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ज्ञानानन्दरत्नाकर । '
श्रायु गोत्र ने शुभाशुम स्थिति तहां मन दीना ।। नाना विधि भागादि वस्तु का अन्तराय ठेका लीना । तिप्त मित्र वेदना देनको नाना विधि कार्य चीन्दा ॥ यह सब नहो विभूति हमारी मोसम कौन कहो नारी | मै आप रंगीली मेरेरग में डूबी दुनिया सारी ॥ ४ ॥ परिग्रह पान फूल अतगदिक नाना विधि अपभोग खरे । अदया भीर से कालिगा के कुमकुम बहुभानि भरे। कुयश कुशील कुस्पादिक के कुवचन नाना रंगधरे । पिचकारी पाप से जगत के जी हरिशा सर्वोर करे ।। काया वीच विर्षे जगपाणी लिप्त किये मै अधिकारी ॥ मै आप रंगीली मेरे रंगम डूबी दुनिया सारी ॥ ५॥ मन मृदंग तंबूरातन के मधुरशब्द मिलकर वाजें | कर ताज कुटिलता धरे संग में अपगुण घुधुरू गाजे ।। सप्ज विमन सारगी के स्वरसर्च राग ऊपर राजें। संकेत मंजीर युगल हग की गति देख सभी लोजें । आशा तृष्णा नृत्य करें मेरी प्रेग गानी गारी । मैं आप रंगीली मेरे रंग में डूबी दुनिया सारी ॥ ६ ॥ रुदन राग नाना विधि के जहां होय निरंतर अधिकाई । ममता मेवा से भरे घट पूर लहर दश दिशि छाई ।ताइन मारण आदि मिठाई भोगत दिन प्रति सरसाई । भव भ्रमण घरोघर करत महतम मूढता उरछाई ॥ फनीहत फागमचे घरघर प्रतिमो श्राज्ञा सब शिरधारी । मैं आप रंगीली मेरे रंग में डूबी दुनियां सारी ॥ ७ ॥ ऐसी फाग अनादि कालसे मैं स्वयमेव खिलाय रही । जो उ. दास वासे भये तिनही शिवपुर की राह नही || नाथुराम कहैं वे पुरुषोत्तम जे शिवपुरकी बसे मही । निंदित्त संसारी सर्वही जो शिरधार कुमति कही । कुपति कहै मेरी विचित्र गति यह जगनीवों को पारी । मैं आप रगीली मेरे रंग इवी दुनियां सारी ॥४॥
॥ सुमति की लावनी २१॥
सुमति सुनारि कहै चेतन से छोड़ कुमति कुलटानारी । मेरे रंगगयो हर्षधर भोगो शिवसुंदरि प्यारी ॥ टेक ॥ ज्ञान मानु है पिता हमारे जो घटघट में करें प्रकाश । उदय जिन्हों का होतेही मोह तिमर रिपु होता नाश ॥ स्वपर विवेक मित्र है जिनका जगजीवों को सुखकी राश । विषय विरोधक दास संवर जिनके नित रहता पास ॥ जीवदया धर्मकी मूल बरसोई हमारी महतारी। मेरे रंगराचो