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ज्ञानानन्दरत्नाकर।
दोहा। तीनोपन दुःख में गये मुख ना लयो लगार ] '
अब कुछ पुण्य उदय भयो पाये त्रिभुवनतार ।। गया दुःख साराजी महराज लया मुख भारा लखे भवोदधि खवा लखे भवोदधि खवाहो लखे भवोदधि खवा, करें सुरनर सेवा।।। नर्क दुःख पाया जी महराज जाय नहीं गाया तुम्ही जानत ज्ञानी, तुम्हीं जानत शानीहो तुम्ही जानब ज्ञानी, नहीं तुमसेछानी । नारकी मारेंजी महराज क्रोध अति धारेंडाल पेलें धानी, डाल पेले घानीहो टाल पेलें धानी, सहै अति दुःख प्राणी ॥
दोहा। सह सागरी दुःख घने धरधर जन्म अनेक ।
तहां कोई रक्षक नही भुगत आत्म एक ॥ शरण अब आयाजी महराज चरण शिरनाया तुम्हीहो मुधिलेवा तुम्ही हो सुधिलेवाहो तुम्हाही सुधि लेवा, करंसुरनर सेवा ॥ २ ॥ पशःख सारा जी महराज सहा अति भारा कोन मुख से गाने, कौन मुखसे गावेहो कौन मुखसे गाये, पराश्रय जो पाये । जोते अरु ताद जी महरान गारे अरु बारे मांस तक कट जावे, मासतक कटजावहो मांरातक काटनाने, तहां को बचाव
तृणपानी भी पेटभर मिलत समय पर नाहि ।
वहत भार हिम धूपमें मिलत न पलभर छोहि ।। सुना यश भारी जी महराज जगत हितकारी दीजे शिव सुख मेवा । दीजे । शिव सुख मेवाहो दीजे शिव सुख मेवा, करें सुरनर सेवा ॥ ३ ॥ देवपद । थाने जी महराज बृथा सुखमाने नही तहाँ मुख होता, नहीं तहां सुख होता हो नहीं तहां सुख होता, विषयवश दिन खोता । मरण थिति आवेजी महराज । महा बिललावे अधिक दुःखकर रोता, अधिक दुःख कर रोताहो अधिक दुःख . कररोता, खाय विधिश गोता।
रंच न सुख संसार में देखा चहुँ गति टोहि ।