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ज्ञानानन्दरत्नाकर ।
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नारी को पल || ४ || होय कदाच्चि वाल विधवा तो जायजन्म रोवत सार मिले कुचलनी धनी बनी तो मौस नहीं दुःख का पारा ॥ श्रति हीनाधि वय पति पावे तो न जाय फिर दुःख टारा। रोगी वा पति मिले नपुंसक तो महान दुःख शिरभारा ॥ मूढ़ अकर्त्ता चोर जुझारी मिले तो नित भोगे कलकल । तीनों पन दुःख थुगते भारी नहीं सुक्ख नारी को पल ॥ ९ ॥ जो भतीर दरिद्री होवे तो अपार दुःख क्या कहना । भैरे कष्ट से उदर फटे वस्त्रों से उघोड़े तन रहना || हो क्रोधी भतीर कृतघ्नी तो शोकानल में दहना । वृ भये सुत बहू न माने वात रात्रि दिन दुःख सहना || बात कहत ललकारत सवही रोवे नेत्र भरके भल भल । तीनों पन दु:ख भुगते भारी नहीं सुक्ख नारी को पल || ६ || वर्णन कहँतक करों गुणी जन थोड़े में समझो सर्वाग, महा दुःख की खान जन्मत्रिय जग्न पराश्रय रहती तंग || दुर्बिसनी व्यभिचारी त्रियकी करें प्रशंसा मति के भंग। या नारी की खांय कमाई सोसराहते त्रिय का अंग || पुत्री के ले दाम चहैं आराम जीभके जो हैं चपल | तीनोपन दुःख भुगते भारी नहीं सुक्ख नारी को पल ॥ ७ ॥ महानीच निर्लज्ज हरामी त्रिय का धन चहते खाने । सो नारी को काम धेनु चिंतामणि के सदृश जाने || जो सज्जन सत्पुरुष सुश्री सो वेद शास्त्र के अनुमाने || लख निंदद्य पर्याय त्रियाकी दुःख स्वरूप ताको माने !! नाथूराम जिन भक्त कहें दुःखरूप त्रिया पर्याय सकल | तीनों पन दुःख भुगते भारी नहीं सुक्ख नारी को पल ॥ ८ ॥
शाखी।
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माता सरस्वति दीजिये विद्या का जनको दान जी । अज्ञान तिमर विनाश हृदय प्रकाश अनुभव भानु जी ॥ मैं शरण आया सुयश गाया धरों तेरा ध्यान जी । जिनभक्त नाथूरामको जन जानदेनिज ज्ञान जी ॥
दौड़ |
शारदा जपों नाम तेरा । मनोर्थ कर पूर्ण मेरा ।