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ज्ञानानन्दरत्नाकर।
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हरो दुःख म्हारे तुमप्ता को जो भवथिति हानीजी वरनिज गुणकादानी ॥ सुयश इतना प्रभुजी लीगे, वमुकर्म रहिन कीजे । नाथूराम को मुत्रोध दीने जासे भूव घिति छीजे, जयें तुम नाम भव्य प्राणीजी वरनिज गुणकादानी ॥
जिनेंदू स्तुति ५६ ।
प्रभुनी तुम त्रिभुवन नाता जी. दीने जनको साता ।। टेक । भूमों में भव वन में भारी बहु भांति देह धारी। कभी नर कभी भया नारी क्या कहूं विपति सारी, मिल अब तुम शिव मुख दाताजी, दीजे. जनको साता.॥ १॥ मुयश तुम गणपति से गावें, शक्रादिक शिरनावें , चरण श्राश्रय जो जन या सो वेशक शिव पायें । तुम्हीहो हितू पिता भाताजी दाजे जनकोसातार लखा मैं दर्शन सुखदाई,निधियाग अतुल पाई, खुशी जो मोचितपर छाई सो जाय नहीं गाई । शीश तुम चरणों में नाता जी, दीगे जनको साता ॥३॥ जपें जो नाम मधूधारा पाये शिव मुख भारा, नशे दुःख जन्मादिक सारा. उमेर भवजलपारा । नाथूराम तुम पदको ध्याता जी. दीजेजनको साता ॥४॥
भव्य प्रशंसा ५७.
--- - - . मूगुरु शिक्षा गिनने मानी जी , भये धन्य वेहीमाणी ।। टेक ॥ विषय विपवन जिनने चीन्हे तनकाम भोग दीने, धर्मबूत जपतप उरलीने निजयात्म रसभाने । उनी मन रुचिघर जिनवाणी जी, भये धन्य वेही माणी ॥ १ ॥ मनुन भव लहि गुकृत फीना, विधि चार दान दीना, कर्मवाहको तपकरतीया शिवपुर वासा लीना । परीजिन जाय मुक्ति रानी जी,भये धन्य वेहीप्राणी.२ मिटा अब त्रिजगत का फेरा तिष्टे अविचल डेरा, इरादुःख जन्ममरण केरा तिनको प्रणाम मेरा । अष्ट विवि की जिन थिति मानी जी, भये धन्य वेही माणी ॥ ३ ॥ कवे यह दिन ऐसा पाऊं. वसु विधि तरको ढाऊं । पास उस