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ज्ञानानन्दरत्नाकर
दोहा। देश महसू बत्तीस मे कीना नाथ विहार ।
अप्टापदसे शिव गये हनि अघातिया चार ॥ नाथूराम जहां न जन्मन मरण, आदि प्रभु प्रगटे तारण तरणजी ॥
मुर्ख जैनी की लावनी ५३ ।
जिनमत पाय विपर्यय वर्ते क्या जिनमत पाया,जिन्हेखल कुगुरुन विहंकायाजी टेक ॥ नर पर्याय पाय श्रावक कुल आर्यक्षेत्र प्रधान, मिला दुर्लभ जिन वृपशुभ
आनजी । चलें चालि विपरीति कुगुरु शिक्षापर कर श्रद्धाण , सुनो वर्णन विसका धर ध्यानजी ॥
दोहा। चीतराग छवि शुद्धको चन्दनादि लपटाय ।
परग्रह धारी गुरुन की करत सेव अधिकाय ॥ कहैं गुरुभाग्यन से पाया, जिन्हे खल कुगुरुन विकाया जी ॥१॥
जो कुल का आचार उसी को मानत धर्म अज्ञान, नाम को करें पुण्यअरु दानजी ॥ लंघन को उपवास मानते विना तत्त्व श्रद्धाण, वृथा तन कप्टसह अज्ञान जी ॥
दोहा। चाकी ले वत्तियां जिन गृह मे अधिकाय ।
जालत अति उत्साह से पोषत विषय अघाय ॥ हृदय में अहंकार छाया, जिन्हें खल कुगुरुन विहंकाया जी ॥ २॥ हरित फूलफल कपूरादिक जो हैं वस्तु सचित्त । करें जिनपूजा तिन से नित्त जी ॥ जैनी वन शठयाप पन्थ में अधिक लगाते चित्त, चाहते तिससे आत्म हित जी ।।