Book Title: Gyanand Ratnakar
Author(s): Nathuram Munshi
Publisher: Lala Bhagvandas Jain

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Page 75
________________ ज्ञानानन्दरत्नाकर। ७३ दाहा। फूल माल जिन नामकी करते शठ नीलाम । नामवरी को उमंग के वदवह वोलत दाम ॥ अँधेरा विन विवेक छाया, जिन्हे खल कुगुरुन विहंकायाजी ॥ ३ ॥ वीच सभा में कोई आप पगड़ी लेय उनार, फेर वेचे तिसको उच्चारनी तहां कोई बहु दाम बढ़ाकर लेय आप शिरधार ॥ विना आज्ञा तुम्हरी उस वारजी॥ दोहा। तिसपर कैसे करेंगे आप तहां परणाम । द्वैप रूप या हर्ष मय सोच कहो इस ठाम ।। न्याय का अवसर यह आया, जिन्हें खल कुगुरुन विहकाया जी ४ ॥ ना देवाला कढा प्रभू का जिसको वेचत माल, नहीं कुछहैं जिनेन्द्र कंगाल जी, धर्म करो भण्डार में सो धन देउ हाथ से घाल, पकड़ता कौन हाथ तिस कालजी ।। दाहा। तान लोक के नाथ की करत प्रतिष्ठा हीन । कौन ग्रन्थ आधार से हमें वतावो चीन || मुनन कोमो मन ललचाया, जिन्हें खल कुगुरुन विहकाया जी ॥५॥ अभी तो वेचत माल फेर वेचिहैं सिंहासन छन , बुलाके वहु जैनी लिख पत्रजी, अभिमानी शठ धनी नाम को खरीदि कर हैं तत्र, बहुत धन होवेगा एकत्र जी । दोहा। वड़ा फलाप्टक सभा में तिन्हें सुनय हैं टेर। तव क्षण में बहु द्रव्य का होजावेगा ढेर ।। भला रुजिगार नजर आया, जिन्हें खल कुगुरुन विहकाया ॥६॥ निर्लोभी क्षत्री कुल में भये तर्थिकर अवतार, तजा तिन सर्व परिगृह भारजी, राज लक्षमी तृण सम तजली वीतरागता धार | तजा सब संसारिक व्यवहारजी॥

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