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ज्ञानानन्दरत्नाकर।
दोहा। स्थनूपुर पति इन्दु यह विद्याधर नर नाथ ।
नहीं इन्द्र सुरलोक का हारा रावण साथ ॥ नाथूराम वानर वंशिन की कही कथा यह मन भावन । जिन शासन का लहों आधार न कल्पित कहाँ वचन ॥ ८॥
त्रिया जन्मकी निन्दा ४१॥
महा न य पर्याय त्रिया की महा कुटिल भावों का फल । तीनों पन दुःख भुगते भारी नहीं मुक्ख नारी को पल । टेक ॥ जन्म सुनत शिर ध्वनत पिता दिक उदास होके कुलकेजन । आशावान निरास होत सब कर्मान यांचक अपने मन ।। नेग योग वाले सकुचा के मांगसकें ना किंचित धन | श्रवण सुनतसव उदास होते पुरा पडोसी भी तत्क्षण | गीत नृत्य वाजिन महोत्सव वन्दभये गृहमें मंगल | तीनों पन दुःख भुगते भारी नहीं सुक्ख नारी को पल ॥ १॥ खान पान रोग में निरादर मरो जियो भाग्यन अपने । नहीं कुटुम्ब वढन की श्राशा वेटी से काहू स्वपने । वालपने से सकुचति निकसे सर्व अंग पढ़ते ढपने । बदनामी का अति दुःख भारी श्रवण सुनत लागे कपने ॥ ब्याह भये दुःख सास नन्द का काम करत ना पावे कल । तीनों पन दुःख भुगते भारी नहीं मुक्ख नारी को पल ॥ २ ॥ सास ससुर पतिकी दिहसत से राति दिवस रहे कम्पित तन | सबके पीछे भोजन पावै जैसावचे धरमें उसनण। वेअदबी जोकरे पड़े अति मार कुटे दंडों से तन । घर वाहर के कुबचन कहत पराधीन हो मुने श्रवण | हो स्वतंत्र कही जाय न सकती राखा चाहै कुल का जल । तीनों पन दुःख भुगवेभारी नहीं सुक्ख नारी को पल ॥३॥ गर्भ भार का अति दारुण दुःख नौ महिने सहती नारी । मरण समान प्रसूति समय दुःख सहे वेदना अति भारी ।। बड़े कप्टसे पाले वालक तीण भई तन छवि सारी मेरे अधूरा पूरा वालक तो दुःख का कहना क्यारी | बांझ होय तो कुलकी नाशक कहलाने का दुःख अतिवल । तीनों पुन दुःख भुगते भारीनहीं सुक्ख