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ज्ञानानन्दरत्नाकर |
ताहि मत मैलाकरो गृह मनके अपने सिया || परनारि रत जो नरभवे तिनवास दुर्गति में किया । धनधाम प्राणाय प्रति श्रद्यभार शिरापने लिया ।। सेठ मतकरो पड़ीपद परत्रिय जड़ बदनामकी है । जनता को पठायो कुशल इसी में धामकी है ॥ १ ॥ दशमुख कहै त्रिखंडपती में भूचर नभचर मेरे दास । तीन खण्डकी वस्तु पर प्रभुताई है मेरी खास || मुझे छोड़ यह सुन्दर सीता और कौन गृहकर है वास । मानसरोवर छोड़ करते न इन्स लघुसरकी आस || ॥ शेर ॥
इन्द्र से योद्धा मैने बांधे चणक में जाय के सोप वरुण कुरेर यम वैश्रवण वांघाय के || विश्व में जाइर भयो कैलाश शैल उठाय के कौनसा योद्धा रद्दा रण में लड़े जो चाप के तब मन्दोदर कहै नाथ निजमुख न बड़ाई काम की है । जनकसुता को पठायो कुशल इसी में धाम की है ॥ २ ॥ तुमसमको वलवान नाथवर यहकार्य जगमें अतिनीच । तुमको शोभानदे जो परत्रिय अंग लगाओ कीच ॥ नीतिवान पंडित साथम कहलाते नृप गणके बीच | अपकीर्ति से भली है सज्जन जनको जगमें पीच ॥
॥ शेर ॥
बड़ा आश्चर्य र त्रियसे अधिक सुन्दरी । चड़ा ता से रुचि तुप को भई हिरदय वसी भूचर नरी ॥ कहो जैसा रूप विद्या न करों याही घरी । हठ छोड़िये पर नारि का विनती करे मन्दोदरी || सीता भी प्रिय बरै न तुमको पतीव्रतात्रय रामकी है। जनकसुता को पठावो कुरान इसी में धामकी है ॥ ३ ॥
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