Book Title: Gyanand Ratnakar
Author(s): Nathuram Munshi
Publisher: Lala Bhagvandas Jain

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Page 84
________________ ज्ञानानन्दरत्नाकर। वीतराग मार्ग सुदया मय धर्म सुना नहीं कान ।। क्योंजी । जप तप संयम शील न धारा दाता पद निर्वाण, कुविसन निशिदिन सेय निरन्तर रहादृदय मुखमानजी ।। दोहा। । नाथूराम उचित यही अव विचार वृग खोल । हितकारी अनुपम समय कहा जात अनमोल ॥ . देखो जग सारा रोता । क्यों जन्म अकार्थ खोता ॥ भरत की लावनी ६२। दशरथ नदन सदन तजकर । अस्त्र कर लसत चलत सजकर | टेक ।। नगर जन तडपत भरत लखत, कहत वच कह कर मलत शखत, कहत जन हलधर चरण भगत, कढत हलधर यह दरद फकत, कहत वच भरत चलत भजकर । अस्त्र कर लसत चलत सजकर ॥१॥ भरत जब फसत कमर इन हन, नगर तज धरत-चरण वन. बन, कहत सब जन इलघर धन धन, बसत हम घट घट बर मन मन, सफल हम तन वल पद रजकर | अस्त्र कर लसत चलत सजकर ॥ २ ॥ भरत जब नवन चरण हलघर, कहत वर वचन धरन पद घर, कहत वच हलघर तब इसकर, बरस छह छह गत घर पदधर, भरत तब चलत अवध लजकर । अस्त्र कर लसत चलत सजकर ॥ ३ ॥ भ रत नव अगज चरण कमल, चलत घर नयनन बरसत जल, भरत अरजन पर करत अमल, कहत.यह परम कथन नथमल, रटत हलधर यशवर धजकर। अस्त्र कर तसत चलत सजकर ॥ ४ ॥ - हर्दा के मंदिर की अतिशय ६३ । श्री श्यामबरण महराज गरीव निवाज रखो मम लाज मैं आया शरण ।

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