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ज्ञानानन्दरत्नाकर। यासै भव दुःख हरण को भक्ति देहु निजमोहि ॥ नाथूराम यांचा जी महराज देहु मुख सांचा भक्त लख स्वय मेव, भक्त लव स्वर मेकहो भक्त लख स्वय भेव, करें सुरनर सेव ४ ॥ ऋषभदेव स्तुति लुप्त वर्णमालामें ६८ ।
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अजर अमर अव्यय पर दाता; आदीवर प्रभु जगत विखाता । इसपर भव मुखदाई, ईश्वर त्रिजगत के पारकरो जिनराई ॥ टेक || उत्पति मरण जरागद नाशो अबलोक शिखरदो वासो, ऋषभ ऋषीपद दाता ऋआदिक देवी सेवकरें तुम माता, एक चित्त जो तुमको ध्यावे. ऐश्वर्यितहो शिवपदपावे
और न जगले पाता, औरों को जगसे तार अहो जगत्राता | अंग अंगमेरे हपाये, ग्राहनाथ तुम दर्शन पाये, कर्म को अधिकाई, ईश्वर त्रिजगत के पार करो जिनराई ॥ १ ॥ खल कर्मा मोहि बहुत भूमाया गमन करत भव अन्त न आया, षटी न भवथिलि स्वामी, वरणाम्बुज थारे यासे गहे युगनामी । छत्रतीन थारे शिरसाह जगत जीव देखत मन मोहे, झल झलाट धुतिचामी देटे भक्वेडी होवे मुमनि आगामी, ठहरे काल अनन्त तहांही, डोले ना इस जगक मादी । होहल युत हलाई ईश्वर त्रिजगत के पारकरो जिनराई ।। २ ।। णमो युग्मपद पद्म तुम्हारे, तीन भवन भवि तारण हारे, थकित अमर नर नारी दर्शन ग देख नाशति विपदा सारी । धन्य धन्य सुरनर उच्चार नवत चरण सब पाप निवारे, पावें परम सुख भारी, फल दायक जग में तुम दर्शन हितकारी । यसब गणधरादि गुण गावे भली भांति गुणपार न पावें, महिमा तिहं जग छाई ईश्वर त्रिजगत के पार करो जिनराई ॥ ३ ॥ युगचरणाम्बुज भंग करीज, रक्षाकर निज सेवा दीजे लीजे खबर जनकेरी, वरभक्ति तुम्हारी नाशक है भरी। शोभित तीन जगन के नायक, पट कायक जीवन सुख दायक, सुधि लीजे प्रभु मेरी, हनिये विधि आगे कीजे नहीं अब देरी, क्षण तण नाथूराम शिर ना त्रिभुवन पति थारे गुण गावें । ज्ञानकला शुभपाई ईश्वर त्रिजगन के पारकरो जिनराई ॥ ४ ॥