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ज्ञानानन्दरत्नाकर।
दोहा। तुम मति हरि वे हरिवल उपजे ना इसमे संदह ।
यासे वैरकरो मत उनसे विनती मानो एह ।। घरोमत शिरपर अपयश का भार, विनवे वारम्बार ॥ ३ ॥ भातसुत वाधे अरु शक्ति कही, क्या विभूति उन वढी । सस्त्र मेरोंपर क्या जंग चढ़ी, जो इतनी त्रियरदी॥
दोहा। नाथूराम जिन भक्त यानगज पर रावण आरूढ़। हितकी बात सुने ना कानों किया मृत्यु ने मूढ़ । जहर से लागे अमृत वचसार, विनवे वारम्बार ॥ ४ ॥
तोते की लावनी सोरठ में ६१ ।
करप्रभु का भजनतू तोता, क्यों जन्म अकारथ खोता ।। टेक ॥ यह क्षण . भंगुर है काया, यासे तूने नेह लगाया। तनुक्षण में होगा पराया, जिस वक्त अबाधा आया।
छड़। ये प्राण आत ना लगे वारकढ़ जावे एकपलमें । हवा लगे ढलजाय बुलबुला जैसेरे जलमें ॥ क्योंजी | काल महावलवान उसपै ना वचे कोई कल में तूहो तोते हुशयार नहीं वह मारेगा श्लमें जी॥
दोहा। कौन शरण संसार में जहां बचे तू जाय । मुर नर पति तीर्थेश से लिये कालने खाय ॥ अबभी तू मूर्ख सोता क्यों जन्म अकार्थ खोता ॥ १॥