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ज्ञानानन्दरत्नाकर ।
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जन | मनवचतन से प्रभावना अंग विषे नित रहें मगन || १ || फागुनदि गुरुवार अटी तादिन प्रभुरथमें राजे । बहु विधि स्तुति पढतनर नारि चले थागे साजे || गधूव गण संगीत करें ध्वनिंबहु प्रकार बाजे बाजे । रथकी शोभा देखकर जिनद्रोही हियों लाजे || जयजय भविजन कहत सभा मंडप में गये नगे चरणन | मनवचतन से प्रभावना अंग विषै तिर है मगन ॥ २ ॥ शोभनीक जिनधाग सभामंडप रचना अद्भुत बाई | इंडी फानूसे तहांलंपादि । जतं निशि अधिकाई ॥ तेरहद्वीप का विधान पूजन सुने नारिनर हर्पाई अध्यात्म चर्चाकरे भविजीव शस्त्र द्वाराभाई || अष्टम दिन आहार दानदे तृप्त किये सबही के मन | मनवचतन से प्रभावना अंग चिप नितर है मगन ३ ॥ नवम दिवस कलशाविषेक कर फेर लौटती कढ़ी जलेव । श्रति उत्सव से जिनालय में पराये श्रीजिनदेव || धन्य जन्म उननर नारिनका धर्मध्यान सर्वे स्वयमेव । परमार्थ में लगायें धन गुरुजन की करते सेव || नाथूराम जिन भक्त धर्म आशक्त र वेही सज्जन | मनवचतन से प्रभावना गति गगन ॥ ४ ॥
॥ शाखी ॥ खुनीरसंग लघुवीरले चढ़ लंकपर ऐहैं पिया | यासे मिलोले जानकी नहीं पाओगे अपना किया ॥ रावण न माने टेक ठाने बोध बहुरानी दिया | जिनभक्त नाथूराम अति अज्ञान रावण का दिया || ॥ दौड ॥
बहुत समझाने मंदोदर| शशियुग चरणों में घरघर | टेक ना छोड़े दशकन्दर । कुमति ने किया हृदय में घर ॥ नाथूराम करें कर्म रेखा | टरेना यह निश्चय देखाजी ॥
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॥ लावनी ३६ ॥
रावण को समझाने मंदोदर भरके नेत्रजल में दोनों | लेके जानकी