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ज्ञानानन्दानाकर।
॥चौपाई॥ कमें कोई देवना न जानो । निज करनीका फल पहिचानो । या से नित उद्यम को ठानो । विना किये फल कर्म न जानो।
॥दोहा।। प्रथा क्रिया का करे ता का फन्न सो कर्म ।
नहीं कर्म कुछ और है समझ मूढ़ तन मर्म । जो तू आप हो निर उद्योगी पुरुषार्थ ना खास करे । वांछित फल को मापने करसेही तो नाश करे ॥१॥ पूर्वभव जो किया शुभाशुभ कर्म उदय सो पाता है । उसका भी फल यहां निश्चय सुख दुःख नर पाता है ।। लेकिन वह भी किया पापही स्वयं न भया दिखाता है। इस से निश्चय भया कर्तव्य वृथा ना जाता है।
॥चौपाई॥ जसे कोई बहु ऋणियां भावे । अति श्रपकर अब द्रव्य कमाये ॥ सो सन द्रा व्याज में जाये। या से धनी न होत दिखाने ।।
॥दोहा॥ लेकिन द्रव्य कमावना धन का कारण जान ।
यह लब पुरुषार्थ कगे जन मानस बुधियान ॥ विना मूल तरुही न होय तो फल को क्यों विश्वास करें। वांछित फल को आपने कर सेही तो नाश करे ॥२॥ कोई विपर्यय कारण करके मिद्धि कार्य की चाहते है। सिद्धि न होना कार्य तब दोप देव का कहते है। अपनी भूल दृष्टिं ना पढ़नी वृया खेद तन महते हैं । पुरुषार्थ को छोड़ भा , भरोसे रहते है ॥
चौपाई॥ 'सोने सिंह के मुाव में जाके । नहीं प्रवेश करे मृग धाः ॥