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ज्ञानानन्दरत्नाकर। ना मिले भोगये मुमति कियाछल छलहारी । जो शिव रमणी की सहेली जासग
और नहीं नारी ॥५॥ परी कति अघ खानि सेज शूलारोपण अरुनर्क महल - 1 देखे मै तेरे अनन्त वार धरा नारक पद खल ॥ ताड़ण मारण शीत उष्ण भोगोपभोप विजन पल पल । भोगे मै तेरे साथ पर अब न चले कुछ तेरा छल । हृदय विराजी सुमति हमारे स्वपर भेद भाषण हारी। जो शिव रमणी की सहेली नासम और नहीं नारी ॥ ६ ॥ फेर कुमति खिसिबाय कहीरे मूह चिदानन्द गति होना । पै मोहराज की दुलारी सकल विश्व जिनजय कीना || तासे ते छल किया सुमति संग लिया कठिन तेरा जीना | अबतक अविचारी ने क्या मोहरान को नहीं चीन्हा॥ अभी इठ तन छोड सुमति संग वह उगिनी है अधिकारी | मेरे रंग राचो हर्षधर भोगो शिव सुन्दरि प्यारी ।। ७ ॥ तव चेतन वच काहे गर्मि मैं अभी मोह का नाश करों । प्राभि पान न कर तू तुझे उसकी आम से निरास करों । वंश मोह का जारिबरों शिवनारि मुक्ति पुर वासकरों । नित्यानन्द पूर्ण विरानों फिर ने यहां की श्राश करों ॥ नाथूराम जिन भक्त मुमति प्राशक्त भये लख शुभवारी । जो शिव रगणी की सहेली नासम और नहीं नारी ॥ ८ ॥
___ शाखी * कनफटा शिरजटा धार काई लपेट खेदजी ! कोई भद्र शिर कोई वस्त्र भगवां पहिन ढाकें देहनी ॥ तिनको विरागी दावाजी कह पूजे जगकर नेहनी । पर भेद बाबाजी का क्या है यह पड़ा संदेहनी ॥
दौड़ जिन्हें शट कहेत वा बाजी । सदा वे रहने या वानी ॥ वस्त्र धन जोड़ें हो राजी । कोई सेव कुशील क्या जी ॥ नाथूराम कहै सुनो दे शान । भेद वा पानी का घर ध्यान जी ॥
वा बाजी की लावनी २३॥ ।
वा वाजी जो बनते हो वा बाजी जाय मुकाम करो । वा वानी को जान