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ज्ञानानन्दरत्नाकर . ग्रीम गिरि शिखर धेरै तप परपा में तस्नल आहे । नदी सरोवर सिन्यु तटरें ध्यान जबर जाई ॥ दशो दिशा में नस्ल जिन्हों के नग्नरूप आसन गाहे । निज मानम से लगाला रागंद्रग दोनों छाहे ॥
*शेर * श्रम भोगन कई दिनों को सौभी मिले अनि शुद्ध । अल्प निद्रा लहै निशिगना कम से करने युद्ध | सुने दुचन निज निन्दा तौभी ना होय किंचित द्ध । मिन भरि काच कंचन राम गिन मन बचा तनवर बुद्ध ॥ सदा नांची वन चापी रूपरण प्रात्य रामगं । वा बाजी को जान वा बाजी क में काम यो ॥ ४ ॥ मग विमन म प्राठ गप्पय त्याग चार कियान कोई । और नोमी पपके मन जान स्वप्ने गलहे || पशुपक्षी अरि दुष्ट हम यसकादिक की वेदा मई । न आने धान में रन सदा बगुयाम रहे ।।
शेर। साग मंया से छोटा जगी बरगी बहलाया । तनी या पानी की समत नमी वा बानी पदपाया ॥ यावानी नाग का नयको खुलाशा मंद बतलाया। उचिी या जान के गाना ढोग इनिगांग मग बाया । जान बम बोकर चूत क्यों खानकी इच्चा पापको वा काजी मोबान या बानी के से काम करो
||मी को चिन यही के सगकर क्षीण कर काया | गिना स्वाद के अल्प साहार हय व माया | अन्तियग में साधु बने अरु भोजन खाई मनमाया बदन नमाने पुष्ट शठ इमी लिंग शिग्गुटाया ॥
शर। करें संतुष्ट इंद्रिन को सदा में कुशीन जुकाम । सने शृगार सब तनो रिझायें दुष्ट परी भाग | यो अति भक्त नागों में जप माला म. मुग्राम । हृत्य में राग नानाने विषय गुम्वा गगन वस पाप । निन स्वार्थ के काम को लोगों से मुख से नाप को। वाचानी को जान पायानी के से कार को ६ | रान खाऊ निनन निम मिहना ना गुग नागहों । मुड मुडा उदर धरने का ऐगे काम
मी यन कुशीन्त सन शोई व्याह कर गकरें । सायु कहा तिन्ह शठ झमरुक पांच प्राणामदार ॥