदीर फिर । परशुरु कर्म करे सरक्षण २ ज्यों घन
मानमार फिरें। इप शाम नमनाम जगन का निधन पाय समीर फिरें। निपय भाग कागजी बना पने जगति के पार फिरें । नाथूराम जिनभक्त करत या भवसागर के नार फिर । पर स्वार्थ के कान श्रीमुनिराज बने वन बार फि॥४॥
॥ जुना निषेध को ५॥
मय अपगुण का मून जुमा यह अधम जनों को ज्याग है । सज्जन श्रवण सुजन घिण करने बाल गणने अखत्यारा | टेक || सतसंगति विश्वासधर्म धन राम्प शुद्धता सुखकी आस । चण्ठा गुपति प्रतिष्ठा गौरव नीति मीति को करता नाश । बन्धन छलकपट क्रोध भ्रम खेद शोक दुर्मति का धाम । कलह विवाद विरोध शत्रुता होय जुएसे पंदा खास ॥ जपतप संयम शील धर्म सरुकाटन पच कुटाग है। मजन श्रवण सुनत्त घिण करते खन गणने सम्वत्यारा है १॥ दाय एमें जीत पायधन संतका जाचे वेश्याघर । पियें प्रेपयश शराव खावे मांस छिपा लोगों की नजर ॥ हारे तो चोरी करते पड़ते है कैद ज्वारी अ. कसर । मारे लोभ वश बच्ची को तिनका उतार लेते जेवर ॥ जो वेश्या ना
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ज्ञानानन्दनत्नाकर। मिले रमें परनारि जाय तह मारा है। सज्जन श्रवण सुनत घिण करत खल मणने अखत्यारा है ॥ २ ॥ लखपती का बेटा भी जुएमें हारा चोरी करता है। प्रथम चुरावे घरका धन ना मिले तो परका हरताहै । वस्त्राभरण लगाई और बच्चों को दाव पर धरता है । कुन चन कष्ट यहां सहके मरके दुर्गति में परता है ॥ खेलनकी क्या बात तमाशा भी इसका नाकारा है। सज्जन श्रवण सुनत घिण करते खलगणने अखत्यारा॥३॥राजानल अरु भूष युधिष्ठिर राज पाट गृह हारेसव । वस्त्राभरण रहित भटके वन बनमें मारे मारे सब ।। राजों की यह दशाभई तो फिर क्या रंक विचारे सब ॥ बुद्धिमान लखके हितकारी मानों वचन हमारे सब । मन मतंग वशकरो तमो यह जुधा महा अघ भारा है ॥ स. ज्जन श्रवण सुनत घिण करते खल गणने अखत्यारा है ॥४॥ होयदिवाली खुलें दिवाले बहुतों के यह खेळ जुश्रा । कोई तास सुरही चौपड़ कोई खेले नक्की और दुआ ॥ बुद्धिमान लड्डू पड़े खाजे ताजे अरु माल पमा । खांय मनाचे ग्खुशी दिवाली का उनके त्योहार हुआ ।। नाथूराम नर पशु विवेक विन जिन यह जुआ पसारा हैं । सज्जन अवण सुनत घिण करते खल गण ने अखत्यारा ॥ ५॥
शाखी* कलिकाल में पाखंड वाढा साधु बहु कामी भये । सुर शासकी तनाश शठ दुर्गति के पयगामी भये।।परनारि संग कुशीन कर वन योगतज धामी भये । विद्या के बल रचान्ध झूठे लोगों में नामी भये ॥
___ दौड़ साधु बन बुरे काम करते । नहीं खल दुर्गति से डरते ॥ झूठे लिख लिख पुराण भरते । दोष सत्पुरुषों पर घरते ।। नाथूराम कहै सुनो गाई । खलों का मिथ्या चतुराई ।
*कृष्णादि की६*
देखो दुष्टता दुष्टों की अपराध बड़ों शिरधरते । काम क्रोध मद मोह लोभ वश पाए निद्य कार्य करते । टेक ।। अति कामी अरु साधु कहावें कुशील
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ज्ञानानन्दरत्नाकर । संवन नित्य को । हिन्मा चांगे झूठ बोलना आदि पापा से नहीं डरें ।। अपने दोप छिपाने को मिथ्या उपाय रचग्रन्थ भो । नेद शास्त्र के शब्दार्थ के बदलन में पुटिलना धरै ।। तिनका वर्णन सुनों कानदे जैमी शाखि वे उग भरते । काम कोय मद मोह लोभ वश आप निन्द्य कार्य करते ॥ १ ॥ अति उत्तम यदुवंश तहा श्रीकृष्ण हुए हरिपद धारी । नातिवान विद्वान तिन्हें कहने पर त्रिय रन ठाभिचारी ।। है गोपिका रमी कृष्ण ने जोषी गवालों की नारी। राया कम्ज शादि सहस्र मोल यह पाप धर भारी ॥ ऐमी तो निन्दा करते अरु मक्त बने भारी धरने । काय कोच पद मोह लोभ वश आप निदय कार्य काने ॥२॥एक समय कई नग्न गोपिका करतीथीं जल में स्नान । सटपर चार घरे मद मोलेके कदम पर चढ़ गया कान || तब गोपी लज्जित होके का जोड वीर मांगे पहिचान । पर हरिने ना दिये कहा तन नग्न दिखाओस. न्मुख शान || जन देखी सब नग्न कई तब डाले चीर हरि तरूपते । काम कोच पद मोह लोभ यश प्राप निंदय कार्य करत ॥ ३ ॥ कहै कृष्ण मनिहार नाचिन ग्रज वनिनों में कीना छल । लूट चोरि माग्वन दधिता इंस'का तिन के कुर देने मन ।। रत्यादिक अति दुराचार कृत्रिया कृष्ण की बताते खन । जो जग में अत्यंत नियमों को करी हरिमाया बल || भक्त बने अरु निन्ना करते महा पाप नही डाने । काम क्रोध मद मोह लोग यश भाप निंद्य कार्यकरने ॥ ४ ॥ो कहे को भूल जानो तो देखो भागवन में पढकर । पढे न हो तो मुनो भाग मे दमो लिखा इसमे बढ़कर | झटी पन्न गहो मताठ से मूढ विवाद को लहकर । देखा को निन्दा करत सो हृदय विचार करो दृहकर । नाक काट पाछे दुशान में वही पशन राठ पाचरते । काम क्रोध मद गोह लोभ यश प्राप निंद्य कार्य करते ॥ ५ ॥ वालपने में कृष्ण विपत्ति वशरहे नन्द यशुमा के बाप । वहा अवश्य नित धेनु चराई अन्य चुग ना कीना काम ॥ युद्ध क्रिया वनभद्र मिग्याई छिप छिपके जागोकुल ग्राम । कम मार जा यमे द्वारिका पार्षशिल संग नमाम ॥ नीति राज्य किया श्रीकृष्णने झूठे दोप धरै खरते । काग क्रोध मन मोह लोभ वश भापगिय कार्य करते ॥ ६॥ पूज्य पुरुष पाडव तिन की उत्पनि करोगे से खल । कहे पंच भरतारी द्रोपदी द्रुपद सुता गो सनी विमल ॥ सन्मान को यन्दर कहते जो विद्याधर नृप अतिवल । महापुरुष के पूंछ लगाने और भक्त बनते निश्चल ।। इससे निंदा अधिक और क्या घशुः
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। बनाय दयनरते ! काम क्रोध पद मोह लोभ वश आपनियकार्य करते ॥ ७ ॥ को कर्णन कहै कुशकी उत्पत्ति कहैं कुश दूवाकर । मच्छ गंधिका मच्छी से गांव गगाजल में हुएनर ॥ निर्वक झूठी युक्ति मिलाते जैसे नाम सुनतं अकसर तिसीही उत्पत्ति तिन्हों की कहै पेड़ रो विनजर | जिन बच सूर्य समान सुनें ना मर्म तिमरको जो डरते । काम क्रोध मद मोह लोभ वश आपनिय कार्य करते ॥८॥ लीलानाम खेल का है मो खेल करें अज्ञानी जन । पूज्य पुरुष.ये खेल न करते नर्क बाप्स जिनके लक्षण || अपने ढोंग पुजाने को यह उन दुष्टों ने किया यतन | अक्क बने अरु निन्दा करते महा पाप में रहैं मगन । झूठे ग्रंथ कटिलता से रच निन स्वार्थ को आदरते। काम क्रोध मद मोह लोभ वश श्राप निघ कार्य करते ॥ ६॥ कृष्णादिक सत्पुरुषों का उत्तम कुल जिनमत में माया। धर्म नीति युत राज्य किया निन नहीं करी किंचित माया | अपने ढोंग पुजाने सो यह फन्द खलों ने बनाया। जिन गृह मत जाउ कभी भोरे जीवों को वि. माया ॥ नाथूगम जिन भक्त वहां दुष्टों के अन्दमय लख परते । काग क्रोध मद मोह लोभ यश भाप निंद्य कार्य करते ॥ १० ॥
* शाखी* सुख करन कलि मल हरण तारण तरण त्रिभुवन नायजी । कल्याण कर्ता दुःख हा नवों तुमपद मायनी ॥ है बिनय जनकी यही मनकी रखो चरणा सायनी । भवसिंधु पार उतार स्वामी पकड़ जनका हाथजी ॥
दौड़ * प्रभुनी तुगदो तारण तरण । जनको राखो पदों के शरण ॥ मोगन से तु. म्हारे चरण । जनका मैटो जन्मन मरण ॥ जपे जिनभक्त नाम तेरा । नाथूराम चरणों का चराजी ।।
॥ श्रीजिनेंद्र स्तुति॥७॥
श्रीजिन करुणा सिंधु हमारी दुरकरो भवपीर सनम | आशा की आशा पूरो सब माफ करो तकसीर सनम ॥ टेक ॥ यह संसार अपार नीरानीध प्रति दारुण गम्भीर सनम । गोता खात अनादि काल से मिलान भव तक तीन सनम।।
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ज्ञानानन्दरनाकर ।
सुना नाग शुमजान तुम्हारा तारण भवोदधि नीर सनम । आशा वान भया तब से कुछ पाया मनको धीर सनम । तुपसा तारक पाय मिटी अब निश्चयकर भय भार सनम । पाशक की पागा पूरो सब माफकरो तकमीर सनम ॥ १ ॥ नित्य निगोद वप्ता अनादि तहां थावर पाय शरीर सनम । मरा श्वास मेबार अठारह बघा कर्म जंजीर सनम ॥ यावर भूजल तेज वनस्पति भाषी और सपीर सनम | ऐपे भ्रमन लई बस काया कंचन यथा फकीर सनम । मिला न तो भी पार मोदधि ऐसा अतट गहीर सनम | श्राशक की आशा पूरो सब माफकरो तासीर सनप ।। २ ।। फिर विकलत्रय अरु पंचद्रिय मन चिन रहा अधीर सनम | फिर तिर्यंच पंचेंद्रिय सेनी भयो बिनश तकदीर सनम ।। चघ पन्धन दुःख सहा वहा बहुमार रहा दिलगीर सनम । पुनःनके दुःख सहा पंच विधि जहां न कोई सीरसनम || ताड़न मारण आदि जहां ना वचनेकी तदवीर सनम । पाशक की श्राश पुरो सब माफ करो तकसीर सनम ॥१॥ नरनन पाय सुकन कुछ कर सुरभयो अपर क्लवीर सनम | फिर सम्यक्त विना मटको ना भवोदधि लयो.अखीर सनम || अव शुभ योग मिला श्रावक कुन रु तुप त्रिभुवन पीर सनम । शिक्षा मावुन से की शुचि अंतत्मि वीर सनम || नायूगम जिन मक्क मये अब जिन धन पाय अमीर सनम । भाशक की आशा पूगे सव माफ करो तकसीर सनम ॥ ४ ॥ *जिन भजन का उपदेश (म) की दुअंग ८*
मन वचनकाय जपो निशि वासर चौवीसो जिन देवका नाम । मंगलकरन हरन अघ अात्ति घाता विधि दाता शिव घाम ॥ टेक ॥ मोर महा मट जगत में नटखट ताके पढ़ा यशात्म राम । पम्न विषय सुम्ब में निशि वासर नहीं खवर निज पाठो याम ।। मूढ कुमति से प्रीति लगाकर मित्र बनाये क्रोधरु काम । महत्व प्राना भूल गया शठ जाना रूप निज हाइरुचाम ॥ मोद्भक्ति करेना जहमति नासे मिले अनुपम शिव भाम | मंगल करन हरन भय आति घाता विधि दाता शिवमान ।। १ मदन के वश रस विषय को चाहै दाई सुगुण निज मूह तमाम | माने ना शिक्षा गुरुजन की दुर्गति को करता न्या.
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ज्ञानानन्दरनाकर ।
पाम || मद्य मांसको सप्रेस सेवे जैसे दरिद्री शीत में घाम । माया लीन उगे दानों को फिर कुविसन में खोवे दाम ॥ मत्ति मानों की कर न संगति जाने बसे अविनाशी ठाम | मंगल करन हरनअघ प्राति घाता विधि दाता शिर घाम ॥ २ ॥ मात तात सुत भ्रान मित्र धन दासी दाम अर्द्धगी भाम । माने मोह वश इनको अपने वो वंचूल शठचाहे भाम ।। मेरी मेरी करता निशिदिन नहीं लहै चणभर विश्राम । मोत फिरशिरपर निशि बासर नहीं करे क्षणएक विराम ॥ महा मूह प्रभु नाम न जपता जिस्से हाय भविचल आराम । मंगल करन हरन अघ अार्ति पाता विधि दाता शिवधाम ॥ ३॥ मिथ्या मार्गचले श्राप शठ कर्मों को देता इल्जाम । मुन्न तत्व श्रद्धाण न करता इस्से अयोगति करे मुकाम ।। मानो सुधी यह शीख सुगरू की स्वपर भेद में रहो न खाम । मिले न फिर पर्याय मनुज की करो शुद्ध या से परणाम || मद पाठो को टारधार तर नाम प्रभु का नाथूराम । मंगल करन हरन अघ भाति पाता विधि दाता शिव धाम ॥ ४॥ * सिंहावलोकन शिकस्तः बहर जिनेन्द्र स्तुति ९ *
जाली . पाठो मोहादि ये खन जगत् के नीपों पैपांसी दाली। डाली है अर्जी पेशी में जिनवरये नाश कीजे मोहादि नाली ।। टेक ।। जाली जलाके मुकति में जाके तुम तो कहाय त्रिलोक भाली । पाली न जगमें है ऐमा दशा कीनी बहुत फिरके देखा भाली । माती अनुपम उनी ने पूर्ण जिनने नले भक्ति माल घाली । घान्ली नशीहत थारी स्त्र उर में पूरी प्रतिज्ञा सुमति से पानी। पाली मुक्ति रानी नाहि क्षण में पोह पाप पल मे तोड़ डाली । डाली है अर्जी पेशी में जिनवर ये नाश कीजे गोहादि जाली ॥ १ ॥ जाली हैं आगे ये आदिही के इनके साथ काहू ना बफाली । बझाली वेशक उन्हीं ने स्वामी मिन्ने शक्वि स्वातम की सम्हाली ॥ सम्हाली रत्नत्रय भाप सम्पति कुमति , कुटिल हिरदे से निकाली निकाली सूरत पाठो पतन की नहीं रंच रिपु की शक्ति चाली ॥ चाली सुमति जिन के साथ आगे तिनके गले विश्व ज यल डाली । डाली है भनी पंशी में जिनवर थे नाश कीजे मोहादि
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नानन्दरत्नाकर
जाली ॥ २ ॥ जाली कर्म थिति रूपी वनी तुप तोथी तुम्हारी प्रकृतिकृपाली कृपाली तुपको निम्न पशुमर निकट र व्याल औ मराली || मरालीफनपति सप्रेम रमते हृदय धार अनुभव की कलाली । कलाली पूर्ण स्वपर प्रकाशक प्रीति कुपति कुन्नटा से उठाली । बठाली निज सम्पति थाप कर में कभी दृष्टि धनपर न डाली || दाली है अर्जी पेशी में जिनवर ये नाश कीन मो हार्दि जाली ॥ ३ ॥ जानी मुक्ति लक्ष्मी परम पावन मनुज जन्म पाये की नफाली । नफाली अविनाशी सार पद की जीति मोड राजा की ध्वजाली ॥ ध्वजाली नयकी पाठो को इतके गुरु की नशीहत पूरी निभानी | निभाली शिक्षा गुरूकी दर में स्थिति न्नई इस नगमे निराली || निराली बिनती सुनो प्रभूजी नाथूराम जो चरण में डाली । डाली है श्रर्जी पेशी में जिनवर मे नाश कां ने मोहादि जानी ॥ ४ ॥
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* शिकस्तः वहर जिनेंद्र स्तुति १०
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हे मेरे स्वामी जिनेश नामी भवान्धि मे से निकाल करके | बनाओ सेवक हे नाथ अपना मोरचानि मम्हाल करके || टेक || तुपतो दयाकर गुण के सागर छाया विरदनग विशाल करके । कोई न तुमसा त्रिलोक अन्दर किमकी बताऊं मिशाल करके || जैसे अतुल वल का धारी केहर जांचे तिसे को शृगाल करके | वा विम्व रविका प्रवs दिन में को जांचे वा दीपमाल करके || अतुल गुणों के निधान प्रभुमी क्यों होवे वर्णन मो वालकरके । व नाथ सेवक हे नाथ अपना मोरक्षा कीजे सम्हाल करके ॥ १ ॥ त्रिलोक दृढे न कोई पाया शरण का दाता दगान करके । मिले सुदाता अव विश्व त्राता मैंटो असाता खयाल करके || जो दुःख देखा न तिसका लेखा वहू कहातक कमाल करके । हे विश्व ज्ञानी तुम्हें न छान इस्मे हरो विपदा पाल करके || सुयश तुम्हारा जगत् में भारा नये जगत् नीचा भालकरके | बनावो सेवक हे नाथ अपना मो रक्षाकीजै सम्हाल करके || २ || उदार तुम प्रभु स्वगुणके दाता तारे बहुत भाव निहाल करके । खलासकोने बहुतये प्राणी बंधे थे जो विधि के जाल करके || महारली ये आठो कर्म तिन राख्ने जगत्
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ज्ञानानन्दरत्नाकर । जी वहाल करके । जो शरण पाया सो तुम बचाया पाठी कर्म को पामान करके ॥ अब जनको तारो ससारोदधि से पाठो कर्मको जघाल करके । व. नगो सेवक हे नाथ अपना मो रक्षा कीजे सम्हाल करके ॥ ३ ॥ तुम तो कर्म द्रुम समूल नाशे शुक्ल ध्यानदों मजाल करके । युक्ति में राजत होके अ. वाधित सो पद में याचन सवाल करके । दुःखी जगत्नन पडे कर्म बन जलें अग्नि अघकी झाल करके । थारे बचन धन हैं ताप नाशन पो जगत् को खुश हाल करके ॥ राखो शरण निज हे विश्व ईश्वर नाथूगम को वहाल करके । बनाओ सेवक हे नाथ अपना मोरक्षा कीजे सम्हाल करके ॥ ४ ॥
* परमदिगम्बर मुद्राकी प्रशंसा ११ *
परम दिगम्बर बीतराग जिन मुद्राम्हारी आखों में । वसी निरन्तर अनूपम भानदकारी आखों मे ।। देक ॥ जा दर्शत वर्षत सम्यक रस शिव सुखकारी भाखों में | विषय भोगकी बाप्सना रही न प्यारी आखों में ॥ जग असार पहिचान प्रीति निज रूपसे धारी श्राखों में । तृष्णा नागिन जाष्टि संतोष से मारी आखों में ॥ सब विकल्प मिटगये लखत निनछवि बलिहारी पाखों में। वसी निरन्तर अनूपम अानंदकारी आखों में ॥ १ ॥ राग द्वेष संशय विमोह विभ्रम थे भारी आखोंमें । देखत्त प्रभुको लेश ना रहा उजारी आखों में।कुयश कलंक रहा ना छवि लख अचरजकारी आखों में । यह प्रभु महिमा कहां यह शक्ति विचारी आखों में ॥ सहस्र नयन इरि लखत चाल छवि जिनवर थारी आखों में । वसी निरन्तर अनूपम जानंदकारी आखों में ॥ २ ॥ मंगल रूप बाल क्रीडा तुमलख महतारी आखों में | आनन्द धारे यथा लख रत्न भि. खारी आखों में ।। देव करें नित सेव शक्रसे भाज्ञाकारी पाखों में | उजर न मिनके * हाज़िर हरशरी श्राखों में । नित करत गति भरत रिझावत दे दे वारी आखों में । वसी निरन्तर अनूपम अानंदकारी आखों में ॥ ३ ॥ केवल , ज्ञानभये यह दुनियां झलकत सारी आखों में | पलक न लागे न भावे नींद तुम्हारी आखों में ।। द्वादश सभा प्रफुल्लित छवि लख सर नर नारी आखों में । किंचित कोई दृष्टि ना पड़े दुःखारी आंखों में।। नाथूराम जिन भेक्त दरश लख
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शानामन्दरलाकर । मये सुखारी आखों में। वसी निरन्तर अनूपम आनंदकारी पाखों में ।। ४ ॥
* परम दिगम्बर जिन मुद्रा की १२*
नास भये पत्र पाप लखी जिन मुद्रा धारी आखों से । मोह नींद का नया आताप पानी पाखों मे || टेक |परमदिगम्बर शांनि त्री ना नाय विसारी साखों में लग गया गन यथा मणि देख भिखारी श्राखों से ॥ होत कनार्थ देख दर्शन नम मुर ना ना भावों से । पर द्रव्यो को हेयलख प्रीति निवारी भासी ॥ निज स्वरूप में मन भलख मम्पकधारी श्राखों से | मोहनदि का गया साताप पारी पाखों से ॥१॥ कायोत्सर्ग जया पदासन प्रतिमा थारी भावनादेवन होता दाश यानन्द अधिकारी भाखों से || ध्याना हद शाम दृष्टि नाशा पर धारी आंखो मे ॥ विस्मय होता देख छवि अचरज कारी यांतों से । देवों कृत शुभ अतिशय देखत सुख हो मारी आंखों से || मोड नीद का नया साताप हमारी आंखों में ॥२॥राग द्वैप मद मोर नशेतम भक्ति उनारी भाखामा चिनावंडी का संताप से टारी आंखों से । निन परकी पहिचान भई उर दृधि पसारी बांखों से । महमति सारी गई देखत धीधारी थांखों मे ॥ प्रय संमार निकट अायो गिन छवी निहारी आंखों से ! मोह नींद का गया याताप हमारी शांवों में ॥ ३ ॥ सहस्राक्ष कर निर्खत वासव चवी तुम्हारी आंखों से तृप्त न होता देख छवि महा सुखारी आंखों से ।। भान गई विपदा छवि देखत क्षण में सारी यांखों रो। कोई माणी दृष्टि ना परे दुःतारी प्रांखों से | नाथूगम जिन भक्त दरश लख कुपति विड़ारी पाखों से। वमी निरन्तर अनूपम भानन्द कारी पाखों से ॥ ४ ॥
॥दर्शनकी लावनी १३॥
हे प्रभुदीन दयाल पदा मुझको अपनी दाजे दर्शन | मैंजन धारा हमारा हरो कष्ट प्रभुहो परसन ॥ टेक । तुम त्रिभुवन के ईशतुम्हें सज और शीस किरह
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ज्ञानामन्दरत्नाकर । को नाऊं । तुमसे दाना पाय प्रभु और किसे जांचन जाऊं । अन्य देव सव रागी द्वैषी तिन्हे न मैं स्वप्ने धाउ । यही मनोर्थ है मेरा दर्श संदा थारा पाऊ ॥ शखो अपने पास जान निज दास न अव पाऊं तरसन । मै जन धाराहमारा हरो कष्ट प्रभुहो परसन ॥ १ ।। युगल नयन दिन रैन तुम्हारे दर्शन की कररहे है पाश । युगल चरण का मनोर्थ यही चलें पहुंचे तुम पाम || दोनोंकर बम द्रव्य मिलाकर तुम पद पूजन चाहत खास । द्रव्य भाव मन तुम्हरे युगलचाण का चाहत वात ॥ रसना इच्छा करसदा यह तुम गुणमुख लागे वरसन में जन थारा हमारा हरो कण्ट प्रभुहो परसन ॥ २ ॥ अवगुण की खान अ धिकतर पर थारेही गुणगाता हूं। स्वप्नान्तर भी अन्य देवको न शीस नवाताई ॥ क्षण २ लेतानाम तुम्हारे दर्शन को ललचाता हू । अवमर पाता तभी त. काल दर्श को आताहूं ॥ स्वप्न में भी देखत तुम दर्शन मन मेगलागत हर्पण। मै जन थारा हमारा हरो कष्ट प्रभुहो परसन ॥ ३॥ तबतक दर्शन मिनें निरतर जबतक नाशकरों वसुकर्म । पाऊँ वासा मुक्ति मंदिर में यही श्राशा ममपर्म ।। बहुत दिनों से करों वीनती पलेनहीं दर्शन विन धर्म। हे विश्वेश्वर दासको सुनो दाद राखो अब शर्म । नाथूराम को चरण शरण निज राखलेहु कर आकर्षन । मैं जन थारा हमारा हरो कष्ट प्रभुहे। परसन ॥ ४ ॥
॥ चौसड़की लावनी १४॥
चौरासी नख योनि में चौसड़ खेलत काल अनादि गया। चारों गति के चार घरसे न अभी तक पार भया । टेक ॥ देवधर्म गुरु रत्नत्रय तीनों काने बिन पहिचाने । आराधना चारो नहीं हिरदय में धरे चारो काने ॥ पंचमहा चूत पंजडी बिन नहीं पाया पंचम निज थाने । पटमत्त छकड़ी के वोध विन रहा अभी तक अज्ञाने ।। पंच दुरी सत्ताके बोध बिन सत्ताका ना सत्त्यछया । चारों गनि के चार घरसे न अभीतक पार भया ।। १ पांचतीन अथवा छ: दो अट्ठा के बिना जाने भाई । यसकर्म न नाशे नहीं बसुगुण विभूति अपनी पाई ।। पांच चार अथवा छतीन जाने पिन नवनिधि विनाई। नवग्रीवक जाके चतुर्गति फिर
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जनानन्दरत्नाकर। भ्रमण किया गाईचार दशाशय धर्म न जाना दशविधि परिग्रह भारव्याचारों गति के चार घरसे न अभीतक पार भया॥२॥ दशपो ग्यारह के विन जाने गुण स्थान ग्यारह चढ़के । फिर गिरा अज्ञानी मोह वशम हे दुःख नाना पढ़के । दश दो वा कच्चे वाह किन जाने मोह भटमे अडके । बारम गुण थाने चढ़ा ना निज विभूति पाता लड़के ॥ पोवारह के भेद विना ना तेरह निधि चारित्र लया चा गति के चार घामे न अभी तक पार भया ।। ३ ।। चौदह जीव सपास चतुर्दश भार्गना नहीं पहिचानी । इस कारण बौदह चढाना गण स्थान भ्रए अधि ठानी ॥ पन्द्रह योग प्रगाढ न जाने तिनबश शासव रतिमानी । सोलह कारण के बिना भाय न कर्म की थिति हानी || सत्रह नेम बिना जाने नहीं पाली मिचिन जीव दया। चारोंगति के चार घासे न अभीतक पार भया । ४ ॥ दोष भठारह रहिन देव अरिहन नहीं हिरदय थाने । इस हेतु अठारह दोप लगरहे नहीं अबना हाने || सम्यक पत्नत्रय पांसे अब सगुरु दया से पहिचाने । बाटो विधि गोटे नाशेि गुण पाठ वरंधर के ध्याने ।। नाथूराम जिन मत पार होने को करो इद्योग नया। चारों गतिके चार घरसे न अभी तक पार भया॥५॥
विहरमान वीसतीर्थकर की लावनी १५॥
विहरपान जिन दाई ट्वीप बीस सदाही राजन हैं । तिनका दर्शन तथा स्पर्ण किये अप भामत है ॥ टेक || जम्बूद्वीप में विदेह बत्ति आठ पाठ में एकशि | दा विराजे रहे पविजीवों को देते उपदेश । सीपंधर युगर्भधर स्वामी बाहु सुना श्रीपरमेश। चार जिनेश्वर कहे तिन के पद पन्दन करों हमेश ।। धन चीया बाल जहां निन देव दंभी वाजत हैं । तिनका दर्शन तथा रमण किये .. अब भाजन है ॥ १ ॥ धातकी खंड द्वीप में विदेश है चौसठ अरु बस जिनराज, थाटमाट में एक नाय कर तिनम रहे विराज || सुजान और स्वयं प्रभु ऋषभाननं अनेन वीर्य महाराज । विशाल मूरी प्रभू बज्र घर चन्द्रानन राखो लाज || छा. लम गण व्यवहार और निश्चय अनन्त गुण छाजन है । तिनका दर्शन नया पर्ण किये अब भाजन हैं ॥ २॥ आंध पुष्कर द्वीप में चौसठ है विदेह अरू
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। वमु जिननाध | जिनको सुर नर वहां पूनें इमभी यहां ना पाय || चन्द्र बाहु श्रीभुजंग ईश्वर देग प्रभू वीर सेनजी न, य । यहाभ अरु देवयश भाजित चीय पद जोड़ों हाथ ॥ जिनकी प्रभा देस रवि शशि त रा ननत्र गृह लामा है। तिनका दर्शन तथा पर्ण किये अब भाजन ।। ३ ।। नाई ईप में एक सौ साउ विदेह तिनमें तीर्थंकर बीम । पाठ श्रठ मे एक जिनका राजे किभुवन के ईश ।। कोहि पूर्व मत्र श्रायु श्ना पांच काय त्रय छत्तर शीय । दोनों श्री अमर दोरते चार वत्तिम वत्तीम ॥ नायगम जिन पर जहा जिन यवन व सम गाजत है । तिनमा दर्शन तथा मर्ण किप अष भाजत है ॥
... ॥सिद्धों के स्वरूप में लावनी १६ ॥
मेरा तो मिहबूर वही जो जिलावे त्रैलोक्यानी । जिनके नाम का मन धाते हैं हमेशः योगी यती ॥ टेक ! वर्ण गन्ध रम फर शब्द तम छाया रहिन अचान प्रासन | अन्थि चम मल रहित नहीं पायें कि इंदिय मन । जन्मन मरण जरा गद वर्जित वाया रहित न जिसके ना । अनन्त दर्शन ज्ञान दृग वार्य चतुष्टय भिमके दन ॥ निर्विकार प्रातार साकार पुरुप के चिन्मूर्ति नई। खेदरती । जिसके नाम का ध्यान धाते है हमेशः योगी यनी ॥ त्रिजगन के चर अचर पदार्थ जिसके ज्ञान में झनक्क रहे । यो दर्पणमें पड़े मतिरिव त्यो तिनके ज्ञान कहे ॥ जाति अक्षा ब्रस नाम एक व्यक्ति अपेक्षा ऽनेन लहे । उसी रूट पर गेहूं.माश्वत मेरा मिहना बहे ॥ भवसागरके पार विजन में खोजत हो वही गनी । जिसके नाम का ध्यान धरते है हमेश: योगीयनी ॥ २॥ यतु गुण पूर्ण बहु विधि चूर्ण करके प्राशन लिया अटल । तीन लोक के शीस पर राजत है प्यारा निश्चल ॥ जुधा तृरा निदा भय विता अति आदि सब डाले दल ! तीन लोक वरावर कोई नहीं जिसके अतिवन्न ॥ काम क्रोध मोहादि खलों का जोर न जिसपर चले रती । जिस के नामका ध्यान घरते है हमेशः योगीयनी ॥ ३ ॥ चिदानन्द चिद्रूप राग परमात्म प्रादि अनन्ते नाम । जिनवर जिम कहे मम हृदय वही राजत है
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। राम ॥ जैसास शिवथल में वही मा घटमें वास काता बसु याम । निशि दिन इसके ध्यान में लग रखें मन नाथूराम ॥ जो ऐसे मिट्यूब से विरक्त मई निम्हों की युद्धि हनी । जिसके नाम का न धरते हैं हमेशा योगी पती॥
॥मिद्धों के स्वरूप में दूसरी १७॥
पाशक है रा गुल के जिस जग माग नाम जपे | जिसका नाम सन हमेशः परथाइदाकाल कपे॥ टेक॥ हरिहर ब्रह्मा आदि सभी एक काल बन्नी में हार है । वा न कोई जपत जन सब बहुमार पारे ।। ई. द्रादिक र अगर कह चे सो भी भायु गतमारे है । सत्य अमर है वेही जो भादपि पार पधारे है ।। अजर अगर यही परम ब्रह्माद निसका सुश जग गाछिये । जिमका नाप लग हमेशा घर घर ठादा काल कपे ॥ १ ॥ वही बम पगारा उसी श्राशक हमारा मन । जिमी संगति पाय यह अशाव नविन कहाना नन । यो कान लोहा पारस संयोग शद्ध होता के चन त्या या उम योग से पगित बज वेग सज्जन | गुण अनन्त किए वह भला क्या अगुज सेवाकाश नपे । जिप्तका नाम सुन हमेशह पर या उड़ाकाल करे ॥ २॥ कोटि भानु एकत्र होय तो तिसके तेन से लाजत है।
यो कहर का शब्द सुने लाखों जम्बुक माजत है। ये शरीर मुद्दा समान सब उसी के वन से गाना है। एक उसी को अनन्ते नाम गुणों कर छाजत है ।। यदपि दृष्टि ना पड़े तदपि भी तेग बलका नाहि ढरे । जिसका नाम सुन हमे शह थर थर टाला काल रूप ॥ ३ ॥ एमे गुन के दर्शन की पाठ पहर रखना उम्मेद । स्वर्ण जिसका करती दर हाय भव भव के खेद ।। धन्य जन्म
मानन अपना जब से जाना उम गुल का भेद । अपार महिमा जिसकी है नायगा गाते हैं वेद । विमुख रद जो ऐमे गुन से सोही भव पालाप तपे। जिसका नाम सुन हमशह या थर ठाड़ा काल कपे ॥ ४ ॥
॥हितोपदेश में १८॥ जाना जाना के पास तो दिल में खटक लाना होगा । क्यों मना फिरत
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ज्ञानानन्दात्नाकर। चेत नहीं पछि पछताना होगा ।। टेक ॥ वीता काल अन्त भ्रपत अब तो थिर थाना होगा। नहीं लख चारासीयोनि में फिर फिर दुःख पाना होगा। तीन लोक में क्षेत्र न ऐमा जाहि न ते छाना होगा | अबभी ना धाका श्र गत को तुझा नादाना होगा | पंच परावर्तन कर करके नाहक दीवाना होगा । क्यों भला फिरता चेत नहीं पीछे पछताना होगा ॥ १ ॥ अवत योग कपाय पाय मिथ्यात्व तू गर्वाना होगा । तो भव मागर दूर के बहु गोते साना होगा | प चारित्र परीपह तप गहु निश्चय शिवराना होगा तमसुक्ख अनन्ते भोग नित यहां न फिर पाना होगा । गुरु मिक्षा पर ध्यान न दे तो खराब खाना होगा । क्यों जा फिरता चेन नहीं पछि पछ ताना होगा ॥ २ ॥ सुन सम्मति सपने मत जाने इन्हें छोड़ जाना होगा। पल एक न ठहरे भये थिति पूरी सब विराना होगा | तार से त्याग गये तो ऐमा कौन स्याना होगा | जगको पिर माने जहां नित काल बदन दाना होगा ।। अरे मूह निर्यच नर्क दुःख क्या तू विसराना होगा । क्यों भूना फिरता चेन नहीं पीछे पछताना होगा ॥३॥ नरगति के क्षण भंगुर मुखको तुने विरमाना होगा । तो तुझसा मूर्ख कौन जानिज स्वभाव हाना होगा ॥ सपने हाथ कुल्हाड़ी लेकर अपना पद भाना होगा । ता कोन विवेकी ऐसेको वन लाता दाना होगा ॥ नाथराम शिव सुख चाहो तो ब्रह्म मुयश गाना होगा क्यों भूला फिरता चेतनहीं पीछे पचताना होगा।॥ ४ ॥
परमात्मा स्वरूप में १९॥
हमें है जाना वहां तलक जिस जगह हमारा जाना है। उसी की खातर वेद मथ मथकर अहो निशि छाना है ।। टेक ॥ उसजाना का रूप अनुपग देख भानु शर्माना है । कोटि काम का रूप एकत्र न तास समाना है। लोक शिखर के अन विराने कहीं न आना जाना है । निश्चल आसन ज्ञान का पिड स्वग्स कर सानाह।।जाति अपेक्षा सब सिद्धों को एकब्रह्मकर माना है। उसी की खा तर चेद गथमय कर अहा निशिचाना है ॥ १ ॥ त्रिनगत में चर अचर पदार्थ जिसे न कोई छाना है । सर्व द्रव्य का द्रमगुण पर्यय युगपत नाना है। तीर्थ
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। कर से नवे जिसे जब गृहतन संयम ठाना है। उसी रूपपर मैं हूं आशक्त वही जर माना है। जिस जाना की अनुकम्पा से निज मुरूप पहिचाना है। उसी की खातर बंद मय मथकर अहो निशिछाना है ॥ २॥ उसनाना के जाने बिन जी भवन में भटकाना है। आधार न पाया कहीं चिरकाल सहादुःख नाना है। लख चौरासी योनि चतुर्गति में बहुबार रुलाना है। स्थान न कोई बचा जहा गरा न जमा प्राना है । निमने उम जाना को जाना वही वप्ता शिवथाना है। उमी की खातर वेद पथ मथकर महोनिशि छाना है ॥ ३ ॥ उसजाना के मित्र भो तिन यस विधि भरिको हाना है। काल वली का सर्व भभिमान तणक में भाना है। निराधाघ अव्यय पह पाके यही बना शिव गना है । जांगृ कुटम्म को छोड़ जाना का घरानिग ध्याना है ।। नायूगम जिन भक्त सार उसी जान का गुण गाना है । उसी की खातर वेद मय मथकर अनिशिछाना है ।। ४
॥ कुमतिकी लावनी २० ॥
कुपनि कुनारिक चेतन से क्या डारत तुप पिचकारी | मैं पाप रगीली मेरे रंग में दी दुनियां सारी | टेक ।। मोह राज हैं पिता हमारे जिन निज वशकीना संसार लिख चौगली योनि में नाच नचायन वारम्बार || भव समुद्र बहु भाति रंगका तीन लोक में विस्तार । हुरिता जगजीव रहे वह दूध कठिन है पाना पार ।। धर्म कल्पतरु कटवा मैंने बहु अघ होरी विस्तारी । मैं आप रंगीली मेरे रंग में इवी दुनियांमारी ||१| क्रोधमान छललोम बड़े भ्राता मेरे अति वलयेचार । मित्र जिन्हों का मदन योद्धा रति का पति काम कुमार ।। पंचेंद्री तिसकी दासी मम शखी मेरे रहती नित लार । नाना विवि के करें कौतुक मेरे संग में व्यभचार ।। इच्छा दुख की मूल नायका सो है हमारी महतारी । मै आप रंगीली मेरे रंग में डूवी दुनियां सारी ॥ २॥ भै कलटाजग में प्रसिद्ध पर अशुभ भाव मेरे भतार । गिल्या दर्शन और कपाय सर्व तिनका परिवार ।। आर्त रोद्र मम जेठरुदेवर प्र. शुभ लेश्या तिनकी नारि योगप्रव्रत तथा मिथ्यात्व बन्श पतिका यह सार । ज्ञान दर्शनावरणी मदिरा छाय रही हग में भारी । मै आप रंगोली मेरे रंग में दूची दुनियां सारी ॥ ३ ॥ नाम कर्म बह भांति चितेरा काया कौनक गृह कीना
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ज्ञानानन्दरत्नाकर । '
श्रायु गोत्र ने शुभाशुम स्थिति तहां मन दीना ।। नाना विधि भागादि वस्तु का अन्तराय ठेका लीना । तिप्त मित्र वेदना देनको नाना विधि कार्य चीन्दा ॥ यह सब नहो विभूति हमारी मोसम कौन कहो नारी | मै आप रंगीली मेरेरग में डूबी दुनिया सारी ॥ ४ ॥ परिग्रह पान फूल अतगदिक नाना विधि अपभोग खरे । अदया भीर से कालिगा के कुमकुम बहुभानि भरे। कुयश कुशील कुस्पादिक के कुवचन नाना रंगधरे । पिचकारी पाप से जगत के जी हरिशा सर्वोर करे ।। काया वीच विर्षे जगपाणी लिप्त किये मै अधिकारी ॥ मै आप रंगीली मेरे रंगम डूबी दुनिया सारी ॥ ५॥ मन मृदंग तंबूरातन के मधुरशब्द मिलकर वाजें | कर ताज कुटिलता धरे संग में अपगुण घुधुरू गाजे ।। सप्ज विमन सारगी के स्वरसर्च राग ऊपर राजें। संकेत मंजीर युगल हग की गति देख सभी लोजें । आशा तृष्णा नृत्य करें मेरी प्रेग गानी गारी । मैं आप रंगीली मेरे रंग में डूबी दुनिया सारी ॥ ६ ॥ रुदन राग नाना विधि के जहां होय निरंतर अधिकाई । ममता मेवा से भरे घट पूर लहर दश दिशि छाई ।ताइन मारण आदि मिठाई भोगत दिन प्रति सरसाई । भव भ्रमण घरोघर करत महतम मूढता उरछाई ॥ फनीहत फागमचे घरघर प्रतिमो श्राज्ञा सब शिरधारी । मैं आप रंगीली मेरे रंग में डूबी दुनियां सारी ॥ ७ ॥ ऐसी फाग अनादि कालसे मैं स्वयमेव खिलाय रही । जो उ. दास वासे भये तिनही शिवपुर की राह नही || नाथुराम कहैं वे पुरुषोत्तम जे शिवपुरकी बसे मही । निंदित्त संसारी सर्वही जो शिरधार कुमति कही । कुपति कहै मेरी विचित्र गति यह जगनीवों को पारी । मैं आप रगीली मेरे रंग इवी दुनियां सारी ॥४॥
॥ सुमति की लावनी २१॥
सुमति सुनारि कहै चेतन से छोड़ कुमति कुलटानारी । मेरे रंगगयो हर्षधर भोगो शिवसुंदरि प्यारी ॥ टेक ॥ ज्ञान मानु है पिता हमारे जो घटघट में करें प्रकाश । उदय जिन्हों का होतेही मोह तिमर रिपु होता नाश ॥ स्वपर विवेक मित्र है जिनका जगजीवों को सुखकी राश । विषय विरोधक दास संवर जिनके नित रहता पास ॥ जीवदया धर्मकी मूल बरसोई हमारी महतारी। मेरे रंगराचो
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। हपधर भोगो शिव संदरि प्यारी ॥ १ ॥ मार्दव आर्यव सत्य और संतोष चार मेरे भाई । शुभतीनों लेश्या वहिन जाके जीवों को सुखदाई ॥ जप तप संयम ब्रह्मचर्य इत्यादि कुटुम्सी अधिकाई । ममशखी है दिक्षा जिसे गहि भविजन शिव सुन्दरि पाई ।। तुम चेतन भतार कृपति उरधार वनेहो अभिचारी | मेरे रंग राचो हपंधर भोगोशिव सुंदरि प्यारी ॥ २ ॥ शुद्ध भाव वैराग्य पिताथारा प्रसिद्ध जगके अन्दर । तिसको तुम सेवो नाथ पैहो निश्चय तुमशिव मंदर ।। पंचपरम गुरु भ्रात तुम्हारे महा शूरगुण समन्दर । निनको तज स्वामी कुत्ति अरधार पर्ने भिक्षुक दरदर ॥ धर्म शुक्ल मित्रों को चीन्हों जो अनंत वल क धारी। मेरे रंग राचो हर्षधर भोंगो शिव सुवरि प्यारी ॥ ३ ॥ सिद्ध शिला माता को नवाकर उसी के गोद विराजो तुम । दर्मति दुःखदायन नायका इस का साथ तजमानो तुम ।। नाना विधिके यत्न बनाऊं जो मेरे संग राजो तुम ता निल कुटुम्ब में दरावर बैठ कभी ना लाजो तुम ॥ ऐसे शुद्ध कुन छोड़ कुमति उरवरी बड़ा अचरज भारी । मेरे रंगगचो हपंपर भोगो शिव सुंदर प्यारी ॥ ४ ॥ अष्ट कय तरु काट कटीले मूल सहित सूखे बाले । तिनकी रच होली जलानो ध्यान अग्नि से तत्काले ॥ पाप पंक जो भई इकट्ठी उसे फेकदो निकाले । अधपकी धुल को उड़ाकर स्वच्छ करो घटगृह हाले । क्षमारंग छिड़को दोनोंकर पकड़ प्रेम की पिचकारी । मेरे रंगराचो हर्षधर भोगो शिव सुदरि प्यारी ।। ५ । लोभ लाख को कुश कुमकुमें अघ अवीर भरकर मारो । मिथ्यास पंचों के बदन पर फोड छार छार करडारो ॥ हत्यारे हुरिहों का लखो काजल पालंक से मुंहकारो । मोवर गुमान से भी प्रत्यक्ष नारकी पद धारो ॥ चितपय चिरतीय घरै घर फजीहत फाप मची भारी ! मेरे रंग राचो हर्प धर भोगो शिव सुन्दरि प्यारी ।। ६ ॥ हिंसा होली तज ऐसी निज गुण गुलाब का रंग कगे। आचरण अतर शुभ लगा गंपित शुद्धात्म अंग करो ॥ मन मृदंग तंबूरा तनकी डुलन डोर कस तंग करो। सुरति की सारंगी मनीरा गधुर वचन के संगकरो ॥ राग रास देखो घर बैठे नाचत फिर फिर संसारी । मेरेरंग राची पधर भोगो शिव शंदरि प्यारी ।। ७ ॥ अष्ट मूल गुण मेवासे घट र सुगंधित धाराजी । प्रत्यक्ष न दीखे तुम्हें यह कुमति कटिल भूम डारागी ॥ अवमी कुमति कुटिल कुलया से कीजे नाथ किनाराजी । मुझ
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ज्ञानानन्दरत्नाकर । से हित कीजे मिलाऊं शिव युदरि का द्वाराजी ॥ नाथूगम जिन भक्त सुमति कहै मो सम अरु को हितकारी । गरेरंग राचो हर्प धर भोगो शिव सुहरि प्यारी ॥ ८॥
॥ कुमति चेतन का झगड़ा २२ ॥
चेतन चेत कुमति कुलटा तज मुमति सुहागल उरधारी । भो शिव रमणी की सहेली जा सम और नहीं नारी ॥ टेक । कुमति मान विजुहा चेतन को लगी उलहना खिजकर दैन । सुमति सौति ने तुम्हें बिहकाया सुनाकर मोठे वैन ॥ पर पैहो अति कष्ट वहां तुम जब करो जप तप दिन रैन । विषप भोग ये स्वप्ने भी नहीं मिले देखन को नैन ।। तत्र करही वच यादि हमारे' र अभी मुमति लागत प्यारी | जो शिव रपणी की महली जा सम और नहीं: नारी ॥ १ ॥ चनन कही कुगति कुलटासन तेर साथ यति कष्ट सहा नाना विधि मैने नर्क गत्यादिक में नहीं नाय कहा ॥ काल लब्धि शुभ के संयोग
अब मुमति नारि का संग लहा । तेरी कृति जानी सर्व अब बहुत काल भव सिंधु वहा । अब टल मुंहकर श्याम सुमति है भाम हमारी हिराकारी । जो शिव रमणी की सहेली ना सम और नहीं नारी ॥ २ ॥ कुमति बहरे मूह चि. दानन्द सुमति सदन तू वास करे । मुझ सी तरुणी तन प्रगट अन्धे मुखका तू नाश करे ॥ चना भिखारी फिरे घरोघर पाख मास उपवास करे । सुख वर्तमान को छोड़ अज्ञान भविष्यत आश करे ॥ मुमति सत्य टौनाकर तेरे प्रेमफांस गल में डारी । जो शिव रमणी की सहेनी नासम और नहीं नारी ३ ॥ अरी कुमति निर्लज्ज महा दुःख खानि सुक्ख क्या जानेत् । भोरे जीवों को ठगे ठंगनी प्रपंच अति ठाने तु ।। सुपति सहित हम शिवपुर वसि हैं जहां दृष्टि नहीं आने तू । त्रिय मुक्ति मनोहर सरेंगे जिसको कहा पहिचाने तू ।' सुमति समान नारि ना दूजी हित कारिणी जगमें भारी । जो शिव रमणी की . सहेली जाप्तम और नहीं नारी॥ ४ ॥कुमति कई हो रुष्ट भरे सुन दुष्ट कृतघ्नी मो संयोगा।पुष्ट भयातू इष्ट नाना विधिक भागेरस भोगावस्त्राभूपण पहल मनोहर सेज मुगंधादिक उपभोग पटरस पिंजन नारि संयोग हरे कामाविक रोगा।अव स्वप्ने
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। ना मिले भोगये मुमति कियाछल छलहारी । जो शिव रमणी की सहेली जासग
और नहीं नारी ॥५॥ परी कति अघ खानि सेज शूलारोपण अरुनर्क महल - 1 देखे मै तेरे अनन्त वार धरा नारक पद खल ॥ ताड़ण मारण शीत उष्ण भोगोपभोप विजन पल पल । भोगे मै तेरे साथ पर अब न चले कुछ तेरा छल । हृदय विराजी सुमति हमारे स्वपर भेद भाषण हारी। जो शिव रमणी की सहेली नासम और नहीं नारी ॥ ६ ॥ फेर कुमति खिसिबाय कहीरे मूह चिदानन्द गति होना । पै मोहराज की दुलारी सकल विश्व जिनजय कीना || तासे ते छल किया सुमति संग लिया कठिन तेरा जीना | अबतक अविचारी ने क्या मोहरान को नहीं चीन्हा॥ अभी इठ तन छोड सुमति संग वह उगिनी है अधिकारी | मेरे रंग राचो हर्षधर भोगो शिव सुन्दरि प्यारी ।। ७ ॥ तव चेतन वच काहे गर्मि मैं अभी मोह का नाश करों । प्राभि पान न कर तू तुझे उसकी आम से निरास करों । वंश मोह का जारिबरों शिवनारि मुक्ति पुर वासकरों । नित्यानन्द पूर्ण विरानों फिर ने यहां की श्राश करों ॥ नाथूराम जिन भक्त मुमति प्राशक्त भये लख शुभवारी । जो शिव रगणी की सहेली नासम और नहीं नारी ॥ ८ ॥
___ शाखी * कनफटा शिरजटा धार काई लपेट खेदजी ! कोई भद्र शिर कोई वस्त्र भगवां पहिन ढाकें देहनी ॥ तिनको विरागी दावाजी कह पूजे जगकर नेहनी । पर भेद बाबाजी का क्या है यह पड़ा संदेहनी ॥
दौड़ जिन्हें शट कहेत वा बाजी । सदा वे रहने या वानी ॥ वस्त्र धन जोड़ें हो राजी । कोई सेव कुशील क्या जी ॥ नाथूराम कहै सुनो दे शान । भेद वा पानी का घर ध्यान जी ॥
वा बाजी की लावनी २३॥ ।
वा वाजी जो बनते हो वा बाजी जाय मुकाम करो । वा वानी को जान
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२४
ज्ञानानन्दरत्नाकर। वा बाजी केसे काम करो ॥ टेक ।। वा वानी का भेद न जाना नाम धराया वा बाजी । भस्म अंग में लगा शिर भद्र कराया बाबाजी ॥ वा बाजी किस को कहते क्यों नाम कहाया बावाजी । वा बानी के कहो लक्षण तन माया बाबाजी ।।
* शेर* कहा बैराग होता है किसे कहते है वैरागी । कहो वैराग के लक्षण कहाली आपकी लागी ॥ किसे पंचाग्नि कहते हैं जलाई किस लिये श्रागी | क्षमा संतोष तप क्या है किसे कहते है कहरागी !! वा वानी का भेद बता तव वावाजी विश्राम करो । वाबाजी को जान वाबाजी कसे कामझरो ॥ १ ॥ तुमतो न्वा कुछ नहीं दिया अब मैही हाल बतलाऊं सुनो | सवाल जो जो किये मैं उनका भेद सव गाऊं सुनो । वाजी तर्फ को कहते हैं सो दो प्रकार दरशाऊं सुनो । जो गृहवासी उन्हें या बाजी में समझाऊं सुनो ।
॥शेर __ करें जो प्रीति तन धन से रखें पशु बस्त्र असवारी । यगावे दास औरों को प्रगट चे जीव संसारी ॥ क्रोध छल लोभ मद ममता भये यश काम के भारी। ऐसे सब जीव या बाजी सुनों घर कान नरनारी ॥ ऐस ढोंगी साधु बने मत तिनको भुल प्रणाम करो। वाचाजी को जान वाचाजी केसे काम करो ॥२॥ गृह कुटुम्ब धन धान्य सवारी वस्त्रादिक से नेह तजे । क्रोध मान इन लोम ममता को त्याग प्रभु नाम भजे ॥ क्षमाशील संताप सत्य रच हृदय घार वैराग सजें । सई परीपह विविध तपधार देख रिपु काम लजें ॥
करें वशपंच इंद्रिन को यही पंचाग्नि का तपना | धरै निज ध्यान प्रात्म का जगत मुख जानके सपना ॥ वनस्पति आदि जीवो पर दया परणाम रख अ पना | कारें रखासदा तिनकी हृदय प्रभु नामको नपना ॥ ऐसे साधु वा वाजी है तिनकी सेवा बसु याम करो। वा बाजी को जान वा बाजी केसे कामकरो ॥३॥
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ज्ञानानन्दरत्नाकर . ग्रीम गिरि शिखर धेरै तप परपा में तस्नल आहे । नदी सरोवर सिन्यु तटरें ध्यान जबर जाई ॥ दशो दिशा में नस्ल जिन्हों के नग्नरूप आसन गाहे । निज मानम से लगाला रागंद्रग दोनों छाहे ॥
*शेर * श्रम भोगन कई दिनों को सौभी मिले अनि शुद्ध । अल्प निद्रा लहै निशिगना कम से करने युद्ध | सुने दुचन निज निन्दा तौभी ना होय किंचित द्ध । मिन भरि काच कंचन राम गिन मन बचा तनवर बुद्ध ॥ सदा नांची वन चापी रूपरण प्रात्य रामगं । वा बाजी को जान वा बाजी क में काम यो ॥ ४ ॥ मग विमन म प्राठ गप्पय त्याग चार कियान कोई । और नोमी पपके मन जान स्वप्ने गलहे || पशुपक्षी अरि दुष्ट हम यसकादिक की वेदा मई । न आने धान में रन सदा बगुयाम रहे ।।
शेर। साग मंया से छोटा जगी बरगी बहलाया । तनी या पानी की समत नमी वा बानी पदपाया ॥ यावानी नाग का नयको खुलाशा मंद बतलाया। उचिी या जान के गाना ढोग इनिगांग मग बाया । जान बम बोकर चूत क्यों खानकी इच्चा पापको वा काजी मोबान या बानी के से काम करो
||मी को चिन यही के सगकर क्षीण कर काया | गिना स्वाद के अल्प साहार हय व माया | अन्तियग में साधु बने अरु भोजन खाई मनमाया बदन नमाने पुष्ट शठ इमी लिंग शिग्गुटाया ॥
शर। करें संतुष्ट इंद्रिन को सदा में कुशीन जुकाम । सने शृगार सब तनो रिझायें दुष्ट परी भाग | यो अति भक्त नागों में जप माला म. मुग्राम । हृत्य में राग नानाने विषय गुम्वा गगन वस पाप । निन स्वार्थ के काम को लोगों से मुख से नाप को। वाचानी को जान पायानी के से कार को ६ | रान खाऊ निनन निम मिहना ना गुग नागहों । मुड मुडा उदर धरने का ऐगे काम
मी यन कुशीन्त सन शोई व्याह कर गकरें । सायु कहा तिन्ह शठ झमरुक पांच प्राणामदार ॥
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ज्ञानानन्दरत्नाकर
शेर। वने जो नाव पत्थर की प्राप गझधार बोरन को। कहो केमे उतारेंगे भवोदधि पार औरन को ॥ पियें गांना चर्स हरदम वैठारे जार चोरन को। कहो किसशस्त्र से सकते ये पाप पहाड फोरन को ॥ इन्हे भजे यह फल पैहो जो दुर्गति अपना धामकरो । बाबानी को जान वाबाजाके से काम करो ॥ ७॥ या पानी शारु वा वानी दोनों के प्रगटकहे लक्षण । उचित यही के परीक्षा करो देखकर मिन अक्षन ।। या घाजी वे ढोंगी साधु हैं जो अभक्ष करते भक्षण । वापानी वे साधु हैं जो सब जीवों के रक्षण ||
शेर। शहद मद्य मांस विष माखन जलेबी गारि वड ऊमर । अथाना कन्द मल भटा चलत रस तुच्छ फल कटहर ! अजानें फलरुबहु बीना कठूमर पीपलरूपाफर । निशा भोजन अगाला जल इन्हे तजये अभक्ष हैं नर ।। इन्हें तमें सो बाबाजी सिन की स्तुति नाथूराम करो । या वानी को जान वाबानी केसे कागकरो ॥ ८ ॥
शारखी। प्रथम नमो अरिहंत हरे जिन चारि घाति विधि | बसु षिधि हर्ता सिद्ध नमों देंयनष्ट ऋद्धि सिधि ॥ नमों सूर गुणपुर नमों उवझाय सदाणी । नमों साधुगुण गाध व्याधि ना होय कदानी ।।
दौड़। पंच पद येही मुक्ति के मुन्न । जपो जैनी मतजावो भूल || नाम इनके से शेशहो फूल । करें निंदा तिनके शिरधूल । नाथूराम यही पंच नवकार | कंठघर तरो भ.. चादधि पाजी॥
पंच नमोकारकी २४॥
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------ णमोकार के पांचो पद पैतिम अक्षर जो कंठ धरें । मुरनर के सुख भोग चस् ।
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ज्ञानानन्दरत्नाकर |
१७
अरि हरके भवसिंधु त ॥ टेक ॥ प्रथम रामो अरिहंताणं पद सप्ताक्षर का सुन विषय | अरिहंतन को हमारा नमस्कार हो यह शाशय ॥ शरिहंत तिनको क जिन्होंने चार घाति विधि कीने तय । जिन घाणी का किया उद्योत हरण भाव जन की भय ॥
शेर ।
जिन्हों के ज्ञान में युगपन पदार्थ त्रिजग के झलके । चराचर सूक्ष्म थरु वादर रहे बाकी न गुरु हन्के ॥ भविष्य भूत जोवर्ते समयज्ञाता घटी पलके । अनंतानन्त' दशन ज्ञान अरुवारी हैं सख बलके । तीन छत्रशिर फिरें दुरें वसुवर्ग चगरसुरभक्ति करें। सुरनर के सुख मांग वसुरि हरके भव विधुतरं ॥ १ ॥ द्वितिय मो मिद्धा पदके पंचाक्षर भो सार कहे। सिद्धों के से हमारा नमस्कारको अर्थ य ॥ स्त्रिद्ध चुके करकाम सिद्ध विन नाम तिष्टि शिवधाम रहे। कर्म को नाशकर ज्ञानार्दिक गुण थालदे |
॥ शेर ॥
घरं दिसा जो तीर्थकर जिन्हीं के नामको भजकर करें हैं नाश वसु अरि -का सवल चारित्र दल मजकर ॥ नवों में नाथ ऐसे को सदाही घट गद तजकर | सुफल मस्तक हुआ मेरा प्रभु के चरणों की रजकर । लेत सिद्धा नाम सिद्धि हो काम विघ्न सब दूर करें || २ || तृतिय गो श्राइरिश्रापद मातर का भेद सुनो। जिसके सुनते दूर हो भव भव के खेद सुनों ।। आचार्यन को नमस्कार हो यह जनकी उम्मेद सुनो। करों निर्जरा बन्दनकर के अत्र का छेद सुनो ॥
॥ शेर ॥
पुग्यों में जो शिरोमणि हैं यती छत्तीस गुणधारी करें निज शिष्य श्रग्न को कई चरित्र विधि सारी || प्रायश्चित लय मुनि जिन से गुरू निजजान हितकारी । हरें वसु दुष्ट कर्मों को बरे भव त्याग शिवनारी || ऐसे मुनिवर सूर घरं तप भूर कर्मों का चूर करें |सुर नरके सुख भोग बसु थरि हरके भवसिंधृतरें || ३ || सूर्यणो उवझायाणं पद सप्ताक्षर का सार कहूं । उपाध्याय के त
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ज्ञानानन्दरत्नाकर । हो नमस्कार हरिवार कहू || आप पढ़ें और को पढावें अध्याय विस्तार कहूं । ऐसे मुनिवर कहावे उवज्झाप जगनार कहूं॥
पच अस्वीस गुणधारी यती उपाय सो जानो । यहा भट मोह को क्षण में परिगृह त्याग के हानो ॥ सप्त भय अष्ट मद बज कर करे तप चोर सूरानी ।। लहै वाइस परीपह को अचल पाणाप गिरि मानो । शुक्ल ध्यान धर कर्म नाश कर एसे मुनि शिवनारिचरें ।। सुर नरके सुख भोग बमु अरि हरके भव सिंधुतरें ॥ ४ ॥ णमोलोए सव्यसाहूंण पंचम पदके ये नववर्ण | नमस्कार हो लोकके सब साधुन के बन्दों चर्ण ॥ साधे तप तज भोग जान भव रोग सो तारण तर्ण | अष्टाविंशति मूल गुण के धारी मुनि राखो शर्य ।।
॥ शर।। सार ये पचपरमेष्टी भक्ति इनकी सदा पाऊ | न हो क्षण एकभी अंतर जब तलक मुक्ति ना जाऊं । मिले सत्संग वर्मिण का सवों के चित्त में भाजा जपो बसुयाम पद पांचो भावधर हर्ष से माऊ ॥ नादार शिवधामवमान को नमोकार अहि निशि उ चरें । सुर नर के सुख भोग वसु अरि हरके भव सिंधु तरें ॥ ५ ॥
-- ॥ विष्णु कुमार चरित्र॥
AGE
शाखी॥ विष्णु कुमार चरित्र मुनो सब कान लगाई । जिन वलिका अभिमान हरा गजपुर जाई ॥ विक्रिया ऋद्धि प्रभाव देह लघु दीर्घ वनाई । मुनि गण का उपसर्ग हरा कीर्ति जगछाई ॥
. दौड़ जिसे कदते हिंदू नरनार ! धरा ईश्वर वावन अवतार ॥ छलन वलिको
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ज्ञानानन्दरत्नाकर।
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आये कत्ती । उतारन इष्ट शिष्ट का भार । नाथूराम रहै मुनो मई । सुनत सबसंशय मिट जाईजी ।।
॥ लावनी २५॥
विष्णु कुमार चरित्र अनुपप निग वनिशा अभिमान हरा | ऋपि रक्षाको विक्रिया ऋद्ध से य.चन रूपधा | टेक पालव दंश उज्जयनी नारी श्री वर्मा तह का भुपाल । निमके मंत्री चार दिन महा अहंकारी मनुव्याल ! प. हिला इलि पुन नमुचि वृहस्पति अरुपहलाद महा भदबाल । विहार करते तहां मुनि सात शनक आये गुण माल ।। महा मुनीश अकंपन तिनां प्राचार्य सुज्ञान ग्वरा | ऋपि रक्षा को विक्रिया ऋद्धि मे बावनरूप धरा ॥ १ ॥ अवधि ज्ञान निचार कंपन शिष्यों को अदिश दिया । पुर बामिन से न कीजो बाद सभी सन मौन लिया || परचा सागर गुरु याज्ञा के प्रथमही नग्र प्रवेश किया पारण कारण गया मुनि नगरी में आहाराविरिया ॥ इबर नगर जन सुन मुनि
आगम चन्दन का उत्साह करा | ऋपि रक्षा को मिक्रिया ऋद्धि से वादनला घरा ॥ २ उत्सव सहित नगर जन जाने देख नृपति पूछी एसकर | कहिए मंत्री कहां ये जांय महोत्सव से सजकर ॥ बोला चलि वन वीच दिगम्बर मुनि पूजन जाते चलकर । तत्र नृप मंत्री साथ ले पूजन धाया आनंदकर ।। द्रव्यभाव युत पने मुनिवर बहुत सुयश मुख से उचा। ऋपि रक्षाको विक्रिया ऋद्धिसं बावनरूप धारा ॥ ३ ॥ वारवार नृप को धन्य मुनि ध्यानारूढ दिगम्बर ये। जिन दही से सदा निस्नेह करें तप दुद्धा ये ॥ तृणकंचन रिपु पित्र गिने सम महै परीषद तप कर ये । राम द्वैष अरु मोह तज वीतराग तिवरये ॥ करें चितवन निज प्रातम का मैटन जन्मन मरण जरा | ऋषि रक्षाको विक्रिया ऋद्धिसे बावन रूप धरा ॥ ५॥ मौन घर बेठे सब मुनिवर काहू न मुनिको दई अशीम । तब हंसकर मंत्री कही यहां से गृहको चलिये अविनीश ।। ये शल धारे ढोंग वृधा सहते है क्लेश तनबने मुनीश । भेद न जाने कहा तप होय सत्य जानों धरनीश || करत भये निदा सबमुनि की मत्री द्वैपयोगमा ऋपि रक्षा को विक्रया ऋद्वि मे बाबा रूप धरा ॥ ५ ॥ बहु विधि स्तुतिकर नृप लौटा
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ज्ञानानन्दरत्नाकर । मार्ग में मुनिचा सागर । धावत छेड़ा नगर से बाद किया मंत्रित पदधर ।। हार गये चारों द्विज मुनिसे गान गलतही आये घर । कुन सागर भी निकट आचार्य के पहुंचा जाकर ।। नएस्कार कर लसुनाया मार्ग में गुरु को सगरा ऋषि रक्षाको विक्रिया ऋद्धि से पावन कर घरा ॥ ६ ॥ सुनत बचन गुरु कही उपद्रव का कारण तुमने कीना । इससे आप तप बाद स्थान धरा तप तो जीना ॥ तच श्रुमागर गुरु श्राजाले निशि में ध्यान तहां दीना । चारों मंत्री दुष्टता धार चने अमि ले हीना ॥ श्रुन सागर को देखन बोले यही शत्रु मुनि हमरा । ऋषि रक्षा को विक्रिया रिद्धि मे बावन रूप धरा ॥ ७ ॥ बोलावलि चारों मित एकही बार हनो या के तलवार । बाट बाावर लगे हत्या ऐसा खल किया विचार ॥ खड्ग उभारत कीले नगर रक्षक सुरने चारों अयकार प्रभात पुरजन देख खल मत्रिन को भाषी विकार || तव नृपने काला कराय मुख खरचनाय दीना निकरा । ऋ प रक्षाको विक्रिया रिद्धि से वावन रूपरा ८ ॥ थान भ्रष्ट हो चारोंभ्रमने हस्त नागपुर पहुचे चल | महा पद्म तृप उभय सुनयुन चक्री राजे अति मल ॥ छोटा विष्णु कुमार पद्म रथ गुरु सुत्त दोनो महा विमल । नृप तपधारा विष्णु मृत सहित लई दिक्षा निर्मल ।। करे पद्मस्थ राज तहा चारी मंत्री पद जाय वरा । ऋप रक्षा को बिक्रिया रिद्धि से वावन रूप धरा ॥ ९ ॥ दुर्वन्न देख पगरथ को बलि चोला तुम्हें कहा खटका । कैसे दुरल भये महराज कहो कारण घटका ।। हमसे मत्र पाय जगति में कौन कार्य ऐसा मटका । भेद बताओ नाथजी क्यों खाया ऐमा झटका || कही भूप हरिवन नृप आज्ञा भगकरें सेवक मगरा । ऋषि रक्षाको विक्रिया रिद्धिसे बावन , रूपयरा ॥ १० ॥ नृप प्राज्ञा बतिपाय सेन ले लाया वांध कर हरि वलको । देख पद्मस्य कही होकर प्रसन्न मागों वलको । जो मांगो सो लेहु अभी तुम लाये पकड़ चैरी खलको । तबबलि बोला वचन भंडार र अटके पलको सनय पाय प्रभु यांचना करहों जबजानों कार्य अवरा । ऋषि रक्षाको वि क्रिपारिद्धि से व.वन रूप धरा ॥ ११ ॥ स्वीकार वचकर नृप बोला बहुत मली लीजो वही । वहा कुछ दिनों अकंपन सहित ऋपी आये सवही ।। चारों द्विर्ग अति र बिचारा मनि आये जाने जवही । तब वलि वोलासात दिन राज नृपत्ति दीजे अबही ॥ इमें काम अब प्रति आवश्यक मात दिवस
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। को थायरा पि रनाको विक्रिया रिद्धिमे बावन रूप धरा ॥ १२ ॥ करके संकलर राज्य दिगा नृप भाप रहा बाकर रनियास । तप नृप पनि ने रवीनर मेध यज्ञ करने मुनि नाश ॥ हाद मांस पल रोपादिक अपवित्रपदार्य महा कुनाम । चागे भोरमे नलाये मुनि के धुम्रा छायो आकाश || देनलगा नाना विधि दाख मुनि को कैप सहित अति क्रोधभरा । ऋषि रक्षाको त्रिक्रिया कि से नारन रूपधर ॥ १३ ॥ मियित्नापरी के वनमें मुनिवर सार चन्द्रधारें ये ध्यान | अवण नक्षगर देख कंपित मनि अवधि विचारा ज्ञान || हाहामुनि गण जप्टमी पनि यो गरु बनन कहे दाखजान । कुछ अन्तर से सुने सो पुष्पदंग चल्नक निज कान || बोलागुरुने कहा किसको उपसर्ग होय किन दुष्ट करा । अपि रक्षाको विक्रिया रिद्धि में पावन रूपधरा ॥ १४ ॥ बोले गरु प्राचार्य पपन मिन के वान शन पुनियर संग । सहें परीपह हस्तिनापुर
म में वलिकर निन अंग ॥ पुष्पदंत तब कहीं शनि कछहो उपाय कहिये inमंग । नव गुरु माने तपही संपर गामी खगपति वरढंग ॥ विष्ण कुमार सुभाश गिरिगर उपजीविया दिवरा । ऋषि रक्षाको विक्रिया रिद्धिसे पाचन माग ॥ १५ ॥ समर्थ उपसर्ग निवारण पप्पदन्त मुनगया तुरन्त नमसार कर सुनाये ममाचार विधिसे गुणवन्त ॥ पर्खन को मनि शंहपसारी गिग समुद्र में शिक्षा संत । तब मुनि पहुंचे हस्तिनापुर में पद्मरय के तटसन काही पाचनति के तू उपना घरे वापीश्वरा । ऋपि रक्षाको विक्रिया गिहिये पावन पधरा ॥ १६ ॥ हाथ जोड़ तबकही पद्गस्य कार्य नहीं यह में पीना । वचन द्वारके सान दिन राज इष्ट पलिको दीना ॥ ता खलने नर मेष रची यह हा निवास निज गृहलीना । बम मनियरने घरा पावन स्वरूप द्विज अविना ! पदन घेद धनि पहुंचे चलितट मांगीनि गतीन धरा ।
शापि माको विक्रिया रिद्धिमे वाचन रूपवरा ॥ १७ ॥ वोला बलि मांगो गनाशविन नच्छ यांचना क्या करते । द्विज संतोपी कही इच्छा न अधिक म व ॥ तब त जनमे किया संकल्प द्विज करपर अपने करते । त्रय दग पृथी दइ मनुष्ट कहा मुख द्विज बरते ॥ तत्र मनि दीर्घ शरीर बदाया देखत बाल मन मृद सा । ऋपि रक्षाको विक्रिया रिद्धि से वायन रूपधरा ॥ १८ ॥ आपण नदि पुनी नक्षत्र शम श्रवण मान वलिका मारा । पहिला पदले मेरुसे
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ज्ञानानन्दरत्नाकर । मानुष्योत्तर परधारा । दजे में प्रकाश नाप तीज को बचन बलिपर सारा । अष नृप दीजे और पृथ्वी जो वचन मुख से हारा ॥ बोला बलि मो शीस भगे पद सब खल का अभियान मरा । ऋषि रक्षाको विनिया रिद्धिमे चावन रूपधग ।। १९धरा पांव चलिके शिर जन मुनितव विधन अतिखाईभय । हाथ जोड़ बकरी स्तुति मुखसे भाषी जयजय ।। नारद और सुरामुर स्तुति करन लगे प्राके तिशय । हे करुणा निधि करो रचादी प्रभुदान अभय || तव मुनि पांव उठाय लिया पद नवत यये द्विज सुरायुग । ऋपि रक्षाको विक्रिया गिद्धो दावन रूप घरा ॥ २० ॥ यज्ञनाश मनि सर्व वचाये रक्षा कीनी विष्णु कुमार । नत्र से प्रचलित भई रक्षा बन्धन पूनों यह सार ।। फटें मन्यों के कठ धुमां से ली. लतरंच न बने खखार ॥ तब पुर वासिन बना सिमपन का दीना नर्म प्रहार तब से यह पानन दिन गाना रक्षाबन्धन सर्व नरा | ऋपि रक्षाको विक्रिया सिद्ध से पावन रूप धरा ॥ २१ ॥ चारो हिन भास्क ब्रत लीने विष्णु कुमार पप गुरुपर | फिर कर दिक्षा लई क्षदोपल्यापन की विधिकर ॥ विक्रिया रिद्धि से विष्णु कुमार ने रूप धराया अति लघर । ताको बहुजन को पावन अवतार लिया ईश्वर ॥ नाथूराम जिन भक सत्य यों और भांति कहते लबरा | ऋपि रक्षाको विक्रिया रिद्धि से बावन रूप धरा ॥ २२
शाखी परम ब्रह्म स्वरूप तिहं जग भूपहो जग तारजी । महिमा अनन्त गणेश शेश सुरेश लहत न पारजी ॥ मै दास तेरा चरण पेरा हरो मेरा मारनी । जिन भक्त नाथूराम को जन जान पार उतारनी ॥
॥दौड़। प्रयू मै शरण लिया याग । जन्म गद मरण हरो म्हारा ॥ प्रभू मै सहा दुःख भारा । किमी से टरा नहीं हारा । विरद सुन नाथूराम जिन भक्त । भजन थारे में हुए आशक्त जी ॥
तीर्थकरके गुणों की लावनी २६ । छालिस गुण युत दोष अठारह रहित देव अंहत नमों । त्रिभुवन ईश्वर
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। जिनेश्वर परमेश्वर भगवन्त नमो | टेक ॥ रहित पसेव देर मल वजित श्वेन रुधिर अति सुन्दर तन | प्रथम संहनन प्रथम स्थान सुगधित तन भगवन ॥ प्रिय हित वचन अतुल बल सोई एक सहस्त्र पसुतन लक्षण । ये दश अतिशय कहे जन्मत मभुके सुनिये पविजनापति श्रुति अवधि ज्ञानयुत जन्मत सुर नरादि ध्यावन्त नग । त्रिभुवन ईश्वर जिनेश्वर परमेश्वर भगवन्त नौ ॥ १ ॥ दो सो योजन काल पड़ना करें प्रभूनी गंगणगयन । चौमुख दरग सर्व विद्या हो ना प्राण वचन | वर ऐश्वर्य न कच नख बढ़ते नहीं लागे टाकार न. यन । तनकी छाया न पहती नहीं कवला शाहार ग्रहण ॥ केवल ज्ञानभये दश अतिशय ये प्रभु के राजत नौ । त्रिभुवन ईश्वर जिनेश्वर परमेश्वर म. गवन्त नयाँ ॥ २ ॥ सकल भर्थ मय मागधी भापा जाति विरोध तजा नी. वन । पट ऋतु के फल पुष्प तिनकर शोभित अति सुन्दर वन ॥ पुष्प वृष्टि गन्धोदक वर्षा वागे मन्द सुगन्ध पवन | जय जय होते शब्द मेदिनी विराणे ज्यों दर्पण | रचे कमल सुर पद तल प्रभु के सर्व जीव हर्षन्तनमा । त्रिभुवन ईश्वर शिवा परमेश्वर भगवन्त नमो ॥ ३॥ विमल दिशा आकाश बिना कंटक भचना कीनी देवन । मगल द्रव्य पाठ जप चक प्रगाड़ी चले गगण ये चौदह देवन कृत अतिशय सुनो चतुष्टय अनदे मन । अनन्त दर्शन ज्ञान मुख बल प्रभु के राजे शुचिधन ।। ऐसे गुण भण्डार विराजत शिव रमणी के कन्त नमो । त्रिभुान ईश्वर जिनेश्वर परमेश्वर भगवन नमः ॥ ४ ॥ तरु म शोक मागंडल गोडे तीन छत्र अरु सिंहासन । चमर दिव्य ध्वनि पुष्प वपारु दुंदुभी नम बाजन ।। प्राति हार्य ये आठ सर्व चालिस गुण जिनवर के पावन । जो भविषार नितप्ती न करें भव में पावन ॥ ऐसे श्री अति जिनके गुण गान करत नित संतनों । त्रिभुवन ईश्वर जिनेश्वर परमेश्वर भगवन्ननमो ॥५॥ क्षुधा तृपा भय राग द्वैप विस्मय निद्रा मद अगुहावन । भारनि चिना शोक गद स्वेद खेद जरा जन्म मरण । मोह अठारह दोष रहित ऐसे जिनवा पद करों नवन । त्रिभुवन त्राता विधाता घाति का जिन डाले हन । नाथूराम निश्चय अनंव गुण समरत अघ भाजत नमो । त्रिभुवन ईश्वर जिनेश्वर पर मेश्वर भगवत नौ ॥६॥ ॥हितोपदेशी २७॥
जगमणि नर भव पाय सयाने निज सुरूप ध्याना चहिये । जबतक शिव
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। ना तब तलक नित निज गुण गाना चहिये ॥ टेक ॥ आर्य क्षेत्र भानक कुल लहि वृथा न बिहकाना चहिये । जप तप मंयम ने रिन नहीं काल जाना चहिये ॥ भूमे दीर्घ संमार न पाया पार चिंत लाना चहिये । पुरुषा थं को को क्यों कायर वन जाना चाहिये ॥ बार वार फिर मिले न अवसर यह शिक्षा माना चहिये । जब तक शिव ना तब तलक निन जिन गुण गाना चहिये ॥ १ ॥ आप करो परणाम शुद्ध औग के कावाना चहिये । सदाधर्म में रहो लवलीन न विमगना चहिये | धर्म समान मित्र ना जग में यह उर में लाना चरिये । यघ मम रिपु ना ताहि निज अग न परसाना चहिये ।। पर दुश्व देख सोमत मनग क्षमा भान ठाना चाहिये । जर तक शिवना नव नलक नित जिन गुण गाना चाहिये ॥ २ ॥ साधलाख हर्ष को उर म. लिन माव हाना चहिये । अंग हीन को देख कर भून न खिजवाना चाहिये । निज पाको पहिचान करों इम में होना दाना चहिये । उसी ज्ञान विन भूमे चिा अब निज पहिचाना चाहिये । दुःखी दन्द्रिी को दुःख देकर कभी न क ल्पाना चाहिये । जब तक शिव ना तब तलक नित जिन गुण गाना चाहिये। ३ ॥ गुण वृद्धो की विनय करो नित मान विटप दाना चहिये । पर विभनि को देख मन कभी न ललचाना चहिये । मिथ्या रचन कहो मत छल से सकन का खाना चहिये । अमक्ष भक्षण तो चित शील में निज माना चहिये ।। नाथूराम निज शक्ति प्रगट कर बनना शिवगना चहिये । जब तक शिव ना तब तलक नित जिन गुण गाना चहिये ॥ ४ ॥
॥ दूसरा हितोपदेश २८॥
प्रभ गुण गानवरो निशि बासर आलस लाना ना चहिये । करण विषय के स्वाद में चित्त पगाना ना चहिये ॥ टेक || नर तन चिन्तामणि पाके यह वृथा गमाना ना चहिये । नान बूझ के गोते भवोदधि में खाना ना चहिये ॥ उत्तम श्रावक कुल पाके फिर अभक्ष पाना ना चाहिये । लोक निंद्य जो नशे तिन चिन साना ना चाहिये । कुविशन त्यागलाग निन पथसे शीख भुलाना ना चहिये । करण विषप के स्वाद में चित्त पगाना ना चहिये ॥ १ ॥ हठ
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। कर बात कहै ताते फिर विवाद ठाना ना चाहिये । अनर्थ कारण खेम नी रिहलाना ना चाहिये । हित उपदेश सुनेना उससे मगज पचाना ना चरिये । भाभिमानी के पास क्षण एक मी नाना ना चहिये । गित्र ला. नची होय उसे निज वस्तु दिखाना ना चहिये । करण विषय के स्वाद में चित्त पगाना ना चाहिये ।। २।। धर्म द्रोह अन्याय तह निज पास पसाना ना चाहिये । दुष्ट मनुन से कभी स्नेह बढ़ाना ना चाहिये ।। सुकून कमाई करो देख परधन ललचाना ना चहिये । परमाप में दूव्य खर्चतं अलसाना ना चाहिये । इष्ट वियोग अनिष्ट योग लख चित्त चलाना ना चाहिये । करण विषय के स्वाद में चित्त पगाना ना चहिये ॥ ३॥ विद्या विसन विना निशि पासर काल पिताना ना चहिये । भये उपस्थित भापदा फिर घबराना ना चाहिये ।। कगुरु कुदेव कवर्ग इन निज शीश नवाना ना चहिये । दुखी द. रिट्री दीन को कभी सताना ना चहिये ।। नायराम गिन भक्त धर्म में शक्ति छिपाना ना चहिये । करण विषय के स्वाद में चित्त पगाना ना चहिय।। ४ ।।
॥सिदगुण २९॥
माख गोचर अविनाशी मत्र सिद्ध करात शिस थान में हैं । सर्व विश्व के वय पनि भारत जिनके ज्ञान में हैं || टेक || ज्ञानावरणी नाश अ. जन्ती ज्ञान कला भगवान में है । नाश दाशनावरण सब देखें ज्ञेय जहान में ॥ नाश गोहनी लायक सम्यक युत दृढ निम श्रद्धाण में है। अन्नराय का नाश बल भनन्त युत निर्माण में हैं | श्रायु कर्म के नाश भये हैं अचल सिद्ध स्थान है। सर्व विश्व के ज्ञेय प्रति भासत जिनके ज्ञान में ॥१॥ नाम कर्म हनि भये अमूर्तियन्त लीन निज ध्यान में हैं । गोन कम हन अगुरू मधु रानत थिर असमान में है || नाश वेदनी भये अवा थित रूप मग्न मुवतान में हैं । अपार गुण के पुंज अर्हन्तन की पहिचान में है। श्राजर अमर अव्यय पदधारी सिद्ध सिद्ध के म्यान में है। सर्व विश्व के नेय प्रति भासत जिनके ज्ञान में है ॥२ ॥ अक्षय अभए आखल
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। गुण मंडित भाषे वेद पुराण में है । देह नेह विन भटल अविचल श्राकार पुमान में है ॥ सर्व ज्ञेय प्रति भासत ऐसे ज्यों दर्पण दान में हैं । ज्ञान रस्मि के पुंज ज्यों किरणे भानु विमान में है ॥ गुण पर्याय सहित युग पत द्रव्ये जानत आसान में है। सर्व विश्व के ज्ञेय प्रति भासत जिन के ज्ञान में है ॥ ३ ॥ तीर्थकर गुण वर्णत जिनके जो प्रधान पतिमान में हैं। छद्मस्थन में न ऐसे गुण काहू पदयान में है ।। गुण अनन्त के धाम नहीं गुण ऐसे और महान में हैं । धन्य पुरुष वे जो ऐसे घारत गुण निज कान में हैं ॥ नाथूराम जिन भक्त शक्ति सम रहैं लीन गुणगान में है । सर्व विश्व के ज्ञेय प्रति भासत जिन के ज्ञान में हैं ॥ ४ ॥
॥ चन्द्रगुप्तके सोलह स्वप्न ३०॥
सोनह स्वप्न बखे पिछली निशि चन्द्र गुप्ति नृप अचरज कार | भद्रबाहु ने कहे तिनके फल सो वर्तते अबार | टेक ॥ सुर द्रुप शाखा भंग लखा सो क्षत्री मुनि बून नहीं धरें। अस्त भानु से अंग द्वादश पनि ना अभ्यास करें । सुर विमान लौटत देखे चारण मुर खग यांना विचरें । बारह फन के सर्प से बारह वर्ष अकाल परें । सचिदू शशि से गिनमत में बहु भेद होय ना फेर लगार | भद्रबाहु ने कहे तिनके फल सो वर्तते अवार ॥ १॥ करि कारे युग लड़त लखे सो वांछित ना बर्षे जलधार । अगिया चमकत लखा जिन धर्म महात्म्य रहै लघुनर ॥ सूखा सर दक्षिण दिशि तिस में आया किचित नीर नजर । तीर्थ क्षेत्र से उठे वृष दक्षिण में रहसी कुछ घर ॥ गजपर कपि बारूद लखा कुल हीन नृपों का हो अधिकार । भदूवाहु ने कहे तिनके फल सो वर्तते प्रवार ||२|| हेम थाल में स्त्रान खीर खाता सो श्री गृह नचि है नृप सुत उष्ट्रारूद सो मिथ्यागार्ग भूप बहै । विगशित पालखा कूड़े में जैन धर्म कुल वैश्य गहै । सागर सीमा तजी सो भूपतिपय अनीति ल है ॥.रथमें बच्छे जुते सो बालकपन में धार व्रतका भार । भद्रबाहुने कहे तिनके फल मो वर्तवे अवार ॥ ३ ॥ रत्न राशि रजसे मैली सो यती परस्पर हो झगड़ा । भूत ना
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शानानन्दरत्नाकर चते लखे सो कुदेव पूजन होय बड़ा।। इतनी सुन नृप चन्द्रगुप्त ने सुत सिहा सन दिया पड़ा । आप दिगम्बर मया गुरु संग लगा तप करनकड़ा ॥ नायूराम जिनभक्त कहे सोना स्वप्नफल श्रुत अनुसार । भद्रबाहु ने कहे तिनके फन्न सो वर्तते पवार ||४||
॥पतीवता सतीकी लावनी ३१॥
मनाचकाय लीन निजपति से है सुशीला वहे सती । सुरनर जिनको जर्ने गुण गावे वेद पुराण यती ॥ टेक ॥ तात भात सुतसम औरों को लखे भवस्था के अनुसार । नेम धर्म में रहे लवलीन वही कुलवन्ती नार ॥ पति भाज्ञा मनुसार चने निवजन्म उनी का नगर्ने सार । विपत पड़े भी विमुख नाय सदा सेवे भरतार ॥ छाया सम ना तने साथ हिरदय में विराजेसदा पती । सुरनर जिसको जर्ने गुण गावे वेद पुगण यती ॥ १ ॥ नियत सदा पति के पद से स्वप्ने भी ना करे उजर । प्रबल पुरपसे मरे जो आप प्रया गति जाय सुघर ॥ भो कदाचिपति मरे प्रथमतो संयम शुद्धमजा के सर । ध्यान भग्निमें दहै काया कलंक ना लावे हर | त्रिभुवन में हो पूजनीक वह पारे बेसक स्वर्ग गती । सुरनर जिसको जजे गुणगायें वेद पुराण यती २ ॥ तृण लकड़ी की पायक में ममता वश देश जलाती है । मूढजनों की समझ में वही सती कहलाती हैं । कर अपघान मरे जलसो निश्चय दुर्गति को जाती हैं । नामवरी को जले पहिले फिर प्रण छिपाती हैं । जो तपकर तन जनावती सती वेही ना फेररती । मुरनर जिसको जगे गुणगावें वेद पुगए यती ॥ ३ ॥ ब्रह्मी सुन्दरी सुलोचना अंजना जानकी सुनाई । और वि शल्या मुभद्र। मनोरमा पागम गाई ॥ द्रोपदी चन्दना और चौविम जिर माता सुखदाई।इन्हें मादिदे सती बहु जिन कीति जगमें छाई । नेमार जिया सी नारी कही सुशीला राजमती । सुरनरनिसको ज में गुणगावे वंदपुराण यती ४ ॥वारे पन में करेंतपस्या ब्रह्मचर्य सेव तजकाम । परम सतीसो कहावे पूजनीक नग जो नाम | पतीव्रता दूसरी सनी जो निज पतिराचे व मधाम || दो प्रकार की सती ये करी जगति में नाथूगम ॥ जो एम लक्षण युत नारी पूछ
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ज्ञानानन्दरत्नाकर नक सो शीलवती । मुरनर जिसको जजे गुणगावें वेद पुराण यती ॥ ५ ॥ ।। मतवारों का मतवारापन हरने को लावनी ३२॥
गिज हितका नहीं विचार जिनको पिथ्या विषादकरें। निन निनमत में मत्तम गतबारे पकवाद करें ।। टेक || मतवारा पन लगा जहांत कैसेवर्वे न्याय विवेक | पक्षपात में लीन हो वृथा मलाप करें गहिटेक ॥ कोई कहै मेरा मतसच्चा कोई कर मेरासत एक । अपनी अपनी में मग्न करें बड़बड़ साभेक॥
॥चौपाई॥ अधम काल में विशेष ज्ञानी । रहे नहीं प्रगटे अभिमानी ॥ पक्ष पात से ऐंचा तानी । करें सत्य मतको दे पानी ॥
॥दोहा॥ जहां पक्ष तहँ न्याय ना न्याय न तहां अधर्म । जह अधर्म तह दुरित पय दुर्गवि स अशर्म ॥ सोविचार कुछनहीं हृदयमें पक्षपात नि:स्वादकरें। निजनिज मतमें मत्तप्तब मतवारे वकबादकरें ॥१॥ जबसे यह कलिकाललगामरुक्षत्रीलगे भनीतिकरन। क्षिति रजाको त्याग कर दुर्विसनों में लगे परन ।। तव से तेज प्रताप गया दासी सुत उपने नीच वरन राजपुर से बने रजपूत लगे मागन तन रन ॥ २॥
॥ चौपाई॥ राज भार तब कौनउठावे । युद्धसुनत जिनको स्वरमावे ॥ ऐसा अप्रवन्ध जब पावे । तब कैसे ना शत्रुसतावे ।।
॥दोहा॥ क्षत्री के दो धर्म है प्रथमं होय रण भूर ।
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ज्ञानानन्दरलाकर। इने फिर तप शूर हो करै वहीं रिपु चूर ।। सो दोनों धर्मा को छोड़ पर सेवा प्रहलाद कर। निजनिन मतमे पत्तभत्र मतवारे कराद करें ॥२॥ शुद्ध मनेन मादिनीचों ने राज्य लिया भपनेकरमें। हिन्सा मार्ग तभी से फैल गया दुनिया भर ।। धर्षय सननष्ट भये भवनो रचना है घरघर में। समें नयी है प्रथम से बड़ा मेद ज्यों गोखर में ।
॥चौपाई॥ जॉन देश गत का नृप भाया । ताने पत भपना फैलाया ॥ मन्य मदों को नष्ट कराया। यही घाँ भपना ठहराया ॥
॥दोहा॥ मति पन्दिर चोर के दीने गन्य जलाय । भपना ले गारी नदी दीने सर्व डबाय ॥ भपे परस्पर मतद्वैपी नृप क्यान भंग मर्याद करें । निननिन मवा भत्तसव मतवारे वकवाद करें |.३ ॥ इसी भांति बहुबाद परस्सर नष्ट गन्य प्राचीन करे । पक्षपात से नये मत भिन्न भिन्न फैले सगरे ॥ गरि मनमारकरी रचना तिनवकार लिखगंयमरे। प्रमाणता को पूर्व विधानों के ले नाम घरे ॥
॥चौपाई॥ यही हेतु प्रत्यक्ष दिखाता । कयन परस्पर मेल न खाता ।। कोई कई जारचा विघाता। कोई विश्व को अनादिगाता॥
॥ दोहा॥ कोई कई है पकी परम ना भगवान । काई कई मनन्त है पद के एक प्रधान ।। कोई जीवको नाशवान कोई नित्य गानसम्बादकरें।
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ज्ञानानन्दरत्नाकर
निजनिज गतमें गत्तसव मतवारे वकवादकरें ॥ ४ ॥ कोई भवान्तर सिद्धि करें कोई जन्म एकही मानत है। अनादि कोई कहै कोई नये जीव नित आनत हैं। कोई तो स्वाधीन जीव के क्रियाकर्म फल जानत है। परमेश्वर के कोई भाधीन सर्व कति जानत है ।।
॥चौपाई॥ इत्यादिक बहु विकल्प ठाने । एक कहै सो द्वितिय न माने ।। पन आपनी अपनी ताने । अपनी पो परकी भाने ।
॥दोहा॥ अपने मतमें दोष हो तापर दृधि न देय । बस्न छिवायें शक्ति भरताको पुष्ट करेंय ॥ तले अन्धेरा दीपक के रखसर्व धर्म वर्वाद करें। निन निज मतमें मत्तसब मतवारे वकवाद करें ।। ५ ॥ जो हठ छोड़ विचार करोतोगगट दृष्टि यह आताहै। सर्व मतों में कथन कुछ विरुद्ध पाया जाता है। किसी चदुत असत्य किसी में थोड़ा असत दिखाताहै। सत्य सर्वही किसी एक मैं न देखा जाता है ।
॥चौपाई॥ इस से जो जो सत्य कथन है । सर्व मतों में सार मथन है । सर्च गृहण के योग्य रतन है । ताका ग्रहण उचित यवन है !
॥दोहा॥ श्वसत सही त्यागिये ढूंढ़ दुद पहिचान । मतवारापन त्याग हो मतिवारा सुप्रधान ॥ बहुविद्या पढ़ बैल भारती हो शउ वृथा विवादकरें । निजनिज मतमें मत्तसव मतवारे बकवाद करें॥६॥ जैसे मटीले गेहुन के बहु भांति प्रथक लगिरहे है ढेर। किसीमें थोड़ी किसी में बहुत मिली मृतिकाका ना फेर !
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ज्ञानानन्दरत्नाकर वहां कोई निज देरीको वश मोह शुद्ध भापे अवर । अन्य सत्रों को गटीना कहत तहां ना लावे देर ॥
॥ चौपाई॥ ताहि कुधी वह पक्षपात कर | शुद्ध मान पास अपने घर ।। की रसोई रहत हर्प घर । मृतिका भख माने भोजन वर ।।
॥दोहा॥ शुद्ध पान तिहि शुद्ध कर करें शुद्ध थाहार ।
गिज पर पन नहीं कर गहें वस्तु जो सार ।। पर भौगुण खल बहुन नखे निगोगुण देख न यादिकरें। निज निज मतपत्त सय मतवार बकवाद करें ॥ ७ ॥ जय दीर्य सब राशों की मृतिका को सुधी मृतिका जानें। निकाज ताको शेष गहुन को शुद्ध गहू गाने । गिज पर न कदापि करें ना चित्त परमार्य में सार्ने । सत्य कपन को मुधी निश्पक्ष शुद्ध कर पहिचान ॥
॥चौपाई॥ मिथ्या पक्ष मुधी ना करते । निज पर के दूपण को हरते ।। गो गन पक्ष हृदय में धरते। नायूगम भवी नर ते ।।
॥दोहा॥ व विथा पढ़कर कुधी कर मत पक्ष विवाद ।
समय गमा वृयाही लहत न नर पर स्वाद ।। सरा कनिकाल कगल 'जीप निज हित में अधिक प्रमाद करें। नि निज मत में पत्त सब मतबारे क्कवाद करें ॥ ८ ॥
॥ अवस्थाओं की लावनी ३३॥
बड़े बड़े भवसागर में विन पौरुप किस पायें पार । जना जलयि के तरुण
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ज्ञानानन्दरत्नाकर
को तरुण अवस्था तरणीसार ॥ टेक || बालकपन बापला स्वपा विज्ञान भेद कैप्से जोदे । क्रीड़ा कौतुक कांचा कलह करन की जहां होवे ॥ क्रिया हान खाने में लीन चित कभी इसे कबहू रोवे । आत्महितके सोच विन सदा नींद गहरी सोधे ॥ पाप करत कुछ भय न हृदय में इठकर हने वारी धार । जना जलधिक तरण को तरुण अवस्था तरणीसार ॥ १॥ वृद्ध भये तृष्णा अति बाढ़ कभी न मन आवे संतोष । जो त्रिलोक की सम्पदा से परित होवे निज कोष ॥ तन अशक्त विकलेंद्रिय उद्या हीन खिने क्षण वणकर रोप । नष्ट पद्धि हो क्रिया से भ्रष्ट भया करता सब दोष || गमता वस ना उदास तन से तने न गन से गृह का भार | जन्म जलधि के तरण को तरुण अवस्था तरणीसार ॥ २ ॥ तरूणपो पौरुप पूरण सब क्रिया करना चित उत्साह | प्रवल इद्रिया ज्ञानकी वृद्धि सकेकर वन नियहि ॥ शक्ति परीपह सहन योग्य स्वाधीन ध्यान धरसके अथाह । श्रुनाभ्यास से भेद विज्ञान भयं हो पूरण चाह ।। सर्व कार्य के सिद्धि करन को शक्तिव्यक्त व तिस बार । जन्म जलाधि के तरण को तरुण अवस्था तरणी सार || ३ || तरुण पने ग सा सामग्री मुलभ आय इकठा हो । काल लब्धि इसीका नाम सुथी इसको जोचें ॥ ऐसा अवसर पाय कधी दुर्वसन नीद में दिन खोयें | तथा कलह में लीन रह अन्त कुगति पड़ के शेयें ॥ नाथूगम निज काम सम्हारो मिले न अवसर पारस्वार | जन्म जलधि के तरण को तरुण अवस्था तरणी सा ॥ ४॥
॥ पुरुषार्थ की लावनी ३४॥
अरे मूढ़ पुरुषार्थ तज च्या कर्म की प्रासकरे । बांचित फल को आपने करसेही नो नाशकरे ॥ टेक ॥ बाल बुद्ध सबही जानके विन बोये ना जमला खन । और जमे विन अन्न भूमा भी खेत ना किंचित देत ॥ उधमकर बोचे रुरखाने सो जन फल निश्चय कर लेत। ऐसा जानो सदा पुरुषार्थही सब सुख का हेत॥
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ज्ञानानन्दानाकर।
॥चौपाई॥ कमें कोई देवना न जानो । निज करनीका फल पहिचानो । या से नित उद्यम को ठानो । विना किये फल कर्म न जानो।
॥दोहा।। प्रथा क्रिया का करे ता का फन्न सो कर्म ।
नहीं कर्म कुछ और है समझ मूढ़ तन मर्म । जो तू आप हो निर उद्योगी पुरुषार्थ ना खास करे । वांछित फल को मापने करसेही तो नाश करे ॥१॥ पूर्वभव जो किया शुभाशुभ कर्म उदय सो पाता है । उसका भी फल यहां निश्चय सुख दुःख नर पाता है ।। लेकिन वह भी किया पापही स्वयं न भया दिखाता है। इस से निश्चय भया कर्तव्य वृथा ना जाता है।
॥चौपाई॥ जसे कोई बहु ऋणियां भावे । अति श्रपकर अब द्रव्य कमाये ॥ सो सन द्रा व्याज में जाये। या से धनी न होत दिखाने ।।
॥दोहा॥ लेकिन द्रव्य कमावना धन का कारण जान ।
यह लब पुरुषार्थ कगे जन मानस बुधियान ॥ विना मूल तरुही न होय तो फल को क्यों विश्वास करें। वांछित फल को आपने कर सेही तो नाश करे ॥२॥ कोई विपर्यय कारण करके मिद्धि कार्य की चाहते है। सिद्धि न होना कार्य तब दोप देव का कहते है। अपनी भूल दृष्टिं ना पढ़नी वृया खेद तन महते हैं । पुरुषार्थ को छोड़ भा , भरोसे रहते है ॥
चौपाई॥ 'सोने सिंह के मुाव में जाके । नहीं प्रवेश करे मृग धाः ॥
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ज्ञानानन्दरत्नाकर अथवा वृक्ष पम्बूल लगाके । कौन भाम चाखत है पाके ।
॥दोहा॥ इस से यह निश्चय भया करे सो भोगे भाप । पुण्य करे सो पुण्य फल पाप करे सो पाप ॥ करनी करे नर्क जाने की स्वर्ग में कैसे वास करे । वांछित फल को मापने करसेही तो नाशकरे ।। ३॥ एक चकेकी गाड़ी सदा सर्वत्र न भूपर गमन करे । त्यों पुरुषार्थ कर्म एकले से नाही कार्य सरे ॥ जो नदी अनुकूल वहै तो तीरन वाला सहज तरे। बहै विपर्यय तो तरना कठिनता से लघु दृष्टि परे ।
॥चौपाई॥ तैसे कम जव होय सहाई । अल्प करे बहु पड़े दिखाई ।। जोप्रतिकूल होय दुःख दाई । कठिनता से लघु कार्य कराई ॥
॥दोहा॥ लेकिन करना मुख्य है बिना किये क्या होय ।
नाथूराम यासे सुधी शिथिल होउ पत सोय ॥ जो तू भाप हो निर उद्योगी पुरुषार्थ ना खास करे । पांछित फल को आपने करसेही तो नाशकरे ॥ ४ ॥ ॥ खाता गांव के रथकी लावनी ३५ ॥
सुकृत कमाई उन्ही की है जिन धर्म कार्य में लगाया धन । मन वचतन म प्रभावना अंग विर्षे नित रहैं मगन ॥ टेक ॥ गैर २ के जैनी भाई खाता गाव चलकर भाये । देख महोत्सव चित्त भपने अपने सब हर्षाये ॥ हम भी जन्म सुफल माना जब जिन छवि के दर्शन पाये । जिन प्रतिमा को देखने अन्यमती भी तहा पाये ॥ च्य भमि उस पुण्यक्षेत्र की जहां बसे साधी
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ज्ञानानन्दरत्नाकर ।
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जन | मनवचतन से प्रभावना अंग विषे नित रहें मगन || १ || फागुनदि गुरुवार अटी तादिन प्रभुरथमें राजे । बहु विधि स्तुति पढतनर नारि चले थागे साजे || गधूव गण संगीत करें ध्वनिंबहु प्रकार बाजे बाजे । रथकी शोभा देखकर जिनद्रोही हियों लाजे || जयजय भविजन कहत सभा मंडप में गये नगे चरणन | मनवचतन से प्रभावना अंग विषै तिर है मगन ॥ २ ॥ शोभनीक जिनधाग सभामंडप रचना अद्भुत बाई | इंडी फानूसे तहांलंपादि । जतं निशि अधिकाई ॥ तेरहद्वीप का विधान पूजन सुने नारिनर हर्पाई अध्यात्म चर्चाकरे भविजीव शस्त्र द्वाराभाई || अष्टम दिन आहार दानदे तृप्त किये सबही के मन | मनवचतन से प्रभावना अंग चिप नितर है मगन ३ ॥ नवम दिवस कलशाविषेक कर फेर लौटती कढ़ी जलेव । श्रति उत्सव से जिनालय में पराये श्रीजिनदेव || धन्य जन्म उननर नारिनका धर्मध्यान सर्वे स्वयमेव । परमार्थ में लगायें धन गुरुजन की करते सेव || नाथूराम जिन भक्त धर्म आशक्त र वेही सज्जन | मनवचतन से प्रभावना गति गगन ॥ ४ ॥
॥ शाखी ॥ खुनीरसंग लघुवीरले चढ़ लंकपर ऐहैं पिया | यासे मिलोले जानकी नहीं पाओगे अपना किया ॥ रावण न माने टेक ठाने बोध बहुरानी दिया | जिनभक्त नाथूराम अति अज्ञान रावण का दिया || ॥ दौड ॥
बहुत समझाने मंदोदर| शशियुग चरणों में घरघर | टेक ना छोड़े दशकन्दर । कुमति ने किया हृदय में घर ॥ नाथूराम करें कर्म रेखा | टरेना यह निश्चय देखाजी ॥
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॥ लावनी ३६ ॥
रावण को समझाने मंदोदर भरके नेत्रजल में दोनों | लेके जानकी
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ज्ञानानन्दरत्नाकर मिलो नहीं आवे चार पलमें दोनों ॥ टेक ॥ मानापिया दशकन्य महा मति म्न्द भई अवकी वारी । राक्षस कुल के नाश करने को कति हिरदयधारी तीनखण्ड के धनी नाथ तुम हरलाये जो परनारी । कैश छुटे लगा पिय यह कलंक कुलको भारी || नारायण वलभद्र नाथ वे प्रगट भये कल में दोनों। लेके जानकी मिलो नहीं आ वीर पल में दोनों ॥ १ ॥ सुनवच रावण कदै नार क्यों करती है दिलमें शंका । बीच सिधुके पड़ी यह प्रगम्प मेरी लका | भूमि गोचरी रंक करत सवशंक मुनत मेरा डंका | तीनखण्ड में युद्ध करने को कौन मुझसे वंका || हमखगपति वे भूमिगोचरीन पृथीस्थल में दोनों । लेके जानकी मिलो नहीं आवें वीर पल में दोनों ॥ २॥ हायजोड़ फिरकहै मन्दोदर वचन हमारे मान पिया । वान्दर वंशीभूपसर गिले उन्हों में शान पिया ॥ अंगांगद सुग्रीव नीलनल भामडल हनुमान पिया । भूप विराधत सेनले आये बैठे विमान पिया || धनुषवाण लिये हायहरी बलगर्जरहे बलमें दोनों । लेके जानकी मिलो नहीं श्रावे वीरपलग दोनों ॥ ३ ॥ चार बार समझावे मन्दोदरि धरें शीश युग चरणन में । एकनमाने लगपत्ति कैसी कुमति वैठी मनमें ॥ बहुन चुकेर युद्धनाथ अत्रधरो ध्यान जाके बनमें ! पर नारी के काज क्यों देहु प्राण अपनेरनमें ॥ नाथूराम कई तव परितहो जर लड़ई दलमें दोनों । लेके जानकी मिलो नहीं भावें वीर पल में दोनों ॥ ५ ॥
॥रावण मन्दोदरी सम्बाद ॥ ३७॥
चरण कमल नवक? मन्दोदरि यह विनती प्रियभाम कीहै । जनकसुताको पठावो कुशल इसी में धामकी है ।। टेक ॥ हम अबला गत्ति हीन दीन क्या समझा ऐसा कीजे । पंडित गण के मुकुट प्रिय तुपको क्या शिक्षादीजे ॥ भो हितकारी होय करो सो कहा मान इतना लीजे । ऐसाकीजै नाय जिसमें न कला कुलकी छीजे ।।
॥शैर।। भानुसम तेजक प्रकाशित वन्श यह राक्षस पिया।
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ज्ञानानन्दरत्नाकर |
ताहि मत मैलाकरो गृह मनके अपने सिया || परनारि रत जो नरभवे तिनवास दुर्गति में किया । धनधाम प्राणाय प्रति श्रद्यभार शिरापने लिया ।। सेठ मतकरो पड़ीपद परत्रिय जड़ बदनामकी है । जनता को पठायो कुशल इसी में धामकी है ॥ १ ॥ दशमुख कहै त्रिखंडपती में भूचर नभचर मेरे दास । तीन खण्डकी वस्तु पर प्रभुताई है मेरी खास || मुझे छोड़ यह सुन्दर सीता और कौन गृहकर है वास । मानसरोवर छोड़ करते न इन्स लघुसरकी आस || ॥ शेर ॥
इन्द्र से योद्धा मैने बांधे चणक में जाय के सोप वरुण कुरेर यम वैश्रवण वांघाय के || विश्व में जाइर भयो कैलाश शैल उठाय के कौनसा योद्धा रद्दा रण में लड़े जो चाप के तब मन्दोदर कहै नाथ निजमुख न बड़ाई काम की है । जनकसुता को पठायो कुशल इसी में धाम की है ॥ २ ॥ तुमसमको वलवान नाथवर यहकार्य जगमें अतिनीच । तुमको शोभानदे जो परत्रिय अंग लगाओ कीच ॥ नीतिवान पंडित साथम कहलाते नृप गणके बीच | अपकीर्ति से भली है सज्जन जनको जगमें पीच ॥
॥ शेर ॥
बड़ा आश्चर्य र त्रियसे अधिक सुन्दरी । चड़ा ता से रुचि तुप को भई हिरदय वसी भूचर नरी ॥ कहो जैसा रूप विद्या न करों याही घरी । हठ छोड़िये पर नारि का विनती करे मन्दोदरी || सीता भी प्रिय बरै न तुमको पतीव्रतात्रय रामकी है। जनकसुता को पठावो कुरान इसी में धामकी है ॥ ३ ॥
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। मुनस वचन लंकेश कहै प्रिया तुमसम और नहीं नारी। यह तो निश्चय मुझे पर कारण एक लगा भारी ॥ इम क्षत्री रणशूर हरी सिय यह जानी दुनियासारी। जो सिय भेजों राम तट तो देह नृप गण तारी।।
॥शेर॥ जानि हैं कायर मुझे नृप गण सभी अभिमान से । यासे लड़ना योग्य है रघुवीर संग धन वाण से ॥ जीति कर अपों सिया प्यारी जो उनको पाण से । यश होय मेरा विश्व में वेशक सिया के दान से ॥ नाथूराम जिन भक्त कहै त्रियशुभ न चाह संग्रामकोई। जनकसुता को पावो कुशल इसी में घामकीहै ॥ ४ ॥
॥सीताहरण की लावनी ३८॥
जनकसुता का हरण श्रवण सुन को न नीर गमें लाया । वर्णन तिप्तका मुनो जैसा जिन आगम में गाया ॥ टेक ॥ दंडकवन में धनुष वाण ले सैर करन चाले लक्ष्मण | सुगंध मारुन लगत तन भयो प्रमुद लक्ष्मणका मन ॥ वश भिड़े पर सूर्य हास्य असि दृष्टि पड़ा चर्चित चन्दन । लेके हाथ में लक्षण ने काटा वह भिड़ा सघन ॥
॥चौपाई॥ खरदूषण व शंबुकुमार । वामें साधत या असिसार॥ सिद्धि भयाया ताही वार । रक्षक नाभास यक्ष हजार ।।
॥दोहा॥ पूजा कर मुर खड्ग की धरा भिड़े पर आन । पुण्य योग लक्ष्मण लिया सो वर हाथ कृपाण ॥ कटाशं शिर साथ भिड़के सोना लक्षमण लखपाया।
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। वर्णन तितका करों जैसा जिन आगम में गाया ॥१॥ लेके खंग लक्ष्मण रघुवर तटगये सुनो भव कथा नयी । शत्रु पुत्र के पास ले भोजन सूर्पनखा गयी ॥ कटा भिड़े को देख पुत्रकी पहिले निंदा करतिगयी । फिर शिर देखा पुत्र का तव तिन भूमि पछार लयी ।।
॥चौपाई॥ करति चिलाप हनत अरिधाई । दृष्टिपड़े लक्ष्मण रघुराई ॥ तिन्हे देख सुत मुधि विसरायो । कामातुर विट देह बनाई ।"
॥दोहा॥ बोली रघुतट जाय के मैं अविवाही नाय । युगल भात में एक यो कर गह करो सनाथ ॥ व्यभचारिणिलख कहीराम विकत झपुरुषपरमन भाया। तिसका पणन सुनो जैसा मिन पागम में गाया ॥ २ ॥ झिड़कारी लक्ष्मणने जवही तर लज्जिनहो आईघर । कोली पनि से नारि युत आये है वन में दो नर ॥ शत्रु पुत्र रत खंग लिया तिन फाड़े वस्त्र मेरे निजकर । मुन खर दूपण घनाये रण वाने अत्र करों समर ॥
॥चौपाई॥ रावण के तट दूत पाया । समर सुनत दश मुख उठ पाया । इन खर दुपण दन सजवाया। गर्जत घन सानम पथ आया।
॥दोहा॥ - रण बाजे मुन रामने कही मुनो लघु भात ।
तुम सियकी रक्षा करो हम लड़ने को जात ॥ तव लक्ष्मण शर चाप उठा रघु चरणों मस्तक नाया । तिसका वर्णन सुनो जैसा जिन आगम में गाया ॥३॥ हे अगज तुम सिये रखाओ में लड़ने जाता रणमें । भीरपदे तो करोंगा सिह नाद साही चणा में 112
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ज्ञानानन्दरत्नाकर 1
या कह लक्ष्मण गये समर को दशकंधर आया बनमें । रूप सिया का देख आशक्त भया कामी मनमे ॥ ॥ चौपाई ॥
विद्या से दशमुख यह जानी । जनक सुता यह रघुवर रानी । सिंहनाद की कद मुखबाणी । गये समर में लक्ष्मण ज्ञानी ' ॥ दोहा ॥
तब छिपके दशमुख किया सिंहनाद भयकार | सुनत राम धनु बाण ले भये समर को स्यार || सीताके ढिग छोड़ जटाई गये समर को रघुराया | तिसका वर्णन सुनो जैसा जिन आगम में गाया ॥ ४ ॥ देख अकेली सीताको दशमुख ने तुर्त विमान घरा । बिलपति सीता जटाई उठा युद्ध को क्रोध भरा ॥ चोंच पंजों से अंग रावण का गिद्ध ने लाल दिया थपेड़ा दशानन उलट जटाई भूमि
करा ।
॥ चौपाई
परा ॥
गिरा जटाई मृतक समान । गया दशानन बैठ विमान ॥ - इधर राम पहुंचे रण म्यान । चलत जहां नाना विधिवाण ॥ ॥ दोहा ॥
देख लक्ष्मण रामको कही प्रभू किस काम ।
सीता तज, आये यहां अभी जाउ उस उाम ॥
कक्षी राम हे भ्रात यहां तुम सिंहनाद क्यों बजाया । तिसका वर्णन सुनो जैसा जिन श्रागम में गाया ॥ ५ ॥ लक्ष्मण कही किया छलकाहूं लौट बार सीता के पास । मैर को पलक में तुम प्रसाद से करहों नाश ॥ गये राम तो लखी न सीता तब अतिही मनमेंभे उदास । दूढत वन में लटाई दृष्टि पड़ा तहाँ चलते स्वास ||
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ज्ञानानन्दरत्नाकर।
॥चौपाई॥ नमोकार रघुवर तिहि दीना | चौथे स्वर्ग देव पद लीना ॥ अब लक्ष्मण परिदल क्षय कीना सिंहकरै ज्योंमृगगण क्षीणा ॥
॥दोहा॥ चन्द्रोदय नृप का तनुज नाम विराधित तास ।
जड़त भयो रिपु सेनसे आय लक्ष्मण पास ॥ तब लक्ष्मण ने खरदूपण को मार क्षणक में गिराया । विसका वर्णन मुनो जैसा लिन आगम में गाया ॥ अरिंगण हत लक्षपण भय पाकर रामचन्द्रकेवट आये। लोटत भूपर सिया विन रामचन्द्र विकल पाये ।। तब लक्ष्मण ने विनय सहित धीरज बंधायक समझाये। खोज सिया का करेंगे कार्य चले ना घबराये ।।
॥चौपाई॥ भूप विराधत भी तर भाया । राम लक्षण के पद शिरनाया । नपण कही मुनो रघुराया। या नृप ने अति हेतु जनाया ॥
.दोहा॥ भयो सहाई रण विप नाशन को अरि पक्ष ।
या प्रसाद हम जयलही कहे वचन यों दक्ष ॥ भये परस्पर मित्र चिराधत ने रघुवर को समझाया । तिसका वर्णन सुनो जैसा जिन भागम में गाया ।। ७ घलिये प्रभु पाताल लंक में वहां नहीं रिपु गणकाडर । यहां सतह शत्रु बहु रावण आदिक महा जवर ।। सर दूपण का साला रावण ता सेवक बहु विद्याधर । तुम खरदूपण इवा सो पैर लोगे सब आकर ॥
॥चौपाई॥ तब यह बात सभी मन आई। लक्ष्मण सहित गये रघुराई ।।
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। यदपि भोग भोगो युग माई । तदपि सिया मुधि ना विसराई ।।
॥दोहा॥ युगसम चीते दिवस इक अति शोकित रघुवीर । तहां विराधत लक्ष्मण भधिक बंधावें धीर । नाथूराम जिनभक्त जानकी रूप राम हग में छाया । तिसका वर्णन सुनो जैसा लिन आगप में गाया ॥८॥
॥राक्षस वन्शीन की उत्पत्ति ३९॥
अनित नाथ के समय मेघ बाहन राक्षस लंकापाई । तिसका वर्णन मनो जो श्रवणों को आनन्द दाई ॥ दे ॥ विजयार्द्ध दक्षिण श्रेणी में चक्र वालपुर नबसे । नृप पूर्ण धन मेघ वाइन ताके शुभ पुत्र लसे ॥ तिलक नगर का नृपति मुलोचन सहस्र नयन सुतता तन से । कन्या उत्पल मती दोनों जना मुन्दर उनसे ॥
॥ चौपाई॥ उत्पनमती पूर्ण चनजाय । निजसुतको जांची गनलाय। बचनानिमित्ती के मुनराय । दई सगर को सो होय ॥
॥दोहा॥ तब पूर्ण घन सेनले इना सुलोचन राय । सहसू नयनले कहिनको छिपा विपिन में धाय ॥ पूरण घनने, कन्या की खातिर नगरी सव दुढवाई ! तिसकावर्णन सुनो जो श्रवणोको आनंददाई ॥ १ ॥ सगरचक्रपतिको इक दिन मायामय हयने हरासही। घरा विपिन में वहीं लख उत्पलमती भ्रातसे कही। चक्रीके तटसहस्र नयनने जाय बहिन परनायवही । अति प्रादर से युगल श्रेणी की पाई आप मही ।।
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ज्ञानानन्दरत्नाकर।
॥चौपाई॥ सहलनयन की वलपारे । पूर्ण वन मारा रणपाले ॥ भगामेष वाहन घबराके । समोशरण में पहुंचा जाने ।।
॥दोहा॥ भजित नाय को बंदि के पैठा शगता गन ।
सास नयन के भटतहां देख गये निज यान ।। तिनके मुख मुन सास नयन भी मया जहांजित जिनराई । विसका वर्णन मुनो नो श्रवणों को आनन्ददाई ॥२॥ समोशरण में ज़ाय भवान्तर पूछसभी निर उये । यह मुन गतम इन्द्र प्रमुदित मन भीग मुभीम भएँ । कहा मेय वाहन से धन्यतू अपतेरे सब दुःख गये। श्रीजिनवर के चरण तल जोतेरे चमु अंग नये ।।
॥चौपाई॥ हम प्रसन्न तोपर खगरा। मुनो वचनं मरे मन जाय ।। राजस द्वीप वसो तुम गाय । वहभू तुपको अति सुखदाय ॥
॥दोहा॥ लवणोदधि के मध्य है राक्षस द्वीप प्रधान । लम्मा चौड़ा सातसौ योजन तास प्रमाण ॥ सयद्वीपों में द्वाप शिरोमणि नास भीति जगमें छाई । तितका वर्णन मुनों जो अत्रणों को आनन्ददाई ॥ ३ ॥ ताके मध्य विकटाचल योजन पचास ताका विस्तार । ऊंचा योजन कहा नवतास तले नगरी सुखकार ॥ लंका योजन तीम वहां जिन भवन बने चौरासीसार। सपरिवार से तहां निवतो तुम अरिंगण का भपटार ।
॥चौपाई॥ अरु पाताल लंक शुभयान । गैर शरण का है मुमवान ।
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। छः योजम प्रोडा परवान । है सुन्दर स्थान महान ॥
॥दोहा॥ इकशन सादेतीस इक ( १३१॥ ) डेढ़ कना विस्तार । यह कह निज विद्या दई अरु रत्नों का हार ॥ घसे मेघ वाहन त जाके कुटुम सहित अति हाई। तिसका वर्णन सुनो नो श्रवणो को पानंद दाई ॥३॥ ता राक्षसकुला में असंख्पनृपभये सोनिजकरणीअनुसार। कोई शिवपुर गये किनही मुर के सुख लिये अपार ॥ कोई पापकरगये अयोगति भ्रमतभये घरगतिदुःनकार । मुनि मुनत के समय में विद्युत केश भये नृपसार।
॥चौपाई॥ तिनके पुत्र सुकेश मुजान । इन्द्रानी तिसके त्रिय जान ॥ तीन पुत्र ताके गुणवान । भये सुवीर महा बलवान ॥
॥दोहा॥ माली और मुमानी अरु मान्यवान विन नाम । सुमाली के रत्नश्रवा पुत्र भया गुणधाम ॥ भई केकसी रानी ताके जासु कीर्ति जगमें गाई । तिसका वर्णन मुनो जो श्रवणों को आनंददाई ॥५॥ रत्नश्रया त्रिय के कसीके सुत तीन महा बलवान भये । एहिला रावण द्वितिय सुत कुम्भकरण गुणघामठये ॥ तृतिय विभीषण कुल के भूषण जिनने शुभगुण सर्वलये। तीनों योद्धा अनूपम तिनको भूप अनेक नये ॥ २ ॥चौपाई॥ सूर्य नखा तिन बहिन प्रधान । भई अनुपम रूपमहान ॥ खर दूषण परणी बुधिचान । बसेलंक पाताल मुजान ।।
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वानानन्दरत्नाकर। ॥दोहा॥
राक्षसोप विप पसे विद्याधर गुण धाम | या वर्णन संक्षेप से कहा मुनाथगम ॥ पलभता राक्षस नाही नर पवित्र जानो भाई । तिमका वर्णनसुतो मो श्रवणों कोआनंददाई ॥६॥
॥ बानर वंशीन की उत्पत्ति।
वानर शिन की भैस उत्पांच मई सो सुनो श्रवण | जिन शामन का ना माघार न कल्पित कहो वचन || टेक ॥ विजयाच दक्षिण घेणीमेघपुर तह खगपति शुभनाय । अनींद्र राजापुर श्रीकंठ मनोहरा कन्पा धाम ।। नहीं पत्नपुर ना पुष्पोत्तर पोचर नामुन अभिराम ! कन्या ताके एक पनामा मनु मरपति की माग ॥
. ॥चौपाई॥ मनोहरा पुप्पातर राय । निज मुतको गांची उमगाय ।। किंठ कन्या के भाय । दई न ताको मने कराय ।।
दोहा। धवल कीर्ति लंका धनी रातस वंशी भूप । म्याही ताहि मनोहरा लखि के अधिक अनूप ॥ पुष्पाचर खग श्रवण मुनत यह बहुत उदासी मानी मन । निन शासन का लही आधार न कल्पित कहाँ वचन ॥ १ ॥ एक दिना श्रीकंठ वन्दना मुमेरु की कर आते घर। पद्माभा का राग मुन मोहितहो सो लीनी हर ॥ मुन कुटुम्ब जन तभी पुकारे पुप्पोत्तर को दई खवर | शोषित होके तभी खग चढा सेनले ता ऊपर ॥
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ज्ञानानन्दरत्नाकर
चौपाई। श्रीकंठ लंका को धाया । धवल कीर्ति लख अति हर्षाया ॥ सेन लिये तोलों खग आया । धवल कीर्ति सुन दूत पठायर ।।
दोहा। पुष्पोत्तर को तास ने समझाया बहु भाय ।
अरु पद्माभा की शसी गई कही तहां जाय । तात दोष ना श्रीकंठ का चरा मही या को प्रापन । जिन शासन का लहों आधार न कल्पित कहो वचन ॥२॥ लौट गयाखग कीर्ति धवल तब श्रीकंठको गीति दिखाय | निवास करने वानर द्वीप तिन्हे दीना शुभ राय ॥ श्रीकंठ तहां गये बसाया नगर फिहकपुर अति मुखदाय। वानरदेखे तहां बहु केलि करत नाना अधिकाय ॥ .
चौपाई। तिनने कपि पाले रुचिठान । तिनसे क्रीड़ा करत महान ॥ रचे चित्र तिनके गृह म्यान । रंगरंग के लख सुखदान ॥
दोहा । ता पीछे बहु नृप भये तिन भी कपि के चित्र । मंगलीक कार्य विप भाड़े मान पवित्र ॥ वास पूज्य के समय अमर प्रभु भो भूप सो सुनो कथन । जिन शासन का लहाँ आधार न कल्पित कहों वचन ॥ ३ ॥ तिनकी रानी डरी भयंकर देख चित्र कपिके तवरायः। ध्वजा मुकुट में कराग चित्र गूह के दये मिटाय ॥ ' तब से ये कपि केतु कहाये कपि वंश उत्पति सों आयः । वानर नाही नृपति नर विद्याधर हैं जानो भाय | .
चौपाई। सा कुल में बहु नृप गुणधाम | भये कहां तक लीजे 'नाम ।
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। फैर महोदधि नृप अभिराम ! भये अनूपम ताही ठाम ॥
दाहा। तेनके सुत प्रति चन्द्र के दोय पुत्र अति धीर ।
यये प्रथम किहकन्द अरु छोटा अन्धक वीर ।। तिन्हें राज प्रतिचंद्र देय व्रतलेय गये तप करनेवन | जिन शासनका लहों आधार न कल्पित कहाँ वचन ॥ ४॥ एक दिवस विजया पर आदित्यपुर के विद्याधर ने । नृपति बुलाये स्वयंवर मंडप में कन्या वरने ॥ नृप 'किहकन्द श्रीमाला ने तहां प्रेम धरके परने। स्थनूपुर का ईश लेख विजय सिंह लागा जरने ॥
चौपाई। भया परस्पर युद्ध महान | अंधक ने कर गहि धनुवाण ॥ विजय सिंह मारा सरतान । भगी सेन ताकी तज थान ।।
दोहा। असन वेग ताका पिता सुनत चढ़ा ले सेन तव वानर बंशी भये सन्मुख तहां रहेन । असनवेग ने घेर किहकपुर कपि बंशिन से कीना रन । 'जिन शासन का लहों आधार न कल्पित कहों वचन ॥९॥ असनबंग का सुत विदयुतवाहन किहकन्द लड़े ले वाण । असनवेग ने तहां मारा अंधक दारुण रण ठान ॥ विदयुतवाहन ने किहकन्द किया घायल मारीसिलतान । मूळ खाकर भूमिपर गिरा मगर ना निकले प्राण ।।
चौपाई। तव लंकेश मुकेश उठाय । रखा किहकपुर में सो आय ॥
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ज्ञानानन्दरत्नाकर । फिर पाताल लेक में जाय । छिपे सर्वही प्राण बचाय ॥
दोहा। असनवेग तव सेनले लौट गया निज थान | फिर उदास हो भोगसे धारा तप बुधिवान ।। सहसार पुत्रको राज तिन दिया किया निज वास विपन । जिन शासन का लहों आधार न कल्पित कहों वचन ॥१॥ सहस्रार ने लंका में निर्घात सुभट राखा थाने । सहसार के भया सुत इन्दू नाम राखा ता ने ॥ सूर्यरज ऋक्षरज भये किहकन्द के दो सुत गुण स्याने । नगर. वसाके वसे किहकन्दपुर, के तव दरम्याने ॥
चौपाई। सूर्यरज के दो मुत भये । नाम वालि सुग्रीव मुठये ॥ ऋक्षरज के भी दो सुतभये । नल अरु नील नाम तिन दये ॥
दोहा।
निवसे वानर द्वीप में यासे कपि कुल नाम ।
ये वन पशु वानर नहीं विद्याधर गुण धाम ॥ विद्याके वल चढ़ विमान में करें सर्वगं गॅगण गमन । जिन शासन का लहाँ आधार न कल्पित कहों वचन ॥ ७ ॥ लंका पति राक्षस सुकेश के तीन पुत्र उपजे गुणवान । माली सुमाली और लघु माल्यवान रूप के निधान ।। माली ने निर्यात सुभट को मार लिया लंका निजथान। . फिर माली को इन्दू विद्याधर ने मारा रण म्यान ॥
- चौपाई। सुमाली के सुत रत्नश्रवा के । भये तीन सुत अति वलवाकै ।। रावण आदि तिन्हों ने जाके | गांधा इन्दू समर में धाके।
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दोहा। स्थनूपुर पति इन्दु यह विद्याधर नर नाथ ।
नहीं इन्द्र सुरलोक का हारा रावण साथ ॥ नाथूराम वानर वंशिन की कही कथा यह मन भावन । जिन शासन का लहों आधार न कल्पित कहाँ वचन ॥ ८॥
त्रिया जन्मकी निन्दा ४१॥
महा न य पर्याय त्रिया की महा कुटिल भावों का फल । तीनों पन दुःख भुगते भारी नहीं मुक्ख नारी को पल । टेक ॥ जन्म सुनत शिर ध्वनत पिता दिक उदास होके कुलकेजन । आशावान निरास होत सब कर्मान यांचक अपने मन ।। नेग योग वाले सकुचा के मांगसकें ना किंचित धन | श्रवण सुनतसव उदास होते पुरा पडोसी भी तत्क्षण | गीत नृत्य वाजिन महोत्सव वन्दभये गृहमें मंगल | तीनों पन दुःख भुगते भारी नहीं सुक्ख नारी को पल ॥ १॥ खान पान रोग में निरादर मरो जियो भाग्यन अपने । नहीं कुटुम्ब वढन की श्राशा वेटी से काहू स्वपने । वालपने से सकुचति निकसे सर्व अंग पढ़ते ढपने । बदनामी का अति दुःख भारी श्रवण सुनत लागे कपने ॥ ब्याह भये दुःख सास नन्द का काम करत ना पावे कल । तीनों पन दुःख भुगते भारी नहीं मुक्ख नारी को पल ॥ २ ॥ सास ससुर पतिकी दिहसत से राति दिवस रहे कम्पित तन | सबके पीछे भोजन पावै जैसावचे धरमें उसनण। वेअदबी जोकरे पड़े अति मार कुटे दंडों से तन । घर वाहर के कुबचन कहत पराधीन हो मुने श्रवण | हो स्वतंत्र कही जाय न सकती राखा चाहै कुल का जल । तीनों पन दुःख भुगवेभारी नहीं सुक्ख नारी को पल ॥३॥ गर्भ भार का अति दारुण दुःख नौ महिने सहती नारी । मरण समान प्रसूति समय दुःख सहे वेदना अति भारी ।। बड़े कप्टसे पाले वालक तीण भई तन छवि सारी मेरे अधूरा पूरा वालक तो दुःख का कहना क्यारी | बांझ होय तो कुलकी नाशक कहलाने का दुःख अतिवल । तीनों पुन दुःख भुगते भारीनहीं सुक्ख
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नारी को पल || ४ || होय कदाच्चि वाल विधवा तो जायजन्म रोवत सार मिले कुचलनी धनी बनी तो मौस नहीं दुःख का पारा ॥ श्रति हीनाधि वय पति पावे तो न जाय फिर दुःख टारा। रोगी वा पति मिले नपुंसक तो महान दुःख शिरभारा ॥ मूढ़ अकर्त्ता चोर जुझारी मिले तो नित भोगे कलकल । तीनों पन दुःख थुगते भारी नहीं सुक्ख नारी को पल ॥ ९ ॥ जो भतीर दरिद्री होवे तो अपार दुःख क्या कहना । भैरे कष्ट से उदर फटे वस्त्रों से उघोड़े तन रहना || हो क्रोधी भतीर कृतघ्नी तो शोकानल में दहना । वृ भये सुत बहू न माने वात रात्रि दिन दुःख सहना || बात कहत ललकारत सवही रोवे नेत्र भरके भल भल । तीनों पन दु:ख भुगते भारी नहीं सुक्ख नारी को पल || ६ || वर्णन कहँतक करों गुणी जन थोड़े में समझो सर्वाग, महा दुःख की खान जन्मत्रिय जग्न पराश्रय रहती तंग || दुर्बिसनी व्यभिचारी त्रियकी करें प्रशंसा मति के भंग। या नारी की खांय कमाई सोसराहते त्रिय का अंग || पुत्री के ले दाम चहैं आराम जीभके जो हैं चपल | तीनोपन दुःख भुगते भारी नहीं सुक्ख नारी को पल ॥ ७ ॥ महानीच निर्लज्ज हरामी त्रिय का धन चहते खाने । सो नारी को काम धेनु चिंतामणि के सदृश जाने || जो सज्जन सत्पुरुष सुश्री सो वेद शास्त्र के अनुमाने || लख निंदद्य पर्याय त्रियाकी दुःख स्वरूप ताको माने !! नाथूराम जिन भक्त कहें दुःखरूप त्रिया पर्याय सकल | तीनों पन दुःख भुगते भारी नहीं सुक्ख नारी को पल ॥ ८ ॥
शाखी।
ar
माता सरस्वति दीजिये विद्या का जनको दान जी । अज्ञान तिमर विनाश हृदय प्रकाश अनुभव भानु जी ॥ मैं शरण आया सुयश गाया धरों तेरा ध्यान जी । जिनभक्त नाथूरामको जन जानदेनिज ज्ञान जी ॥
दौड़ |
शारदा जपों नाम तेरा । मनोर्थ कर पूर्ण मेरा ।
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ज्ञानानन्दरत्नाकर । भूमो बहु चौरासी फेरा । ज्ञान विन कही नसुख हेरा ॥ मात अब कृपा दृष्टि कीजे। नाथूराम को सुबोधदीजेजी।
जिनेन्द्र स्तुति ४२॥
है करुणा सागर त्रिजगत के हित कारी। लख निज शरणागत हरो वि. पति हमारी || टेक ॥ जो एकगाम पति जनकी विपदा टारे । मनोवांछित जन के कार्य क्षणक में सारे । तो तुम त्रिभुवन के ईश्वर विश्व पुकारे । विश्वास भक्त ताही विधि उर धारे । फिर भूलगये क्यों ईशहमारी वारी, लख निज शरणागत हरो विपत्ति हमारी ॥ १॥मैं निज दुःख वर्णनकरों कहाजगस्वामी नुमतो सब जानत घटघट अन्तर्यामी । तुमसमद” सर्वज्ञ यशस्वीनामी, मम. हरो अविद्या प्रगट मुख आगामी । वरभक्ति तुम्हारी लगे हृदयको प्यारी, लख निज शरणागत हरो विपत्ति हमारी ॥ २ तुम अधयोद्वारक विरदजगत में छाया, मैं मुनासन्त शारद गणेश जोगाया । यासे आश्रय तक शरण तुम्हारे पाया, सवहरो हमारा शंकट करके दाया ।। तुमको कुछनहीं अशक्य विपुल वलवारी, लख निज शरणागत हरो विपत्ति हमारी ॥ ३ ॥ ज्यों मात पिता नहीं शिशु के दोप निहारे, पाले सप्रेम अरुसर्व आपदा टारें । तुम विश्व पिता त्योंही हम निश्चय धारें, यासे शरणागत होके विनय उचारें । जन. नाथूराम यह यांचत बारम्बारी, लख निज शरणागन हरोविपत्ति हमारी ४॥
शाखी।
संसार सकल असार है नहीं इरास प्रीति लगाइये । झा सकल व्यवहार है नहीं इष्ट जान ठगाइये ॥ इंन्द्रिय विषय विप तुल्य है नहीं इनसे चिन पगाइये । जिन भक्त नाथूराम परमात्मा के नित गुण गाइये ॥
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ज्ञानानन्दरत्नाकर।
दौड़। सदा भगवन्त नाम अपना । यही जानो कार्य अपना ।।
और भूमगाल सर्व स्वप्ना । दूरसे तिन्हें देख कपना ।। नाथूराम नरभवफललीजे । भजननिशिदिन प्रभुका कीजेनी॥
संसार दुःखकी लावनी ४३॥
है यह संसार असार दुःखका घररे । ये विषयभोग दुःख खान इनसे तू डररे ॥ टेक !। इनमें दुःख मेरु समान मुक्ख ज्योराई, सोभी सव आकुलता मय पडत दिखाई । इसकी उपमा इस भांति गुरू बतलाई । सो मुनो सकलेद कान कहूं समझाई । इसके सुनने मे सुधी ध्यान अयधररे । ये विषय भोग दुःखखान इनसे तूडररे ॥ १ ॥ एक पथिक महावन माहिं फिर था भटका। तापर गजदौड़ा एकतभी वह सटका ॥ सो कुएम तरुकी मूल पकड़ के लटका तातरुको क्रोधवश जा हाथी ने झटका | तरुसे मधुमाखी उड़ी शोर अति कररे, ये विषय भोगदुःखखान इनसे तू डररे ॥ २॥ पन्थी को मक्खियां चिपट गई उड़प्यारे जड़काटें मूसे दोय श्वेत अरुकारे, चौनाग एक अजगर कुएं में मुंह फारे ॥ देखत ऊपर को गिरे पथिक किसबारे; वहां टपकी मधु की बूंद पथिक मुखपररे । ये विषय भोग दुःखखान इनसे तूडररे ॥ ३ ॥ शठस्वादत मधुका रवाद सभी दुःख भूला, करास लखे ऊपर को जड़से झूला ।। तहां से खग दम्पति जाते थे गुण मूला, तिन देख दयाकर कहे वचन अनुकूला। निकले तो लेय निकाल तुझे ऊपररे, ये विषय भोग दुःख खान इनसे तूहररे।। ४ ।। बोला पन्थी एक बूंद शहद मुख आवे, तब चलों तुम्हारे साथ यही मनभाव।सो एक बूंदको देखो शठ मुंह वावे, नालखे वेदना घोर टंगा जो पावे, सोही गति संसारी जीवोंकी नररे । ये विषय भोगदुःख खान इनसे तूडररे ॥ ५ ॥ भवत्रन में पन्थी जीव काल गजजानो, कुलकुआ
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ज्ञानानन्दरत्नाकर कुटुमजन मधुमक्खी पहिचानो । चउगति चारों अहि निगोद अजगर मानो, जड़यायु रात दिन काटत मूम वखानो॥ है विषय स्वाद मधु विन्दुमेहतस्वररे ये विषय भाग दुःख खान इनसे तूडररे ॥ ६ ॥ विद्याधर राद्गुरु शिक्षादेत दयाकर, माने तो दुःखसे छूट जाय प्रातम नर । संसारमें सुख है शहद बूंद से लघुतर , दुःख कूप पथिक से गुणा अनन्ता अकसर । संसार दुःख सेड मुची थरथररे । ये विषय भोग दुःखखान इनसे तृडररे ॥ ७ ॥ खल काल चली से सुर अमुरादिक हारे, हरिहली चक्र पति याने क्षणमें मारे, येविषय भोग विषधर दारुण कारे, इनका काटा ना जिये जगत में क्यारे, इन के त्यागी भये नाथराम अमररे । ये विपय भोग दुःखखान इनसे तूहररे । ||
उदयागतकी लावनी ४४।
जगत में महा बलवान उदय अागत है, ताके मैंटन को किसी की ना ताकत है | टेक ।। जवनीबू उदय रस पाकर विधि देता है, तबएक न चले उपाय करे जैताह, जवती पवन में लहर उदयि लेताहै, तबकौन कुशल हो जहान को खेता है, मुंह जोरी करना इस जगह हिमाकत है, ताके मैटन को किसी की ना ताकत है ।।.१ ॥ हरिराम कर्म वश फिरे रंकवत वन में, हिम धूप पवनकी सहते वाधा तनमें, परगृह करते आहार सलज्जित मनमें, अथवा वन फल करते आहार विपनमें, यह बड़े बड़ों को सतावनी श्राफतहै। ताके मंटन को किसी की ना ताकत है ।। २ ।। रावण साधर्मी विधिवश सीता हरली, धन प्राण गमाये जग बदनामी करली, सीताभी कर्यवश विपत्ति पूरी भरली, पतिसे छूटी दो बार विरह दोजरली, विधिउदय का धक्का बड़ों को भी लागन है । ताके मैटनको किसी की ना ताकत है ।। ६ ।। वाईस वरस अंजना तजी भरतारे, फिर गर्भवती सासु ने निकासी क्यारे, माना पिताभी नहीं दीनी श्रावन द्वारे, वनवन भटकी तिन जाया पुत्र गुफारे, को रोकसके जो कमी की शरारत है। ताके मटन को किसी की ना ताकत है ॥ ४ ॥ दोपदी सती कहलाई पंच भरतारी, दुस्सासन ने गह चोटी ताहिनिकारी, विधि
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। योग पाण्डव हारे पृथ्वी सारी, फल कन्द खात बन भये वकला धारी, राजों को कर्म यह भिक्षा मंगवावत है, ताके मैंटन को किसी की ना ताकत है ।। कृष्ण के जन्ममें काहू न मंगल गाये, फिर पले नीच गृह वस गोपाल कहाये, विधियोग द्वारिका जली विपिन को धाये. भीलके भेप भाता कर प्राणगमाये कहीं जाउ पिछाड़ी कर्म का दल जावत है, ताके मैंटन को किसीकी नाताकत है ।। ६ ॥ श्रीपाल मदन तन कुष्ट व्याधि तिन भोगी, कर्मोदय से भये काम देव से रोगी, कुम्हरा धी व्याही माघनन्दसे योगी, जो सदारहे तप संयम में उदयोगी, कर्मोदय आगे सबकी बुधि भागतहै ताके मेंटनको किसीकी न ताक तहै, जो सुधी कर्यके उदय से बचना चाहै. तो श्रवण धार गुरु शिक्षा ताहि निवाहै, सम्यक रत्नत्रय धर्म पंथ अवगाहै, शुचिध्यान धनंजय से विधितरुको दाहै, क. नाथूराम जिय यो शित सुख पावत है, ताके मैंटन को किसी की ना ताकत है ॥ ८॥
उपदेशी लावनी ४५॥
जो जगमे जन्मा उसको मरना होगा । षश काल वली के अवश्य परना होगा ॥ टेक ।। जो सुगुरु शीख पर ध्यान नहीं लावेगा , तो नर भवरत्न समान वृश जावेगा । जो सुकृत करे अरु अघ से पछतावेगा , तो वेशक शक समान विभव पावेगा , विन धर्म भवोदधि कभी न तरना होगा , वश काल वली के अवश्य परना होगा ॥ १ ॥ जो विषय भोग में तू मन लल. चावेगा , तो भव समुद्र में पड़ गोते खावेगा , स्थावर तन लहि जडवत हो. जावेगा , यह ज्ञान गिरह का सो भी खोजावेगा , को दुःख निगोद के कहै जो भरना होगा. । वश कालवली के अवश्य परना होगा ॥ २ ॥ जब दल कृतान्त का तुझको आदावेगा , तव कौन सहायक जाके तट धावेगा . तव व्याकुल हो शिर धुन धुन पछतावेगा , जो करे पाप सो तव रोरो गावेगा. धन कुटुम्ब छोड पावक में जरना होगा । वश कातवली के अवश्य परना होगा ॥ ३ ॥ तू अभी पाप करते में विहसावेमा , फल भोगत में हाहा कर
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ज्ञानानन्दरन्नाकर। मुंह वावेगा , फिर जने जने के पद पद शिर नोरगा , फल भोगत में हा हा मुह वायेगा , कहे नाथराम तर विचार करना होगा । यश कालवली के अवश्य परना होगा |॥ ४ ॥
॥शाखी॥ प्रथम प्रभुका नाम ले प्रारम्भ कीने कामजी । कविता करो पिंगल पहा व्याकरण अरु बहु नामजी ॥ ये पढ़ें कविता शुद्ध हो अरु टले विघ्न तमाम जी । यह शीख गुरु की मानिये जिन भक्त नाथरामजी ।।
दौड़॥ विना पिंगल के रचो मत छन्द , यही जानो शिक्षा सुखकन्द । गणागण जाने हो आनन्द , सर्व मिट जाय विघ्न के फन्द ।। नाथूराम कहे गणागण भेद , जिन्हें शाखा कवि कर उम्मेद ।
पिंगल गणागण भेद ४६।
गण अगए जानकर चन्द बनाना चहिये । पिंगल विनजाने कभी न गाना पहिये ।। टेक ॥ अव कवि जनके हित हेतु भेद कुछ गाता , संक्षपाशय जो सदा काम में पाता , है वमु प्रकार गण भेद प्रसिद्ध वताता , शुभ चौप्रकार अरु अशुभ चार समझाता , कवि जनों ध्यान में इसको लाना चाहिये पिंगल विन जाने कभी न गाना चहिये ॥ १ ॥ मगण में त्रिगुरु भूदेव लति उपजाना , नगण में निलघु !! मुर देव आयु बढाता , यगण में श्रा दिल | 55 उदक देव मुखदाता , भगण में आदि गुरु | शाश यश दित विड्याता , ये हैं चारों शुभ इन्हें लगाना चहिये । पिंगल विन जाने कभी न गाना चहिये ।। २ ॥ जगण के मध्य गुरु । ऽ । रवि गद दाता जानो, रगण के मध्य लघु | 5 अग्नि मृत्यु दे मानो , सगण के अन्त गुरु || पवन फिरावे थानो , तगण के अंतलघु ss। व्योम अफल पहिचानो, ये हैं
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। चारों गण अशुभ बचाना चहिये । पिंगल विन जाने कभी न गाना चाहिये ॥ ३ ॥ लघु । इक मात्रिक को कहें सुनो कविभाई , दीर्घ दो मात्रा आदि सुनो मनलाई द्वत्व की आदि में वर्ण पडे जो आई , दघि जानों शिक्षागुरु ने वतलाई , कहैं नाथूराम जिन भक्त सो माना चहिये । पिंगल विन जाने कभी न गाना चहिये ॥ ४ ॥
ऋषभदेव स्तुति १७॥
श्री मरु देवी के लाल नाभि के नन्दन । काटो आगे विधि जाल नाभि के नन्दन ॥ टेक ॥ सुर अंचे तुम्हें त्रिकाल नाभि के नन्दन . सौ इन्दू नवामें भाल नाभि के नन्दन , तुम सुनियत दीनदयाल नाभि के नन्दन , स्वार्थ बिन करत निहाल नाभि के नन्दन , कीजे मेरा प्रतिपाल नाभि के नन्दन । काटो आठो विधि जाल नाभि के नन्दन ॥ १ ॥ लखि तुम तनु दीप्ति विशाल नाभि के नंदन , हो कोटि काम पामाल नाभि के नंदन , त्रिभुवन का रूप कमाल नाभि के नंदन , मानो सांचे दिया ढाल नाभि के नंदन , दर्शत नाशे अघ हाल नाभि के नंदन । काटो आठो विधि जाल नाभि के नंदन ॥२॥ तनु वजू मई मय खाल नाभि के नंदन , ताये सोने सम लाल नाभि के नंदन , मल रहिन देंह सुकुमाल नाभि के नंदन , वाहें ना नख अरु वाल नाभि के नंदन , यह शुभ अतिशय का ख्याल नाभि के नंदन । काटो आठो विधि जाल नाभि के नंदन ॥ ३ ॥ जो तुम गुण माण की माल नाभि के नंदन , कण्ठ धरै प्रात:काल नाभि के नंदन , लहि सुर नर सुख तत्काल नाभि के नंदन , पावे शिव संयम पाल नाभि के नंदन यही नाथूराम का सवाल नाभि के नंदन । काटो आठो विधि जाल नाभि के नंदन ॥ ४ ॥
पारसनाथ की स्तुति ४८। ।
तुम मुनियत तारण तरण लाल बामा के, मैं आया थारे शरण लाल
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। यामा के || टेक ॥ तुम त्रिभुवन आनन्द करण लाल वामा के. विख्यात वि रद दुःख हरण लाल यामा के, तनु श्याम सजल घनवरण लाल बागा के लख दरश लगे अघ डरन लाल वामा के, आनन्द का घर घरन लाल बामा के, में आया थारे शरण लाल बामा के ॥ १ ॥ तुम वचसुन युग अहि करण लाल बागा के, दम्पति ना पाये जरन लाल बामा के, तुम कुमर काल तप धरन लाल वामा के, कच लंच किये मृदु करन लाल वामा के, विहरे भू भवि उद्धरन लाल वामा के, में आया थारे शरण लाल वामा के ॥ २ ॥ मुन ध्वनि तुम निर अक्षरन लाल वामा के, शिवली तद्भव बहु नरन लाल बामा के, बहुतों तज वस्त्राभरण लाल वामा के, दृढधारा सम्यक चरन लाल यामा के, अनुबूत धारे चउवरण लाल वामा के, मैं आया थारे शरण लाल वामा के ॥ ३ ॥ सम्यक्त्व लिया बहु मुरन लाल वामा के, पशुवती भये यस अरन लाल यामा के, यमु अरि हरि शिव त्रिय परन लाल वामा के भये सिद्ध मिटा भय मरण लाल बामा के, नवें नाथूराम नित चरण लाल यामा के, मैं याया थारे शरण लाल बामा के ॥ ४ ॥
चौबीसों तीर्थंकरों के चिन्ह ४९।
श्रीचौबीसो जिन चिन्ह चितार नमों में, बहु विनय सहित आठौ मदटार नमों मैं | टेक ॥ श्री ऋषभ नाथ के वृषभ अजित गज गाया, संभव के हय अभिनन्दन कपि बतलाया, सुमति के कोक पद्म प्रभु पद्म मुहाया, साथिया मुपार्श्व के लक्षण दर्शाया, चन्दू प्रभु के शशि हिरदय धार नोंमें । बहु विनय सहित आठो मद टार नमोमैं ॥ १ ॥ श्री पुष्पदन्त के मगर चिन्ह पद जानो, श्रीतल जिनके श्री वृक्ष चिन्ह पहिचानों, श्रेयान्स नाथ के पद गडा उर अानो श्री वास पूज्यपद लक्षण महिप बखानों. श्री विमल नाथ पद शूर विचार नमों मैं, बहु विनय सहित आगे मद टार नमो मैं ॥ १ ॥ सेई अनन्त जिनवर के लक्षण गाउं, धर्म के वजू मृग शांति चरण चितलाऊं अज कुन्थु नाथके अरह मत्स्य दरशाऊं, मल्लि के कुम्भ मुनि सुबूत कच्छ
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ज्ञानानन्दरन्नाकर। वताऊं, नमि नाथ पद्म दल चिन्ह चितार नमों में । वहु विनय सहित आठों मद टार नमों मैं ॥ ३ ॥ श्री नेमि शंख फनि पार्श्वनाथ पदराजे, हरि वीर नाथ के चरणों चिन्ह विराजे, ऐसे जिनवर पद नवत सर्व दुःख भाजे, फिर. भूल न आवे पास लखत दृग लाजे, कहै नाथूराम प्रभु जगसे तार नमों मैं । बहु विनय सहित आठो मदटार नमों मै ॥ ४ ॥
जिन भजन का उपदेश । ५० ।
मन वचनकाय नित भजन करो जिनवर का, यह मुफल करो पर्याय पाय भव नरका ॥ टेक ॥ निवसे अनादि से नित्य निगोद मझारे, स्थावर के तनु धारे पंच प्रकारे, फिर किलत्रय के भुगते दुःख अपार फिर भया असेनी पंचेंद्रिय बहुवारे. भयो पंचेंद्रिय सेनी जल थल. अम्बर का । यह सुफल करो पर्याय पाय भव नरका ॥ १॥ इस कम से सुर नर नारक बहुतेरे, भवधर मिथ्यावश कीने पाप घनेरे, जिय पहुंचा इतर निगोद किये बहुफेरे, तहां एक श्वास में मरा अगरह वेरे , चिर भूमा किनारा मिला न भवसागर का । यह मुफल करो पर्याय पाय भवनरका ॥२॥ यो लख चौरासी जिया योनिमें भटका वहु बार उदर माता के ऑधा लटका. अब सुगुरु शीख सुन करो गुणीजन खटका, यह है झूठा स्नेह जिसमें तू अटका. नहीं कोई किसी का हितू गैर अरु घरका । यह सुफल करो पर्याय पाय भव नरका ॥ ३ ॥ इस नरतनु के खातिर सुरपति से तरसें, तिसको तुम पाकर खोवत भोंदू करसे, क्षणभंगुर मुख को मीति लागते घरसें, तजके पुरुषार्थ वनते नारी नरसे, मत रत्न गमावो नाथूराम निज करका । यह सुफल करो पर्याय पाय भव नरका ॥ ४ ॥
जिन भजन का उपदेश । ५१ ।
प्रभु भजन करो तज विषय भोग का खटका । चिरकाल भजन विनातू त्रिभुवन में भटका || टेक ॥ तूने चारों गति में किये अनन्ते फेरा, चौरासी
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। लाख योनि में फिरा बहु चेरा, जहां गया तही तुझे काल वली ने पेरा, भग पान भक्ति विन कौन सहायक तेरा, अब कर आत्म कल्याण मोह तज घटका Iचिरकाल भजन विनतू त्रिभुवन में भटफा ।। १ ।। खुत तात मात दारादिक सब परिवार, तनु धन यौवन सब बिनाशीक है प्यारे, मिथ्या इन से स्नेह लगावत क्यारे, ये हैं पत्थर की नाव हुवावग हारे, इन बार वार तोहि अव सागर में पटका, चिर काल भजन दिन तू त्रिभुवन में भटका ॥२॥ तू नर्क वेदना दुर्गति के दुःख भूला, नर पशुहो गर्भ मझार अधोमुख झूला, अब किंचित मुख को पाय फिरे तू फूला, माया मरोर से जैसे वायु वधूला, तू मानत नहीं बार बार गुरु इटका. चिर काल भजन बिन तू त्रिभवन में भटका ॥ ३ ॥ अव पति राग का मार्ग तू ने पाया, जिन रान भजन कर करो सुफल नर काया, त भ्रमे अकेला यहां अकेला पाया, जावेगा अकेला किस की दूढे छाया, कहैं नाथूराम शठ क्यों ममता में अटका, चिर काल भजन विन तू त्रिभुवन मे भटका ॥४॥
शाखी ।। धन्य धन्य जिन देव जिन ने निज धर्म प्रकाशा। जिस की सुर नर पशु भीष के सुन वे की आशा। घरे पंच कल्याण भेद सव. सुनो खुलाशा। गर्भ जन्म तप ज्ञान किया निर्वाण में पासा।
दौड। भव्य ये सार पंच कल्याण, धरें जो चौवीसौं भगवान । गर्भ जन्म तप ज्ञान रु निर्वाण. सुरासुर पूर्जेतजअभिमान। जिन के सुनने से होय वर बुद्ध, नाथू पावे शिव मगशुद्ध ।
ऋषभ देवके पंचकल्याण ।५२।
नाभि नदन तज सदन चले वन शिव रमणी को वरण, आदि प्रभु प्रगटे ता
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ज्ञानानन्दन्नाकर। रख सण जी ।टेका प्रथम गर्भ से मास द्विगुण त्रय नई रत्नों की वृष्टि, पंच दश मान अधि की सृष्टि जीहूंठ कोडि त्रय चार रत्न शुभ वर्षत पाये दृष्टि, क र संशय सुन मूढ निकृष्ट जी,
दोहा। इंडू लुक्स से धनद ने रची अवधि जिय स्वर्ग ।
नव द्वादश योजन तनी ता गध्य उत्तम दुर्ग। पवापीतडाग बहुबरस, आदि प्रभुप्रगटे तारणनरणजी ॥१॥ निविधि ज्ञान संयुक्त जन्म लिया मर देवी के लाल, मुकुट हरिहा कम्या तत्काल जी, साढ़े बारह कोड़ि माबिके तूर बजे सब हाल, सप्त डग चलनायो हरिभालजी ।
दाहा। इन्द्रचले सुरसाय ले करन जन्म कल्याण |
करत शब्दमुर गॅगण में जयजय जय भगवान ॥ नाथ तुम शोभित कीनी धरण, आदि प्रभुप्रगटे तारण तरणनी बीन प्रदक्षण दई नगर की इन्द्र सुरों के साथ, फेर तहां गये जहां जिन नाथनी । इन्धानी हरि हुक्म लियाई जिनवर को निजहाथ, देख दर्शन नाया हरि माथजी ।
दोहा। निरस्व रूप भगवान का तृप्त हुआ ना इन्दू।
तब सुरेश वृग सहसूकर देखे आदि जिनेंद्र ॥ नवाया सस्तक प्रभुके चरण । आदि प्रभु प्रगटेतारण तरणजी ॥ ३ ॥ प्रथम इन्द्रने लिये नाथ तव द्वितिय इन्द्र ईशान । छत्र शिरधारा प्रभुके श्रानजी , सनत्कुमार महेंद्र चमर । दोऊढोरें इन्दू मुजान. शेषमुर करें जय जय भगवानजी ॥
दोहा। नृत्यकरें देवांगना वाजें बहु विधि तूर ।
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। चले गाय मूर मॅगण के वीच शब्दरमा पूरा जाहि मुन मानन्द पाते करमा, अादि प्रभुप्रगटे तारण तरसनी ६४॥ गिरि मुमेरुपर पांडुक बनमें पांडुशिलापर नाय, इन्दने दियनाथ पधराय जी तोरोटघि से नीर हेमघट एक सहस पहुण्याय , इन्द्र ने अन्हवाये जिनरायजी ॥
दोहा। एकचार बमु जानिने योजन कलश प्रमाण ।
सोडारे जिनराज पर हर्ष हृदय में ठान ।। नाथको पहिनाये आवरण , आदि प्रशु प्रगटे तारखा तरणाजी ॥ इरा विपि कलश ऽविशेक इन्द्र कर अवधपुरी में आय, नाभि नृपको सोपे जिनरायजी ।। वृषभ नाथ कहि नाम इन्द्र ने स्तुति मुखसे गाय, सची गुग भक्तिकरी मन ख्यायनी ।।
अमी अंगूठा मेलके इन्दू नाय निज शीश ।
दे अशीस निज गृह गये जयवन्तो ईश ॥ नाथ तुम शोभित कीनी धरण, आदि प्रभुप्रगट तारख तरणजी ॥६॥ लाख तिरेशठ पूर्व राज्यकर तब प्रभु भये उदास , सुस्त लोकांतक सुर आपासनी || स्तुति कर गृह गये फेर सुर इन्द्र प्रमूक दास, रची शिविका प्रभुको मुख राशिजी !!
दोहा। तामें प्रभू प्रारूढो गये तपोवन नाथ ।
वस्त्राभरण उनारके लुचि केश निज हाथ ॥ तहां तप लागे दुर करण, आदि प्रथ भगटे तारण तरणजी ॥ ७ ॥ करतप धार जिनेश हने खल चारि घातिया कर्म , झान तय उपजा पंचम पर्गजी ॥ रामोशरण हरि रखा प्रकाशा तहां प्रभू निजधर्म, मिटाया भविजीवों का मर्मजी।।
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ज्ञानानन्दरत्नाकर
दोहा। देश महसू बत्तीस मे कीना नाथ विहार ।
अप्टापदसे शिव गये हनि अघातिया चार ॥ नाथूराम जहां न जन्मन मरण, आदि प्रभु प्रगटे तारण तरणजी ॥
मुर्ख जैनी की लावनी ५३ ।
जिनमत पाय विपर्यय वर्ते क्या जिनमत पाया,जिन्हेखल कुगुरुन विहंकायाजी टेक ॥ नर पर्याय पाय श्रावक कुल आर्यक्षेत्र प्रधान, मिला दुर्लभ जिन वृपशुभ
आनजी । चलें चालि विपरीति कुगुरु शिक्षापर कर श्रद्धाण , सुनो वर्णन विसका धर ध्यानजी ॥
दोहा। चीतराग छवि शुद्धको चन्दनादि लपटाय ।
परग्रह धारी गुरुन की करत सेव अधिकाय ॥ कहैं गुरुभाग्यन से पाया, जिन्हे खल कुगुरुन विकाया जी ॥१॥
जो कुल का आचार उसी को मानत धर्म अज्ञान, नाम को करें पुण्यअरु दानजी ॥ लंघन को उपवास मानते विना तत्त्व श्रद्धाण, वृथा तन कप्टसह अज्ञान जी ॥
दोहा। चाकी ले वत्तियां जिन गृह मे अधिकाय ।
जालत अति उत्साह से पोषत विषय अघाय ॥ हृदय में अहंकार छाया, जिन्हें खल कुगुरुन विहंकाया जी ॥ २॥ हरित फूलफल कपूरादिक जो हैं वस्तु सचित्त । करें जिनपूजा तिन से नित्त जी ॥ जैनी वन शठयाप पन्थ में अधिक लगाते चित्त, चाहते तिससे आत्म हित जी ।।
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ज्ञानानन्दरत्नाकर।
७३ दाहा। फूल माल जिन नामकी करते शठ नीलाम ।
नामवरी को उमंग के वदवह वोलत दाम ॥ अँधेरा विन विवेक छाया, जिन्हे खल कुगुरुन विहंकायाजी ॥ ३ ॥ वीच सभा में कोई आप पगड़ी लेय उनार, फेर वेचे तिसको उच्चारनी तहां कोई बहु दाम बढ़ाकर लेय आप शिरधार ॥ विना आज्ञा तुम्हरी उस वारजी॥
दोहा। तिसपर कैसे करेंगे आप तहां परणाम ।
द्वैप रूप या हर्ष मय सोच कहो इस ठाम ।। न्याय का अवसर यह आया, जिन्हें खल कुगुरुन विहकाया जी ४ ॥ ना देवाला कढा प्रभू का जिसको वेचत माल, नहीं कुछहैं जिनेन्द्र कंगाल जी, धर्म करो भण्डार में सो धन देउ हाथ से घाल, पकड़ता कौन हाथ तिस कालजी ।।
दाहा। तान लोक के नाथ की करत प्रतिष्ठा हीन ।
कौन ग्रन्थ आधार से हमें वतावो चीन || मुनन कोमो मन ललचाया, जिन्हें खल कुगुरुन विहकाया जी ॥५॥ अभी तो वेचत माल फेर वेचिहैं सिंहासन छन , बुलाके वहु जैनी लिख पत्रजी, अभिमानी शठ धनी नाम को खरीदि कर हैं तत्र, बहुत धन होवेगा एकत्र जी ।
दोहा। वड़ा फलाप्टक सभा में तिन्हें सुनय हैं टेर।
तव क्षण में बहु द्रव्य का होजावेगा ढेर ।। भला रुजिगार नजर आया, जिन्हें खल कुगुरुन विहकाया ॥६॥ निर्लोभी क्षत्री कुल में भये तर्थिकर अवतार, तजा तिन सर्व परिगृह भारजी, राज लक्षमी तृण सम तजली वीतरागता धार | तजा सब संसारिक व्यवहारजी॥
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ज्ञामानन्दरत्नाकर।
दोहा। सो अवलोभी वनिक के घर आया जिन धर्म ।
यासे धन तृष्णा कही क्यों न करे लघु कर्म । कुसंगति का यह फल पाया, जिन्हें खल अरुन बिहकाया जी ॥७॥ हा कलिकाल कराल जिसमें नाना विधि की विपरीत, करी रचना भेपिन - तज नीति जी, ताही को बहुतक पंडित शठ पुष्ट करें कर मीति, न देखें जिन सासन की रीति जी॥
दोहा। जिन वच तिनवच की कुशी करें नहीं पहिचान ।
हठ गाही हो पक्ष को तानत कर अभिमान ॥ न छोडत कुल क्रम की माया, जिन्हें खल कुगुरुन विहकाया जी ॥ यह विचार कुछ नहीं हृदय में क्या निन धर्म स्वरूप, गिरत क्यों हठकर के भवकूप जी, रची उपल की नाब कुगुरु ने डोवन को चिद्रूप, येही अवतार कलंकी भूपजी ॥
दाहा। वीतराग के धर्म की मुख्य यही पहिचान ।
लोभअमृत वच अरुनहीं जहांदृदय अभिमान ।। ताहि ना लख तिमर छाया, जिन्हें खल कुगुरुन विंहकाया जी ॥ ६ ॥
केवल ज्ञान छवी जिनकी तिसपर पंचामृत धार देत हैं उत्सव जन्म में वारजी, नामनरी को जिन गृह कर जिन प्रतिमा तहे विस्तार, धरै तहां क्षेत्र पाल ला द्वारजी ॥
दोहा। तेल सिन्दूर चढ़ाय के करें अंग सब लाल ।
दरवाजे में घुसतही तिन को भारत भाल ॥ पीछे जिन दर्शन दर्शाया, जिन्हें खल कुगुरुन बिहकाया जी ॥१०॥ रण श्रृंगार कथा सुनके अति अंग २ हपोय, बत्त्व कथनी सुन अति अ.
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७५ लतांय जी, कोई कलह बनावे कोई सोचें झोर सांय, कोई हो उदास घर उठ जांगनी ।।
दोहा। अन्यमती सदृश क्रिया करते यहां अनेक ।
तर्पणादि कहां तक कहाँ ढय न रंच विवेक ।। पन्य भेपिन का मन भाया, जिन्हें खल कुशुरुन बिहकाया जी ॥११॥
धन बल श्रायु अरोग्य भोग इनके मिलने की बास, तथा चाहे वैरी का नाशगी, इन फलमादि लुभाने अतिही नाहक सहते त्रास, करें वेला तेला उ पवास नी।।
दोहा। देव धर्म गुरु परखिये नाथूराम जिन भक्त ।
तज विकल्प निज रूप में हूजे अव श्राशक्त । समय पंचम जगमें छाया, जिन्हें खल कुगुरुन बिहकाया जी ॥ १९ ॥
कुटिल ढोंगी भावक की लावनी॥ ५४॥
पन क्रिया मुगुक्त सरावक को तुमसा गुण मूल । कि जिनके वचन बज के मूलनी || टेक ॥ क्षायक सम्यक भयो तुम्हारे उभय पक्ष क्षयकार वंश भेदन कुठार पर धारजी, पर निंदा में करत न शंका निश्शांकित गुण धार, प्रशंसा करत निज हरवारजी, धन्य प्रशंसा योग्य सरावक वर्पत मुखसे फूल । कि जिनके वचन बजने शूलजी ॥ १॥ मुकत कांक्षा तजी सर्व एक वतति पर अपकार, श्रेष्ठ यह निकांछित गुणधारजी, निर्विचिकित्सा गुणभारी पर मुयश न सकत सहार. देखपर विभत्र होत हिय क्षारजी, पंडितों में शिर मौर कल्पतरु कलिके श्रेष्ठ बंबूल, कि जिनके वचन वजूके शूलगी ।।२।। परगुण ढकन लखन पर अपगुण यह गुण दृष्टि अमूढ, कहत यही उपूगृहण मुख गुण गृहजी, एसी शिक्षा देत जाय जिय भवसागर में बूढ यही गुण स्थिती करण अनि रूढ़नी, भात पुत्र का चिन फाइत यह वात्सल्य गुण मूल | कि जिनके
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। वचन यजूक शल जी ॥ ३ ॥ आप अधिक प्रारम्भ करत औरों को शिक्षा देत, प्रभावना अंग अधिक अघ हेतजी, वर्णन कहतक करों इसी विधि सर्व गुणों के खेत, कौतुकी पर दुःख देते प्रेतजी, देख सुयश पर जलत सदा ज्यों भटिओर की चूल । कि जिनके वचन वजू के शूल जी ॥ ४ ॥ चिटीकी करते दया ऊंट को सावित जात निगल, दया के भवनं ऐसे निश्चलजी , वनस्पती की रक्षा को वहु त्यागे मूलरु फल. ठों पंचेंदिन को कर छल जी गन्लादिक में हने अनन्ते निस दिन त्रस स्थूल । कि जिनके वचन बज के शूल जी ॥ ५ ॥ मिथ्या यश के लोभी इससे नित करत प्रशंसा नित्त, चाप लोसियों से राखत हित्तजी, सत्य कहै सो लगे जहरसा जले देखकर चित्त, बात सुन ताकी कोपे पित्तजी, ऐसी प्रकृति सज्जन कर निंदित डालो इसपर धूल । कि जिनके वचन वजू के शूल जी ॥ ६ ॥ एक विनय मैं करों आपसे श्राप विवेकी महा, क्षमा कीजियो मैने जो कहाजी, कविताई की रीति झूठ दुर्वचन जाय ना सहा, दिये विन ज्वाव जाय ना रहाजी, मत मनमें लज्जित होके अपघात कीजियो भूल । कि जिनके वचन वजू के शूलजी ॥ ७ ॥ पर निंदा अरु आप वड़ाई करें सो हैं नरनीच, वनें अति शुद्ध लगा मुख कीच जी, वेशर्मी से नहीं लजाते चार जनों के बीच, पक्ष अपनी की करते खींच जी, नाथूराम जिन भक्त करें बहु कहें तक वर्णन थूल । कि जिनके वचन वजू के शूलजी ॥ ८॥
जिनेंद्र स्तुति ५५।
न देखा प्रभु तुमसा सानीजी वर निज गुण का दाना ।।टेक ॥ स्वार्थीदेव नजर आते, नाशिव मग वतलाते । प्रापही जो गोते खाते, तिनसे को मुख पाते, नहीं तुमसा केवल ज्ञानीजी, वरनिज गुण का दानी ॥ १ ॥ निकट संसार मेरेआया जो तुम दर्शन पाया । लखत मुख उर आनन्द छाया , सो जाय नहीं गाया ,दरश थारा शिव सुख खानीजी, वर निजगुणका दानीजी बहुत प्राणी तुमने तारे जोथे दु:खिया भारे । गहे मैं चरण कमलथारे, सव ।
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ज्ञानानन्दरत्नाकर।
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हरो दुःख म्हारे तुमप्ता को जो भवथिति हानीजी वरनिज गुणकादानी ॥ सुयश इतना प्रभुजी लीगे, वमुकर्म रहिन कीजे । नाथूराम को मुत्रोध दीने जासे भूव घिति छीजे, जयें तुम नाम भव्य प्राणीजी वरनिज गुणकादानी ॥
जिनेंदू स्तुति ५६ ।
प्रभुनी तुम त्रिभुवन नाता जी. दीने जनको साता ।। टेक । भूमों में भव वन में भारी बहु भांति देह धारी। कभी नर कभी भया नारी क्या कहूं विपति सारी, मिल अब तुम शिव मुख दाताजी, दीजे. जनको साता.॥ १॥ मुयश तुम गणपति से गावें, शक्रादिक शिरनावें , चरण श्राश्रय जो जन या सो वेशक शिव पायें । तुम्हीहो हितू पिता भाताजी दाजे जनकोसातार लखा मैं दर्शन सुखदाई,निधियाग अतुल पाई, खुशी जो मोचितपर छाई सो जाय नहीं गाई । शीश तुम चरणों में नाता जी, दीगे जनको साता ॥३॥ जपें जो नाम मधूधारा पाये शिव मुख भारा, नशे दुःख जन्मादिक सारा. उमेर भवजलपारा । नाथूराम तुम पदको ध्याता जी. दीजेजनको साता ॥४॥
भव्य प्रशंसा ५७.
--- - - . मूगुरु शिक्षा गिनने मानी जी , भये धन्य वेहीमाणी ।। टेक ॥ विषय विपवन जिनने चीन्हे तनकाम भोग दीने, धर्मबूत जपतप उरलीने निजयात्म रसभाने । उनी मन रुचिघर जिनवाणी जी, भये धन्य वेही माणी ॥ १ ॥ मनुन भव लहि गुकृत फीना, विधि चार दान दीना, कर्मवाहको तपकरतीया शिवपुर वासा लीना । परीजिन जाय मुक्ति रानी जी,भये धन्य वेहीप्राणी.२ मिटा अब त्रिजगत का फेरा तिष्टे अविचल डेरा, इरादुःख जन्ममरण केरा तिनको प्रणाम मेरा । अष्ट विवि की जिन थिति मानी जी, भये धन्य वेही माणी ॥ ३ ॥ कवे यह दिन ऐसा पाऊं. वसु विधि तरको ढाऊं । पास उस
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। शिव त्रिय के जाऊं. ना फेर यहां ग्राऊं, नाथूराम भक्ति हिये श्रानी जी भये धन्य वेही माणी ॥ ४ ॥
शाखी। चितवत जिन नाम फल उपवास होतहजार जी। फल गमन करतेदरश कोहों लाखमोषध सारजी। होकोड़ा कोड़ि अनन्त फलपोषध दरशतेवारजी, करदर्शनाथूराम ऐसे नाय का इरवारजी ॥
दौड़। करो दर्शन जैनी निशि दिन, गृहमत भोजन दर्शन दिन । सार दर्शन बतलाया जिन, खवर इसकी मत भूलो तिन । समझ मनजो शिवकी इच्छा, नाथूराम पनपर यह शिक्षा ।
जिन दर्शन की लावनी ॥ ५८॥
आज प्रभु का दर्शन पायाजी । आनन्द उरमें छाया || टेक | मिटा मि. थ्यापय अंधियारा, भूम नाश भया सारा, हुआ उर सम्यक उजियारा, शिव मार्ग पद धारा, कार्य सीझगा मन भाषा जी । वानन्द उसमें छाया ॥१॥ कम्पतरु परे गृह फूला, देखत सब दुःख भूला, भया चिंतामणि अनुकूला, प्रोको सब सुख मूला, हर्ष कुछ जाय नहीं गायाजी । आनंद उरमें छाया ।। स्वपर पहिचान भई सारी, पर परणति वमि डारी, मुगुरुवच श्रदाउर धारी। दुःख नाशक हितकारी लस्वत मुख मस्तक पद नायाजी, श्रानंद सर में आया दया अप दया नाय कीजे, निज चरण शरण दीजे । नाथूराम निश्चय पर लायाजी , आनंद उरमें छाया ४॥
जिन भजन का उपदेश ५९।।
भजन जिनवर का कर विविधि प्रकार करें भवोदधि पार | टेक ॥ अन्य -
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AMOLAR
ज्ञानानन्दरत्नाकर। . देवसव रागी देवी काम क्रोध की खान, वीतराग सर्वोत्कृष्ट एक दाता पद निर्माण । धर्म नौका में भविजन को धार, कर भवोदधि पार ॥ १ ॥ जिन सम देव अन्य को जगम करे कर्म रिपुनाश, भ्रमतम हरण भानु जिनवाण तासम वचन प्रकाश । ऐसे तो केवल जिनवरही सार, करें भवोदधिपार २ ॥ संवतशत सुरराय हपंधर चरण कमल जिनराय, पूजत भविजन माय जिना लय वमुविधि द्रव्यचढाय । पूर्व पापों का करते संहार, कर भवोदषिपार ३ ॥ नाथूराम जिन भक्त ऐसे जिनवर को वारम्वार, मस्तक नाय प्रणाम करें करने को फर्म अवतार । भक्ति जिनवर की सुर शिव दातार, करें भयो "दापि पार ॥४॥
रावण को उपदेश ६०।
युगल कर जोड़े मंदोदर नार, विनवे पारम्बार ।। टेक ।। मुनो यह गिनती अवला की नाथ, साधर्मी रघुनाथ । मिलो तुम उनसे सीताले साथ, अतिशय मारे हाथ ॥
दोहा। इन्द्रजीति अरु मेघनाथ सुत कुंभकरण तुमभात ।
यन्दि किये रामने छुड़ायो तिनको जाय प्रभात ॥
वचन दासी के चित्र लीजेधार, विनवे वारम्बार ॥१॥ . गयुत बोले लंकेश्वर बैन, बीत जान दे रैन । प्राव हनि अरि को सद मारों सैन, तयहो मोचित चैन ।
दोहा। प्रवल शत्रु लक्ष्मण में मारा रहा तुच्छ अब राम । ताकोहनि सुत बन्धु छुटाऊं तो दशमुख मुझनाम ।
झूठ मत जाने मावचन लगार, विनवे वारम्वार २ ॥ कहै त्रिय तुमको मियनाहिं खबर, पक्षराम की जवर । शक्ति लक्ष्मण की पियगई निकर, मुनी न तुमने जिकर ।।
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ज्ञानानन्दरत्नाकर।
दोहा। तुम मति हरि वे हरिवल उपजे ना इसमे संदह ।
यासे वैरकरो मत उनसे विनती मानो एह ।। घरोमत शिरपर अपयश का भार, विनवे वारम्बार ॥ ३ ॥ भातसुत वाधे अरु शक्ति कही, क्या विभूति उन वढी । सस्त्र मेरोंपर क्या जंग चढ़ी, जो इतनी त्रियरदी॥
दोहा। नाथूराम जिन भक्त यानगज पर रावण आरूढ़। हितकी बात सुने ना कानों किया मृत्यु ने मूढ़ । जहर से लागे अमृत वचसार, विनवे वारम्बार ॥ ४ ॥
तोते की लावनी सोरठ में ६१ ।
करप्रभु का भजनतू तोता, क्यों जन्म अकारथ खोता ।। टेक ॥ यह क्षण . भंगुर है काया, यासे तूने नेह लगाया। तनुक्षण में होगा पराया, जिस वक्त अबाधा आया।
छड़। ये प्राण आत ना लगे वारकढ़ जावे एकपलमें । हवा लगे ढलजाय बुलबुला जैसेरे जलमें ॥ क्योंजी | काल महावलवान उसपै ना वचे कोई कल में तूहो तोते हुशयार नहीं वह मारेगा श्लमें जी॥
दोहा। कौन शरण संसार में जहां बचे तू जाय । मुर नर पति तीर्थेश से लिये कालने खाय ॥ अबभी तू मूर्ख सोता क्यों जन्म अकार्थ खोता ॥ १॥
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"फिर ऐसा समय नापैहै, अवसर चूके पछितहै । इसवक्त जो गाफिलरहै तो बहुतेरे दुःख सहै ॥
ये सुरनर नर्कतिर्यंच चारगति लखचौरासी योन।
भूना अनन्त काल रही धरने से वाकी कौन ॥ क्योंजी । नाम अनेक धराय मूढ़ बहु वसाकष्टके भौन । अबभी चेतनहीं तुझको जो धाररहा है मौनजी ॥
दोहा। नर भव उत्तम क्षेत्र अरु मिला उच्च कुल आय ।
जो अब कार्य नाकर तो पाछे पछताय ।। फिर पछताये क्या होता, क्यों जन्म अकाथै खोता ॥२॥ तू शानदृष्टि विन अंधे करता अवि खोटे धंधे। जिस गुण में जीव जगवंधे सोही डालतू निज कन्धे ॥
छड़॥ ये तात मात सुत भात मित्र त्रिय आदि कुटुंबीलोग, हैं स्वार्थ के सगे सर्व इनका अनिष्ट संयोग ।। क्योंजी । मेरे साथ ना जाय कोई भोगें निज निज मुख भोग, स्वार्थ के खातिर पछतावे किंचित कर कर सोग जी ॥
दोहा। सहै नर्क दुःख जीव निज कोई न करे सहाय | ____ यामे अब जिय चेततू कर निज कार्य उपाय ।। ___ स्नेह जगत का थोता, क्यों जन्म अकार्य खोता ॥३॥ तूने देव कुदेव न जाना, कुगुरुनही को गुरु माना, तिनही के फन्द ठगाना शिवपुर मार्ग विसराना ।।
ये बहु विकथा वकवाद सुनी नित काम क्रोध की खान,
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। वीतराग मार्ग सुदया मय धर्म सुना नहीं कान ।। क्योंजी । जप तप संयम शील न धारा दाता पद निर्वाण, कुविसन निशिदिन सेय निरन्तर रहादृदय मुखमानजी ।।
दोहा। । नाथूराम उचित यही अव विचार वृग खोल । हितकारी अनुपम समय कहा जात अनमोल ॥ . देखो जग सारा रोता । क्यों जन्म अकार्थ खोता ॥
भरत की लावनी ६२।
दशरथ नदन सदन तजकर । अस्त्र कर लसत चलत सजकर | टेक ।। नगर जन तडपत भरत लखत, कहत वच कह कर मलत शखत, कहत जन हलधर चरण भगत, कढत हलधर यह दरद फकत, कहत वच भरत चलत भजकर । अस्त्र कर लसत चलत सजकर ॥१॥ भरत जब फसत कमर इन हन, नगर तज धरत-चरण वन. बन, कहत सब जन इलघर धन धन, बसत हम घट घट बर मन मन, सफल हम तन वल पद रजकर | अस्त्र कर लसत चलत सजकर ॥ २ ॥ भरत जब नवन चरण हलघर, कहत वर वचन धरन पद घर, कहत वच हलघर तब इसकर, बरस छह छह गत घर पदधर, भरत तब चलत अवध लजकर । अस्त्र कर लसत चलत सजकर ॥ ३ ॥ भ रत नव अगज चरण कमल, चलत घर नयनन बरसत जल, भरत अरजन पर करत अमल, कहत.यह परम कथन नथमल, रटत हलधर यशवर धजकर। अस्त्र कर तसत चलत सजकर ॥ ४ ॥
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हर्दा के मंदिर की अतिशय ६३ ।
श्री श्यामबरण महराज गरीव निवाज रखो मम लाज मैं आया शरण ।
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। सुमहो त्रिभुवन के नाथ जोड़ में हाथ नवाऊं माथ तुम्हारे चरण ॥ टेक । तुम हो देवन के देव देव करें सेव सदा स्वयमेव तुम्हारी नाथ, सौ इन्दू नवमें भाल दीन दायाल तुमको त्रैकाल मैं नाऊं माथ, छवि तुम्हरी दर्शन योग्य बहुत मनोग्य तजे भव भोग तुमने इकसाथ, श्री वतिराग निर्दोष गुणों के कोष मैं जोडों हाय ॥
छड। सुन भाई श्री वीतरात की मूर्ति पूजो सदा । सुन भाई इति भीति भय विघ्न होय ना कदा ॥
सपट। कर देव अतिशय नाना विधि हर्षधार तन में । तिन्हें देख आश्चर्य वान होते पाणी मन में ॥
भेला। एसी अतिशय अधिकारी, होवें जिन ग्रेह मझारी, तिनको देखें नरनारी उर हर्ष होय अति भारी, अव तिनका कुछ विस्तार सुनो नरनार, हर्ष उरधार जो चाहो तरण | तुमहो त्रिभुवन के नाथ जोड़ मैं हाथ नवाऊं माथ तुम्हारे, चरण ॥ १॥ श्री हर्दा का जिनधाम पवित्र सुगम तहां किसी भाम ने अ विनय करी, दर्शन को आई अपवित्र देख चारित्र सुरों विचित्र विक्रिया धरी, ' श्री शान्ति मूर्ति जिनदेव तिससे पसेव कढा स्वयमेव उसीही घरी, श्री जिन म तिमा से महा भूमि जल वहा जाय ना कहा लगी ज्यों झरी ।।
छड़। सुन भाई यह देख असम्भव अतिशय सव थरहरे, सुन भाई नरनारी सव आश्चर्यवान हुए खरे,
सर्पट। अन्यमती भी यह चरित्र सुन दर्शन को आये, धन्य २ मुख से कह नर त्रिय जिनवर गुणगाये ।
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ज्ञानानन्दरन्नाकर।
मेला। बहु विधि स्तुति नरनारी कीनी जिन गूह मझारी, तव देव विक्रिया सारी, होगई क्षमा तिसवारी, यह देख अशुभ विक्रिया सर्व नर त्रिया त्याग बदक्रिया लगे अघ हरण, तुमहो त्रिभुवनके नाथ जोड़मैं हाथ नवाऊं माथ तुम्हारे चरण र अब कहूं दूसरी बार की अतिशय सार मुनो नर नार धार त्रय योग, बनता था श्री जिनधाम लगा था काम तहां तमाम जुड़े थे लोग, तिन यह मन्सूवा , ठान कि श्री भगवान को छतपर पान करो उद्योग, यहां पूजन की विधि नहीं. बनेगी सही सवन यह कही समझ मनोग
सुन भाई जिन प्रतिमा को दो जने उठाने गये, सुन भाई तिन से जिनवर किंचित ना चिगनेभए
सर्पट। लगे उठाने लोग बहुत तब कर कर के अति शोर हुआ प्रभू का शासन निश्चल चला न किंचित जोर
मला। निशि स्वप्न सुरों ने दीना, तुम हुए सकल मति हीना, यह कम चौडाहै जीना, कैसे ले चढहो दीना, इससे यहीं पूजन सार करो नरनार हर्ष उरधार जो चाहो तरण, तुम हो त्रिभुवन के नाथ जोड़ मैं हाथ नवाऊं माथ तुम्हारे चरण ३ ऐसी अतिशय बहु भांति जहां गुणपति करें सुर शान्ति चित्तं नित धरें, तहाँ श्रावक नर त्रिय आय दुव्य क्सु ल्याय वचन मनकाय से पूजें खरें जब आरे भादों मास होय अघ नाश सर्व उपवाश पुरुष त्रियकरें, नाना विधिमंगल गाय तूर बजाय वचन मनकाय भक्ति विस्तरें
छड़। सुन भाई कार्तिक फाल्गुण आषाढ़ अन्त दिन आठ, सुन भाई दूत नंदीश्वर का रहै जहां शुभ ठाठ,
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ज्ञानानन्दरत्नाकर
सर्पट। दिन प्रति पूजा शास्त्र कथादिक होवे अधिकार कटें पूर्व कृत पास दृष्टि जब गाते जिनराई
धन्य जन्म उन्हीं का सारा, देखें दर्शन प्रनु थारा, है यही मनोर्थ म्हारा नित दशन दो त्रयवारा, यो बिनती नाथूराम करें बटु, याम रखे निजधामः प्रिटे भय मरण | तुमहो त्रिभुवन के नाथ जोड़ में हाथ नवा माथ तुम्हारे चरण
जिनदर्शन की लावनी ६४।
महारान लाज रखो जनकी, जन चरण शरण गाया. धन्य दिन तुम दर्शन, पाया || टेक ॥ मिनराज नाथ त्रिभुवन के त्रिभुवन के दुःख ही , मुक्ति मगके प्रकाश की, चरण युग थारे जो निन हिरदे धर्ती । कर्म हनि मुक्ति, वधूयता, जनगन्धों में ऐसा वर्णन गाया, धन्य दिन तुम दर्शन पाया. लाज रखा जनकी ॥ १ ॥ भये आज मुफल पदमेरे जो तुमतक चलाये, धन्यवृगः तुम दर्शन पाये, मुफल कर मेरेजो पूजन फल न्याये । धन्य रसना जिनगुण गाय, मुफल मम मस्तक तुम चरणन तलनाया, धन्य दिन तुम दर्शन पाया लाज रखो जनकी ॥ २ ॥ महराज इंद्रशत थारी करते यमुविधि पूजा, अन्य. तुम सम न देव दूजा, वचन गृदुधारे शशि मिश्री के खूजा । परत हिरदे शिवः मग सूजा. विरह यह थारा प्रभु त्रिभुवन में छाया, धन्य दिन तुम दर्शनपाया' लान रखो जनकी ॥ ३ ॥ जिनराज दास की विनती, यह विनती सुनलीजे, नाश यमुविधि अरिका कीजे, वारा शिवथल का निज सेवक को दीजे । कार्य. तुम से मेरा सीजे, नाथूरामयोर दर्शनको ललचाया, धन्य दिनतुमदर्शनपाया४.
जिनभजन का उपदेश ६५ ।
जपो निनराग नाम राच्या, अन्य देव सव रागी द्वैपी मिथ्यामत रच्चा
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। टेफ ॥ कहत सब दया धर्म की मूल, फिर हिंसा यज्ञादि में करते यह मूसाँकी भूख, पो उन वेद शास्त्रपर धूल, जिनमें हिंसाधर्म प्ररूपा शास्त्र नहीं ये शूल
दाहा। जो पुष्टों करके रचे काम क्रोध की खान ।
शास्त्र नहीं वे शस्त्र हैं घातक निज गुण ज्ञान ॥ जैन विन अन्य वयन कक्षा,अन्य देव सब रागी द्वेषां मिथ्यामव रच्या १॥
शस्त्र धारें क्रोधी कामी, या सेवक निर्वल शंकायुत सो अपूज्य नामी । दयायुत जो अन्तर्यामी,सो क्यों हत शस्त्र गहि पर जियो त्रिभुवन स्वामी ।।
माशकरे पर प्राण का सो क्यों रहा. दयाल |
जैसे मेरी गात अरु वांझ कहै ज्यों वाल ॥ वाझ क्यों रही जना बच्चा, अन्य देव सव रागी द्वैपीमिथ्यामत रस्यार
रमे ईश्वर निजपर नारी,सो कुशील को त्याज्य कहा क्यों यह अचरम भारी, गयी मवि मूलों की मारी,राग द्वैपकी सान तिन्हें को ईश्वर भरवारी!!
दोहा। शाम कोषयश जो मरे सह नर्क दुःख प्रार।
तिनको शठ ईश्वर कहै सो कैसे हरै पाप ॥ पर जो आप नर्क खच्चा, अन्य देव सब रागी वैषी मिथ्या मत रच्चा ॥३॥
सारएक वीतराग वाणी, जो सर्वज्ञ देव निज भाषी त्रिभुवन पतिज्ञानी। जिसे हरि हल चक्रीमानी, सेवतशत सुरराय हपंधर सतगुरु बक्सानी ॥
दाहा। जागणी के सुनतही होय जीव सुज्ञान । '
नाथूराम भवतज लहैं निश्चय पद निर्वाण ॥ फेरना जने ताहि जच्चा, अन्य देर सव रागी द्वैपी मिथ्यामत रच्या ॥४॥
देव धर्म गुरुपरीक्षा ६६।
करो देव गुरुधर्म परीक्षा शिक्षा हितकारी गुरुवार बार समझा सव चेतो
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ज्ञानानन्दरत्नकिर। नरनारी टेक || रागदेष मद मोह श्रादि जिनके वसे स्वयमेष, कामी कोषी छलबारी सो जानों सर्व कुदेव, वीतराग सर्वज्ञ हितेच्छक शिक्षा बहुभेष, संसार भूमण ना नाके सो नानी सर्व सुदेव । ऐसे लक्षण शुभ अशुभ देख परिधान करो सारी, गुरुवार वार समझाब सब चेतो नरनारी १ ॥ शड सगूंग जो तपकर धरै बहु पादम्पर मानी, अपि यती वन वैरागी निजमुख से भज्ञानी । धनले वीर्य के नाम बने या परधन ले दानी, ये घि इ कुगुरु के मानो जो भाप जिनपाणी, नितपो शिथिलाचार रहैरत काया से भारी गुरु बार बार समझायें सब चेतो नरनारी ॥ २ ॥ निन पो विषय कपाय और आहार सदोष करें, हिंसामय धर्म वतावें सो जानो अगुए खरै । मोनिबाधक तप तपें दिगम्बर शांति स्वरूप धरें, सो मुगुरु तिन्हें नित सेवो परतारें श्राप तरे, अब सुनो कुधर्म सुधर्म रूप लख पूजोधी पारी, गुरु पार वार समझाये सब चेतो मर नारी ॥ ३ ॥ पक्षपात युत रागद्वैष पोषक जामें उप देश, श्रृंगार युद्ध क्रीड़ादि इनका स्वतंत्र आदेश ॥ ऐसा कुधर्ग पहिचानवजी अषखान सजो मत लेश । शुभधर्म दया युत पालो जो मापा प्राप्त मिनेश। सम्यक रत्नत्रय रूप भूप त्रिभुवन पति हितकारी | गुरु बारबार समझा सब
तो नर नारी ॥ ४॥ यो परख मुदेव सुगुरु सुधर्म पीछे कीजे श्रद्धाण । विम किये परीचा पूर्ण सो पीट लीक अज्ञान || दमड़ी का बर्तन सय उसे गे फिर फिर देकाना देवादि परख ना पूजे सो जगमें रत्न महान ।। कई नाथूराम निम भक्त समझ क्यों बनते अविचारी, गुरु बार २ समझा। सब घेतो नरनारी
श्रीजिनेंदू स्तुति ६७।
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शरणं मुख दाईजी महराज धन्य प्रभुताई तुम्हारी जिन देव, तुम्हारी जिन देवहो तुम्हारी जिनदेव, करें सुरनर सेव ॥ टेक || अधम उद्धारक जी मह राज भवोदधि तारक प्रभु त्रिभुवन त्राता, प्रभू त्रिभुवन आताहो प्रभू त्रिभुवन जाता । नमों शिव सुखदाता । वहुत भव भटकाजी महराज अवोमुख लटका कर्मवश रमाना, कर्म वश उरमाताहो कर्मवश उरमासा, नहीं पाई सादा ।
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ज्ञानानन्दरत्नाकर।
दोहा। तीनोपन दुःख में गये मुख ना लयो लगार ] '
अब कुछ पुण्य उदय भयो पाये त्रिभुवनतार ।। गया दुःख साराजी महराज लया मुख भारा लखे भवोदधि खवा लखे भवोदधि खवाहो लखे भवोदधि खवा, करें सुरनर सेवा।।। नर्क दुःख पाया जी महराज जाय नहीं गाया तुम्ही जानत ज्ञानी, तुम्हीं जानत शानीहो तुम्ही जानब ज्ञानी, नहीं तुमसेछानी । नारकी मारेंजी महराज क्रोध अति धारेंडाल पेलें धानी, डाल पेले घानीहो टाल पेलें धानी, सहै अति दुःख प्राणी ॥
दोहा। सह सागरी दुःख घने धरधर जन्म अनेक ।
तहां कोई रक्षक नही भुगत आत्म एक ॥ शरण अब आयाजी महराज चरण शिरनाया तुम्हीहो मुधिलेवा तुम्ही हो सुधिलेवाहो तुम्हाही सुधि लेवा, करंसुरनर सेवा ॥ २ ॥ पशःख सारा जी महराज सहा अति भारा कोन मुख से गाने, कौन मुखसे गावेहो कौन मुखसे गाये, पराश्रय जो पाये । जोते अरु ताद जी महरान गारे अरु बारे मांस तक कट जावे, मासतक कटजावहो मांरातक काटनाने, तहां को बचाव
तृणपानी भी पेटभर मिलत समय पर नाहि ।
वहत भार हिम धूपमें मिलत न पलभर छोहि ।। सुना यश भारी जी महराज जगत हितकारी दीजे शिव सुख मेवा । दीजे । शिव सुख मेवाहो दीजे शिव सुख मेवा, करें सुरनर सेवा ॥ ३ ॥ देवपद । थाने जी महराज बृथा सुखमाने नही तहाँ मुख होता, नहीं तहां सुख होता हो नहीं तहां सुख होता, विषयवश दिन खोता । मरण थिति आवेजी महराज । महा बिललावे अधिक दुःखकर रोता, अधिक दुःख कर रोताहो अधिक दुःख . कररोता, खाय विधिश गोता।
रंच न सुख संसार में देखा चहुँ गति टोहि ।
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। यासै भव दुःख हरण को भक्ति देहु निजमोहि ॥ नाथूराम यांचा जी महराज देहु मुख सांचा भक्त लख स्वय मेव, भक्त लव स्वर मेकहो भक्त लख स्वय भेव, करें सुरनर सेव ४ ॥ ऋषभदेव स्तुति लुप्त वर्णमालामें ६८ ।
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अजर अमर अव्यय पर दाता; आदीवर प्रभु जगत विखाता । इसपर भव मुखदाई, ईश्वर त्रिजगत के पारकरो जिनराई ॥ टेक || उत्पति मरण जरागद नाशो अबलोक शिखरदो वासो, ऋषभ ऋषीपद दाता ऋआदिक देवी सेवकरें तुम माता, एक चित्त जो तुमको ध्यावे. ऐश्वर्यितहो शिवपदपावे
और न जगले पाता, औरों को जगसे तार अहो जगत्राता | अंग अंगमेरे हपाये, ग्राहनाथ तुम दर्शन पाये, कर्म को अधिकाई, ईश्वर त्रिजगत के पार करो जिनराई ॥ १ ॥ खल कर्मा मोहि बहुत भूमाया गमन करत भव अन्त न आया, षटी न भवथिलि स्वामी, वरणाम्बुज थारे यासे गहे युगनामी । छत्रतीन थारे शिरसाह जगत जीव देखत मन मोहे, झल झलाट धुतिचामी देटे भक्वेडी होवे मुमनि आगामी, ठहरे काल अनन्त तहांही, डोले ना इस जगक मादी । होहल युत हलाई ईश्वर त्रिजगत के पारकरो जिनराई ।। २ ।। णमो युग्मपद पद्म तुम्हारे, तीन भवन भवि तारण हारे, थकित अमर नर नारी दर्शन ग देख नाशति विपदा सारी । धन्य धन्य सुरनर उच्चार नवत चरण सब पाप निवारे, पावें परम सुख भारी, फल दायक जग में तुम दर्शन हितकारी । यसब गणधरादि गुण गावे भली भांति गुणपार न पावें, महिमा तिहं जग छाई ईश्वर त्रिजगत के पार करो जिनराई ॥ ३ ॥ युगचरणाम्बुज भंग करीज, रक्षाकर निज सेवा दीजे लीजे खबर जनकेरी, वरभक्ति तुम्हारी नाशक है भरी। शोभित तीन जगन के नायक, पट कायक जीवन सुख दायक, सुधि लीजे प्रभु मेरी, हनिये विधि आगे कीजे नहीं अब देरी, क्षण तण नाथूराम शिर ना त्रिभुवन पति थारे गुण गावें । ज्ञानकला शुभपाई ईश्वर त्रिजगन के पारकरो जिनराई ॥ ४ ॥
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ज्ञानानन्दरन्नाकर। नेम विवाह ६९॥
यदुपती सती शुभ राजमती विग त्यागी नहराज जाय तप गिरि पर धाराजी । महि ज्ञानचक्क कर वकू मोह भर क्षण में माराजी | टेक ॥ पन अतुल देख जिनवर का कृष्ण शकाने, महराज राज का लालच भारीजी, ताके वश होके कृष्ण कुटिलता मन में धारी जी, करो नेमांश्वर का व्याई कही हरि साने, महराज उग्रसेन की दुलारी जी, यांची नेमीश्वर काज मु. शीला रजमति प्यारी जी, सनके बरात जूनागढ को हरि आये, मार्ग में हरि ने वनपशु वहुत घिराये, महराज लखे दृग नेम कुमारानी । गहि ज्ञान पर वक मोह भट पाण में माराजी ॥ १ ॥ धेरा में पशु अति आरति युत विल. लाव, महराज अधिक दीनता दिखा जी, लख के दयालु नमीश्वर को दग नौर वहावे जी, प्रभु कही रक्षकों से क्यों पशु घिरवाय, महराज कही उन य दुपति आजी, व्याहन को तिन संग नीच नृपति सो इनको खाजी, मन श्रवण नेम प्रभु धिक् २ पचन उचारे, सब विषय भोग विप मिश्रत प्रसन विचारे, महराज मुकुट अचला पर डाराजी । गहि ज्ञान चक कर बक मोर भट क्षण में माराजी ॥ २ ॥ कूम से बारह भावना प्रभू ने भाई, महराज तुरत लौकांतक आये जी, नति कर नियोग निज साथि फेर निज पुरको धायेजी. तब मुरपति सुरयुत आय महोत्सव कीना, महराज प्रभू शिरका बैठामे जी, फिर सहसाम वन माहि प्रभू को सुरपति ल्याये जी, तहां भूपण वशन उतार तुंच कच कीने, सिद्धन को नमि प्रभु पंच महाबूत लीने, महराज किया दुदर तप भाराजी । गहि ज्ञान चकू कर बक मोह भट क्षण में मारानी ॥ ३ ॥ अव राजमती ने सुनी लई प्रभु दित्ता, महराज उदासी मनपर बायीजी । धिक जान त्रिया पर्याय लेन व्रत गिरि को धाईजी, जवमात पिताने सुनी अधिक दुःख पाया, महराज बहुत राजुल समझाईजी । जबदेखी परमउदास उदासी सबको बाईजी , राजुल ने दितालई जाय जिनवर पर मृदुकेश उपाड़े नारि
आप कोमल कर, महराज किया दुद्धर तपभारानी । गहि ज्ञान चक्रकर वक्र मोहभट क्षण में माराजी ॥ ४ ॥ कृशकर के काय कपाय अमर षद, पाया,
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ज्ञानानन्दरत्नाकर।
महराज बरेगी अव शिवरानी जी । श्री नेम घातिया घाति भये प्रभु केवल ज्ञानीनी, वह भव्यन को सम्बोधि अघातिय पाते, महराज सर्व भवकी थिति हानजी || वर अविनाशी पदपाय दियाजगको कर पानी जी, कहैं नाथूराम जिनभक्त सुनो जगत्राता, निजभक्ति देहु अरु मैटो सबै असाता । महराज लियापद पद्मसहारा जी, गहि ज्ञानचक्र करवक्र मोहभट क्षण में माराजी५॥
गणेश की व्याख्या ७॥
गणधर गणेश गणीन्दू गणपति आदि नाम बहु सुखदाई, तिनका वर्णन जिनागम के अनुसार सुनो भाई | टेक ॥ महाईश श्रीमहेश जिनवर महादेव देवच के देव, तिनको याणी गिरा सो द्वादश अंग खिरै स्वयमेव । तिनअंगों को मथे करें अभ्यास होय तत्र गणधर देष, मिराअंगके मथन से यो गणेश भाप जिन देव ॥
शेर।
यती ऋपी मुनि अनागार समूह को गण जानजी, तिस गणके ईशगणेश ऐसी संधि गुण पहिचान जी । सो शारदा वाणी जिनेश्वर कीधरे उरम्यान जी. यो शारदा के पति कहे गणराज बुद्धि निधान जी । सो देवॉकर पूज्य गणाधिप विमल कीर्तिजग में छाई, तिनका वर्णन जिनागम के अनुसार सुनो भाई ॥ १ ॥ घटें प्रतिष्ठा कटे नाक अरु वढ़े प्रतिष्ठा वढ़े सही, इस उपमा को दिखाने नाक बड़ा गज इंडिकही । सवमुनिगण में बड़ी प्रतिष्ठा गणपति की जमवीघ लही, बड़ी नाशिका बताई गणेश की सो हेतुयही ॥
शेर।
मुख्य वक्ता जो सभामें विपुल विद्या का धनी, झपे न बोले गर्जिके नि. . शंक छवि जिसकी बनी । तिसका बड़ामुख सयकह पावे प्रतिष्ठा वयनी ॥
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ज्ञानानन्दरत्नाकर।
इसहेतु से गजमुख कहागणराज का यों जिनभनी, चलें मंदगति अवादष्टि मूसावाहन उपमागाई । तिनका वर्णन जिनागम के अनुगार सुनाभाई ॥ २॥ , सम्पूर्णश्रुत सिंधुभरा जिनपेट में उपमा देनबहे, तिसउपमा के हेतुसे लम्बोदर गणराज कहे । सबसे उत्तम पदस्थ जिनका उत्कृष्ठों में श्रेष्ठलई, इसीसेएकत् अन्त एकदन्त सभा राजरहे ।।
शर।
विनय जिनकी सवरें इससे विनायक नामहै, शिवसकल परमात्मा जिने. श्वर शिष्यमुत गुणधाम है। पतिअप्ठ ऋद्धिरुसिद्धि के शिवपढ में रत यह काम है, मुनिगणको मोदक बहुतप्यारो लगत आगे यामहै । विजय अन्त की मालाधारें और चाह सबविराराई, तिनका वर्णन जिनागमके अनुसारमुनो भाई ॥ ३॥ ऐसे श्रीगणराज गजानन गणधर गणपति कहेगणेश, मूसा: वाहन विनायक लम्बोदर वा पुत्रमहेश । इत्यादिक बहुनाम गुणोंकरपार न । जिनकाल, सुरेश, अन्य कल्पना करें तिनको निर्वकजानो मूढेश ॥
शर। उमाके तनमैल से रचना कहै अज्ञानसो. गजशांश अारोपण करें एकदन्त, युत नादान सो । माने सवारी ऊंदरा शरुपेट दोलसमानसो, समझे न श्राशय गढको मूहों मे मुखियाजानसो, नाथूराम उपरोक्त कहेगुण प्रणमों ऐसेगणराई तिनका वर्णन जिनागम के अनुसार सुनोभाई ॥ ४ ॥
इतिश्री ज्ञानानन्द रत्नाकर सम्पूर्णम् सन १६०४ ई.
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॥विज्ञापन॥
meremones
Dewsinessmom
(१) जो भाई ॥) के भीतर जैन पुस्तक पगाव ये कीगन भर की टि कट भेज देखें महसूल की टिकट हम अपनी ओर से लगा देवंगे
(२)||3) की वा इससे ऊपर की पुस्तके वेल्यू पेचिल भेजा और 3) तककी मगाने वालोका खर्चा टिकट पाकट और फीस मनीआर्डर माफ रहेगा।
(३) इस से अधिक मनाने वालों को खवा माफ के उपरान्त कुछ कमी शिन भी मिलेगा अर्थात जी सी अधिक मगाचंगे वे वैसाही अधिक कमीशन पाव ॥
(४) अपना स्थान हाक खाना गिला साफ अक्षरों में निखना चाहिये यदि शहर होतो मुहल्ला या प्रसिद्धि स्थान भी लिखना चाहिये । नाम पुस्तक
दाग | नागपुस्तक यात्मान शासन सटीक गत्ता हनुमान चरित्र वचनका वेदन सहित
३) मिथ्या प्रचार पायुपाणभाषा छन्द पन्य कोप पंचस्तोत्र गापा जिसमें भक्तामर । सहित
१) कल्याण मंदिर विपापहार एकी ममयमार नाटक यनारसीदास भाव भूपालाचौवीसी वर्तमान नौवीसी विधाम (पाठ)11)/नित्य नेम पूजा सटीक द्वादशानु प्रेक्षा बड़ी
चारपाउ संग्रह भाषा पूजा संग्रह १३ पूजामातामर भाषा १३ विधान
-मस्तागर मून . जैन प्रथमपुस्तकाएकी भाव भाषा * गेन द्वितीय पुस्तक विगापहार मापा 10जनकपासंग्रह नवानभाषा)जिनगुण मस्तावनी भाषा ! भूधर जन शतक सदीक ) बारहमासा बदन्तचक्रवति ।) सूक्त युक्तावली पापा ) बारह मासा मुनिराज * स्वानुभव दर्पण योग सार सटीक ) पंचपरमेष्टी मंगल अति सिद्ध सजन चित्त बन्लभ ५ टीका ) आचीय उपाध्याय साधु मंगल २)
सज्जनचितवल्लभभापा टीका) अपंचाल्याण मंगल बहाल सटीक दौलत राम -1वाईम परीपह योगीरासा * बदाला सनी बुधजन का मालोचना पाठ सटीक ॥ * छहढाल सटीद्यानत शील कथा बड़ी छन्द बन्ध )
तत्वाय सूत्र मूल मोटे काशील कथा वचनका द्रव्यसंग्रह सटीक
दर्शन कथा बड़ी छन्द वन्धी
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दाम नामपुस्तक
नामपुस्तक
दाम समाधि मरए बड़ा
समाधि मरण और तीय वन्दना ) श्रावकाचार दर्पण
0) बारउ भावना दो प्रकार की || सामायिक भाषा
-) धारें जयमाल सहित ) भारती संग्रह
Om उपदेश पचीसी पुकार पचीसी JM जैन धर्म सुधासागर
1) स्तोत्र संग्रह जिस में पाश्नाथ स्तुति । निर्वास काण्ड भाषा
भूधरदास १ द्यानत दास ? जिनेंदू जैन बालकों का गुटका
|| स्तुति दौलतराम? उदयराज १ ) मठाई रासा
|| परमार्थ जकड़ी दौलत राम सठ शलाका
| जकड़ी रामकृष्ण और बारहमासा । उपदेश सिद्धान्त रत्नमाला सटीक ॥)| राजुल का सोरठ में जन भजन समूह छोटा -॥ साधु वन्दना स्तोत्र परमार्थ जकडी इष्टछत्तीसी । भजन संग्रह ५ भाग एकत्र पुकार पचीसी
) प्रत्येक भाग ५० भजन समाधि मरण छोटा
|| इनमें दौलतराम भागचन्दू लालचन्द्र छहाला मूल
-)|| माणिकचन्द्र विहारीलाल द्यानत दास पंचकल्याण मंगल सूक्ष्माक्षर ) भूधर दास बुधजन और मुन्शीनाथू गम
ये सब पुरत के तैयार हैं के भजन संग्रह हैं अत्योत्तम संग्रह है। घारह मासा राजुल नवीन उत्तम -) होली और प्रभाती संग्रह | बारह मासा सीता नवीन उत्तम )| गौरसिग्रह चौवीस तीर्थकर की पारहमासा प्रश्नोत्तर नेपराजुल ) २४ स्तुनि राग गौरी में निर्माण काड दोनों ) | जिनं सहस्र नाम सटीक चेतनचरित्र मापा छंद
जवू स्वामीचरित्र मापा बंद विनती संग्राम
1) दान कथा भाषा छन्द ज्ञानानन्द रत्नाकर दोनोंभागों की समाधि शतक कविचादि में और नवीन लावनी सर्वे का संग्रह ।।2) राजुल पचीसी तत्त्वार्यसूत्र बचनका टीकायर आदित्य बार कथा बड़ी रक्षाबन्धन कथा छन्द बन्ध | भक्तामर सटीक नेम विवाह दो प्रकार के -) द्रव्यसग्रह अन्वायार्थ मापा टीका शाखोच्चार श्रादि व्याहा सहित
3) जिन पुस्तकों के पास ऐसा * चिन्हहै वे हमारी घरू छपाईहै शेप वाहरकीहै। ___ भजन संग्रह दो भाग शिलायंत्र में छप गये शेष टैप में छप रहे है।
TIM..
द० मुन्शी नाथूराम बुकसेलर
बटनी मुब्वारा जिला जवलपुर सी. पी.
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